08 अप्रैल 2021
पास्का अठवारा - गुरुवार
पहला पाठ : प्रेरित-चरित 3:11-26
11) वह मनुष्य पेत्रुस और योहन के साथ लगा हुआ था, इसलिए सब लोग आश्चर्यचकित हो कर सुलेमान नामक मण्डप में उनके पास दौड़े आये।
12) पेत्रुस ने यह देख कर उन से कहा, ‘‘इस्राएली भाइयो! आप लोग इस पर आश्चर्य क्यों कर रहे हैं और हमारी ओर से इस प्रकार क्यों ताक रहे हैं, मानों हमने अपने सामर्थ्य या सिद्धि से इस मनुष्य को चलने-फिरने योग्य बना दिया है?
13) इब्राहीम, इसहाक और याकूब के ईश्वर ने, हमारे पूर्वजों के ईश्वर ने अपने सेवक ईसा को महिमान्वित किया है। आप लोगों ने उन्हें पिलातुस के हवाले कर दिया और जब पिलातुस उन्हें छोड़ कर देने का निर्णय कर चुका था, तो आप लोगों ने उन्हें अस्वीकार किया।
14) आप लोगों ने सन्त तथा धर्मात्मा को अस्वीकार कर हत्यारे की रिहाई की माँग की।
15) जीवन के अधिपति को आप लोगों ने मार डाला; किन्तु ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से जिलाया। हम इस बात के साक्षी हैं।
16) ईसा के नाम में विश्वास के कारण उसी नाम ने इस मनुष्य को, जिसे आप देखते और जानते हैं, बल प्रदान किया है। उसी विश्वास ने इसे आप सबों के सामने पूर्ण रूप से स्वस्थ किया है।
17) भाइयो! मैं जानता हूँ कि आप लोग, और आपके शासक भी, यह नहीं जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं।
18) ईश्वर ने इस प्रकार अपना वह कथन पूरा किया जिसके अनुसार उसके मसीह को दुःख भोगना था और जिसे उसने सब नबियों के मुख से घोषित किया था।
19) आप लोग पश्चात्ताप करें और ईश्वर के पास लौट आयें, जिससे आपके पाप मिट जायें
20) और प्रभु आप को विश्रान्ति का समय प्रदान करे। तब वह पूर्वनिर्धारित मसीह को, अर्थात् ईसा को आप लोगों के पास भेजेगा।
21) यह आवश्यक है कि वह उस विश्वव्यापी पुनरूत्थान के समय तक स्वर्ग में रहें, जिसके विषय में ईश्वर प्राचीन काल से अपने पवित्र नबियों के मुख से बोला।
22) मूसा ने तो कहा, प्रभु-ईश्वर तुम्हारे भाइयों में से तुम्हारे लिए मुझ-जैसा एक नबी उत्पन्न करेगा वह जो कुछ तुम लोगों से कहेगा तुम उस पर ध्यान देना।
23) जो उस नबी की बात नहीं सुनेगा, वह प्रजा में से निकाल दिया जायेगा।
24) समूएल और सभी परवर्ती नबियों ने इन दिनों की भविष्यवाणी की है।
25) ‘‘आप लोग नबियों की सन्तति और उस विधान के भागीदार हैं, जिसे ईश्वर ने आपके पूर्वजों के लिए उस समय निर्धारित किया, जब उसने इब्राहिम से कहा, तुम्हारी सन्तति द्वारा पृथ्वी भर के वंश आशीर्वाद प्राप्त करेंगे।
26) ईश्वर ने सब से पहले आप लोगों के लिए अपने पुत्र ईसा को पुनर्जीवित किया और आपके पास भेजा, जिससे वह आप लोगों में हर एक को कुमार्ग से विमुख कर आशीर्वाद प्रदान करें।’’
सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 24:35-48
35) तब उन्होंने भी बताया कि रास्ते में क्या-क्या हुआ और उन्होंने ईसा को रोटी तोड़ते समय कैसे पहचान लिया।
36) वे इन सब घटनाओं पर बातचीत कर ही रहे थे कि ईसा उनके बीच आ कर खड़े हो गये। उन्होंने उन से कहा, ‘‘तुम्हें शान्ति मिले!’’
37) परन्तु वे विस्मित और भयभीत हो कर यह समझ रहे थे कि वे कोई प्रेत देख रहे हैं।
38) ईसा ने उन से कहा, ‘‘तुम लोग घबराते क्यों हो? तुम्हारे मन में सन्देह क्यों होता है?
39) मेरे हाथ और मेरे पैर देखो- मैं ही हूँ। मुझे स्पर्श कर देख लो- प्रेत के मेरे-जैसा हाड़-मांस नहीं होता।’’
40) उन्होंने यह कह कर उन को अपने हाथ और पैर दिखाये।
41) जब इस पर भी शिष्यों को आनन्द के मारे विश्वास नहीं हो रहा था और वे आश्चर्यचकित बने हुए थे, तो ईसा ने कहा, ‘‘क्या वहाँ तुम्हारे पास खाने को कुछ है?’’
42) उन्होंने ईसा को भुनी मछली का एक टुकड़ा दिया।
43) उन्होंने उसे लिया और उनके सामने खाया।
44) ईसा ने उन से कहा, ‘‘मैंने तुम्हारे साथ रहते समय तुम लोगों से कहा था कि जो कुछ मूसा की संहिता में और नबियों में तथा भजनों में मेरे विषय में लिखा है, सब का पूरा हो जाना आवश्यक है’’।
45) तब उन्होंने उनके मन का अन्धकार दूर करते हुए उन्हें धर्मग्रन्थ का मर्म समझाया
46) और उन से कहा, ‘‘ऐसा ही लिखा है कि मसीह दुःख भोगेंगे, तीसरे दिन मृतकों में से जी उठेंगे
47) और उनके नाम पर येरुसालेम से ले कर सभी राष्ट्रों को पापक्षमा के लिए पश्चात्ताप का उपदेश दिया जायेगा।
48) तुम इन बातों के साक्षी हो।
📚 मनन-चिंतन
पेत्रुस और योहन अत्यत साधारण लोग थे। वे अशिक्षित मछुआरे थे। (देखिये प्रेरित चरित 3:13) प्रभु येसु ने उनको चुनकर तथा लंगडे व्यक्ति को उनके द्वारा चंगाई दिलाकर उन्हें आकर्षण का केन्द्र बना दिया था। अचानक लोगों की प्रंशसा तथा सरहना ने उनको घेर लिया था। उस क्षण के लिये वे ’सुपर हीरो’ बन गये थे। लेकिन उन्होंने व्यक्तिगत प्रशंसा और गलत आत्म-धारणा के प्रलोभन से बचकर इस बात को घोषित किया कि ईश्वर के सामर्थ्य ने लंगडे व्यक्ति को चंगा किया है। पेत्रुस जानता था कि वे कमजोर, पापी येसु जिन्होंने उस लंगडे का चंगा किया पर निर्भर रहने वाले व्यक्ति थे। वे कहते हैं, ’’ईसा के नाम में विश्वास के कारण उसी नाम ने इस मनुष्य को, जिसे आप देखते और जानते हैं, बल प्रदान किया है। उसी विश्वास ने इसे आप सबों के सामने पूर्ण रूप से स्वस्थ किया है।’’ (प्रेरित चरित 3:16)
इस की सेवा में कार्यरत लोगों को अत्यंत विनम्र होना चाहिये। ईश्वर के सेवकों को ईश्वर के श्रेय को चुराना नहीं चाहिये। स्तोत्रकार कहते हैं, ’’हम को नहीं, हम को नहीं, बल्कि अपना नाम महिमान्वित कर।’’ (स्तोत्र 115:1) जो लोग ईश्वर की सेवा में विनम्र बने रहते हैं वे स्वयं पर बडा उपकार करते हैं। ईश्वर उनकी इस विनम्रता के कारण उनका उपयोग अपने कार्यों में करता है किन्तु जो घमण्डी बन जाता है वे स्वयं के विनाश को आमंत्रित करते हैं।
दाउद ने ईश्वर की मंजूषा के सामने हर्ष-उल्लास में सुधबुध खोकर नाच किया था तथा इस बात के लिये उसकी पत्नी मीकल ने उन्हें फटकारा था। राजा दाउद ने अपनी विनम्रता का कारण बताते हुये कहा, ’’दाऊद ने मीकल से कहाए ष्प्रभु ने तुम्हारे पिता और तुम्हारे सारे घराने की अपेक्षा मुझे चुना है और मुझे प्रभु की प्रजा इस्राएल का शासक बनाया है। मैं उसी प्रभु के सामने नाचता रहा और नाचूँगा। मैं इस से अधिक अशोभनीय आचरण करूँगा और अपनी दृष्टि में अपने को और नीचा दिखाऊँगा।’’ (2 समूएल 6:21-22) दाउद ईश्वर के समक्ष अपनी विनम्रता के कारण धनी माने जाते हैं। दाउद ने धार्मिक भावना से प्रेरित होकर ईश्वर का मंदिर बनाने का निर्णय लिया। उसने इसके लिये विस्तृत योजना बनायी तथा तैयारी की। लेकिन जब ईश्वर ने दाउद की योजना को नकार दिया तो दाउद ने ईश्वर की इच्छा का विरोध नहीं किया वरन उसे स्वीकारा।
संत पौलुस इस सच्चाई को स्पष्ट करते हुये कहते हैं, ’’इसका अर्थ यह नहीं कि हमारी कोई अपनी योग्यता है। हम अपने को किसी बात का श्रेय नहीं दे सकते। हमारी योग्यता का स्त्रोत ईश्वर है। उसने हमें एक नये विधान के सेवक होने के योग्य बनाया है।’’ (2 कुरि.3:6) एक व्यक्ति यदि अपनी उपलब्धियों के लिये यदि स्वयं को ही महिमांवित करता है, तो वह अपना ही नुकसान करता है। हम मन सांसारिक मोहमाया, लोगों की वाहवाही के गर्व में आसानी से पड जाता है। लेकिन संत पेत्रुस एवं प्रेरितगण हमें सिखाते हैं कि यदि हम ईश्वर को महिमा प्रदान करेंगे तो ईश्वर निरंतर हमारा उपयोग उनके साधनों के रूप में करते रहेंगे।
📚 REFLECTION
Peter and John were very ordinary people. They were illiterate and fishermen. (See Acts 3:13)However it was the Lord Jesus who by his choice and now by the curing of the lame man had made them the centre of attraction. They were suddenly surrounded by awe and admiration of the people. They had become ‘supermen’ at least for a while. Nevertheless, brushing aside all temptation of self-glory and self-assumption they maintained a steadfast stance that it was the Lord whose power was at work. Peter refused to take any honour to himself but gave it to the Lord who had used them as instruments. Peter knew that they were weak, sinful and dependent for everything on Jesus whose power effected the cure of the man. He said, “And by faith in his name, his name itself has made this man strong, whom you see and know; and the faith that is through Jesus has given him this perfect health in the presence of all of you.” (3:16)
Useful man must be very humble. God’s servants do not rob the Lord of his credit. Palmist would aptly plead, “Not to us, O Lord, not to us, but to your name give glory.” (Psalm 115:1) All those who remain humble in the service of God do to themselves a great favour. God continues to use them for his mission on the contrary when someone becomes proud and draws credit for himself, lives in vain glory and propels his own downward journey.
David danced before the ark of God with great joy and for doing so he was chastised by his wife Michal for not maintaining the decorum befitting a king. However, David remained humble and spoke, “It was before the Lord, who chose me in place of your father and all his household, to appoint me as prince over Israel, the people of the Lord, that I have danced before the Lord. I will make myself yet more contemptible than this, and I will be abased in my own eyes.” (2 Samuel 6:21-22) David is always exalted for his humility before God. David had all the good intentions and wanted to build the temple. He made elaborate plans and preparation for it, however, when the Lord denies him the permission David does resist or resents but accepts Lord’s will.
St. Paul clearly state this fact, “Not that we are competent of ourselves to claim anything as coming from us; our competence is from God, who has made us competent to be ministers of a new covenant, (2 Cor. 3:6)
A person breaks his ownfortunes when he exalts himself and seek glory and credit to his own human skill. Too often, the heart is easily led astray by the attention, attraction and success we receive for our good deeds, but Peter and apostles teachus to give honour to God not to themselves so that God’s grace continue to flow abundantly and flawlessly.
✍ -Br. Biniush Topno
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