About Me

My photo
Duliajan, Assam, India
Catholic Bibile Ministry में आप सबों को जय येसु ओर प्यार भरा आप सबों का स्वागत है। Catholic Bibile Ministry offers Daily Mass Readings, Prayers, Quotes, Bible Online, Yearly plan to read bible, Saint of the day and much more. Kindly note that this site is maintained by a small group of enthusiastic Catholics and this is not from any Church or any Religious Organization. For any queries contact us through the e-mail address given below. 👉 E-mail catholicbibleministry21@gmail.com

1 मई, 2021 - शनिवार – पास्का का चौथा सप्ताह सन्त योसेफ श्रमिक - ऐच्छिक स्मृति

 

1 मई, 2021 - शनिवार – पास्का का चौथा सप्ताह

सन्त योसेफ श्रमिक - ऐच्छिक स्मृति

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ : प्रेरित-चरित 13:44-52

44) अगले विश्राम-दिवस नगर के प्रायः सब लोग ईश्वर का वचन सुनने के लिए इकट्ठे हो गये।

45) यहूदी इतनी बड़ी भीड़ देख कर ईर्ष्या से जल रहे थे और पौलुस की निंदा करते हुए उसकी बातों का खण्डन करते रहे।

46) पौलुस और बरनाबस ने निडर हो कर कहा, ’’यह आवश्यक था कि पहले आप लोगों को ईश्वर का वचन सुनाया जाये, परंतु आप लोग इसे अस्वीकार करते हैं और अपने को अनंत जीवन के योग्य नहीं समझते; इसलिए हम अब गैर-यहूदियों के पास जाते हैं।

47) प्रभु ने हमें यह आदेश दिया है, मैंने तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बना दिया हैं, जिससे तुम्हारे द्वारा मुक्ति का संदेश पृथ्वी के सीमांतों तक फैल जाये।’’

48) गैर-यहूदी यह सुन कर आनन्दित हो गये और ईश्वर के वचन की स्तृति करते रहे। जितने लोग अनंत जीवन के लिए चुने गये थे, उन्होंने विश्वास किया

49) और सारे प्रदेश में प्रभु का वचन फैल गया।

50) किंतु यहूदियों ने प्रतिष्ठित भक्त महिलाओं तथा नगर के नेताओ को उभाड़ा, पौलुस तथा बरनाबस के विरुद्ध उपद्रव खड़ा कर दिया और उन्हें अपने इलाके से निकाल दिया।

51) पौलुस और बरनाबस उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ कर इकोनियुम चले गये।

52) शिष्य आनन्द और पवित्र आत्मा से परिपूर्ण थे।

सुसमाचार : योहन 14:7-14


7) यदि तुम मुझे पहचानते हो, तो मेरे पिता को भी पहचानोगे। अब तो तुम लोगों ने उसे पहचाना भी है और देखा भी है।’’

8) फिलिप ने उन से कहा, ’’प्रभु! हमें पिता के दर्शन कराइये। हमारे लिये इतना ही बहुत है।’’

9) ईसा ने कहा, ’’फिलिप! मैं इतने समय तक तुम लोगों के साथ रहा, फिर भी तुमने मुझे नहीं पहचाना? जिसने मुझे देखा है उसने पिता को भी देखा है। फिर तुम यह क्या कहते हो- हमें पिता के दर्शन कराइये?’’

10) क्या तुम विश्वास नहीं करते कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में हैं? मैं जो शिक्षा देता हूँ वह मेरी अपनी शिक्षा नहीं है। मुझ में निवास करने वाला पिता मेरे द्वारा अपने महान कार्य संपन्न करता है।

11) मेरी इस बात पर विश्वास करो कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में हैं, नहीं तो उन महान कार्यों के कारण ही इस बात पर विश्वास करो।

12) मैं तुम लोगो से यह कहता हूँ जो मुझ में सिवश्वास करता है, वह स्वयं वे कार्य करेगा, जिन्हें मैं करता हूँ। वह उन से भी महान कार्य करेगा। क्योंकि मैं पिता के पास जा रहा हूँ।

13) तुम मेरा नाम ले कर जो कुछ माँगोगे, मैं तुम्हें वही प्रदान करूँगा, जिससे पुत्र के द्वारा पिता की महिमा प्रकट हो।

14) यदि तुम मेरा नाम लेकर मुझ से कुछ भी माँगोगें, तो मैं तुम्हें वही प्रदान करूँगा।


श्रमिक संत यूसुफ़

पहला पाठ: उत्पत्ति 1:26-2:3


26) ईश्वर ने कहा, ''हम मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनायें, यह हमारे सदृश हो। वह समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों घरेलू और जंगली जानवरों और जमीन पर रेंगने वाले सब जीवजन्तुओं पर शासन करें।''

27) ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया; उसने उसे ईश्वर का प्रतिरूप बनाया; उसने नर और नारी के रूप में उनकी सृष्टि की।

28) ईश्वर ने यह कह कर उन्हें आशीर्वाद दिया, ''फलोफूलो। पृथ्वी पर फैल जाओ और उसे अपने अधीन कर लो। समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों और पृथ्वी पर विचरने वाले सब जीवजन्तुओं पर शासन करो।''

29) ईश्वर ने कहा, मैं तुम को पृथ्वी भर के बीज पैदा करने वाले सब पौधे और बीजदार फल देने वाले सब पेड़ देता हूँ। वह तुम्हारा भोजन होगा। मैं सब जंगली जानवरों को, आकाश के सब पक्षियों को,

30) पृथ्वी पर विचरने वाले जीवजन्तुओं को उनके भोजन के लिए पौधों की हरियाली देता हूँ'' और ऐसा ही हुआ।

31) ईश्वर ने अपने द्वारा बनाया हुआ सब कुछ देखा और यह उसको अच्छा लगा। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह छठा दिन था।

1) ईश्वर ने जिन जंगली जीव-जन्तुओं को बनाया था, उन में साँप सब से धूर्त था। उसने स्त्री से कहा, ''क्या ईश्वर ने सचमुच तुम को मना किया कि वाटिका के किसी वृक्ष का फल मत खाना''?

2) स्त्री ने साँप को उत्तर दिया, ''हम वाटिका के वृक्षों के फल खा सकते हैं।

3) परन्तु वाटिका के बीचोंबीच वाले वृक्ष के फलों के विषय में ईश्वर ने यह कहा - तुम उन्हें नहीं खाना। उनका स्पर्श तक नहीं करना, नहीं तो मर जाओगे।''


अथवा - पहला पाठ: कलोसियों 3:14-15, 17, 23-24


14) इसके अतिरिक्त, आपस में प्रेम-भाव बनाये रखें। वह सब कुछ एकता में बाँध कर पूर्णता तक पहुँचा देता है।

15) मसीह की शान्ति आपके हृदय में राज्य करे। इसी शान्ति के लिए आप लोग, एक शरीर के अंग बन कर, बुलाये गये हैं। आप लोग कृतज्ञ बने रहें।

17) आप जो भी कहें या करें, वह सब प्रभु ईसा के नाम पर किया करें। आप लोग उन्हीं के द्वारा पिता-परमेश्वर को धन्यवाद देते रहें।

23) आप लोग जो भी काम करें, मन लगा कर करें, मानों मनुष्यों के लिए नहीं, बल्कि प्रभु के लिए काम कर रहे हों;

24) क्योंकि आप जानते हैं कि प्रभु पुरस्कार के रूप में आप को विरासत प्रदान करेगा। आप लोग प्रभु के दास हैं।


सुसमाचार : मत्ती 13:54-58


54) वे अपने नगर आये, जहाँ वे लोगों को उनके सभागृह में शिक्षा देते थे। वे अचम्भे में पड़ कर कहते थे, "इसे यह ज्ञान और यह सामर्थ्य कहाँ से मिला?

55) क्या यह बढ़ई का बेटा नहीं है? क्या मरियम इसकी माँ नहीं? क्या याकूब, यूसुफ़, सिमोन और यूदस इसके भाई नहीं?

56) क्या इसकी सब बहनें हमारे बीच नहीं रहतीं? तो यह सब इसे कहाँ से मिला?"

57) पर वे ईसा में विश्वास नहीं कर सके। ईसा ने उन से कहा, "अपने नगर और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता।"

58) लोगों के अविश्वास के कारण उन्होंने वहाँ बहुत कम चमत्कार दिखाये।


📚 मनन-चिंतन


संत युसूफ- जिन्होने मरियम, येसु और ईश्वर की योजना के लिए अपना सुख और जीवन को न्योछावर कर दिया उनका आज हम सम्पूर्ण कलिसिया के साथ मिलकर श्रमिक संत के रूप में पर्व मनाते है। यह पर्व हमारे लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि संत पिता फ्रांसिस ने यह वर्ष संत युसूफ के वर्ष के रूप मंे घोषित किया है।

संत युसूफ न केवल पवित्र परिवार के रक्षक रहे है अपितु वे विश्वव्यापि कलीसिया के संरक्षक भी है। आज सम्पूर्ण कलीसिया श्रमिक संत युसूफ का पर्व मनाती है। यह पर्व हमारे समक्ष संत युसूफ के सभी गुणों में से एक- कर्मठता के गुण को विशेष रूप से प्रकट करता है।

संत युसूफ एक मेहनती संत है जिन्होनें अपने परिवार को आगे बढ़ाने के लिए न केवल आध्यात्मिक रूप से परंतु शारीरिक रूप से मेहनत और कार्य किया। वे एक बढ़ाई थे और उन्होने अपना कार्य बहुत श्रद्धापूर्वक और ईमानदारी से किया। उनका जीवन उनके परिवार के प्रति समर्पित जीवन था।

संत युसूफ हम सभी के लिए एक प्रेरणा है जो हमें बताते है कि किस प्रकार हम धर्मी होने के साथ साथ कर्मठ व्यक्ति भी हो सकते है। संत युसूफ के बचपन के विषय में हम ज्यादा नहीं जानते परंतु हम उनको येसु के जन्म के घटनाओं के बीच में एक धर्मी और रक्षक पिता के रूप में जानते है। संत युसूफ पवित्र परिवार के आदर्श पिता है। मेहनत और परिश्रम करने वाले व्यक्तियों के लिए भी संत युसूफ एक आदर्श है।

आज के इस पर्व के दिन हमे अपने परिवारों के लिए प्रार्थना करें विशेष करके परिवार के मुखिया के लिए जो अपने श्रम और बलिदान द्वारा परिवार का पालन पोषण एवं हर खतरों से बचाने के लिए अपना जीवन अर्पित करते है। संत युसूफ उन सभी पिताओं को आदर्श पिता के रूप में आशीष दें। आमेन!



📚 REFLECTION



Today we are celebratin the feast of St. Joseph-the worker, who surrendered his life and happiness for the sake of Mary, Jesus and for the plan of God. This feast is all the more important for us as this year is being declared as the year of St. Joseph by Pope Francis.

St. Joseph was not only the protector of the Holy family but He is also the Patron of the Universal Church. Today that Universal Catholic Church celebrates the feast of St. Joseph-the worker. This feast highlights the value of hard work or diligence of St. Joseph among the many other values.

St. Joseph is a hard working Saint who worked hard not only in spiritual level but also in physical level to bring forth his family. He was a carpenter and he did his work with full dedication and honesty. His life was the life surrendered for his family.

St. Joseph is an inspiration for all of us who teaches us that a person can be hard working along with the righteousness quality in him/her. We do not know much about his childhood life but we come to know him as a righteous man and the protector of his family in the midst of the event of Jesus’ birth. St. Joseph is an ideal Father of the Holy Family. St. Joseph is an ideal for the people who do hard work in their lives.

In today’s feast let us pray for our family especially for the leader of the family, who through the hard work and sacrifices upbrings the family and offers his life for the protection of his family. May St. Joseph bless all those fathers as the ideal fathers.

 -Br. Biniush Topno


Copyright © www.atpresentofficial.blogspot.com
Praise the Lord!

आज का पवित्र वचन शुक्रवार - 30 अप्रैल 2021

 

शुक्रवार - 30 अप्रैल 2021




पहला पाठ : प्रेरित-चरित 13:26-33


26) ’’भाइयों! इब्राहीम के वंशजों और यहाँ उपस्थित ईश्वर के भक्तों! मुक्ति का यह संदेश हम सबों के पास भेजा गया है।

27) येरुसालेम के निवासियों तथा उनके शासकों ने ईसा को नहीं पहचाना। उन्हें दण्डाज्ञा दिला कर उन्होंने अनजाने ही नबियों के वे कथन पूरे कर दिये, जो प्रत्येक विश्राम-दिवस को पढ़ कर सुनाये जाते हैं।

28) उन्हें प्राणदण्ड के योग्य कोई दोष उन में नहीं मिला, फिर भी उन्होंने पिलातुस से अनुरोध किया कि उनका वध किया जाये।

29) उन्होंने उनके विषय में जो कुछ लिखा है, वह सब पूरा करने के बाद उन्हें क्रूस के काठ से उतारा और कब्र में रख दिया।

30) ईश्वर ने उन्हें तीसरे दिन मृतकों में से पुनर्जीवित किया

31) और वह बहुत दिनों तक उन लोगों को दर्शन देते रहे, जो उनके साथ गलीलिया से येरुसालेम आये थे। अब वे ही जनता के सामने उनके साक्षी हैं।

32) हम आप लोगों का यह सुसमाचार सुनाते हैं कि ईश्वर ने हमारे पूर्वजों से जो प्रतिज्ञा की थी।

33) उसे उनकी संतति के लिए अर्थात् हमारे लिए पूरा किया है। उसने ईसा को पुनर्जीवित किया है, जैसा कि द्वितीय स्तोत्र में लिखा है, तुम मेरे पुत्र हो। आज मैंने तुम को उत्पन्न किया हैं।


सुसमाचार : योहन 14:1-6


1) तुम्हारा जी घबराये नहीं। ईश्वर में विश्वास करो और मुझ में भी विश्वास करो!

2) मेरे पिता के यहाँ बहुत से निवास स्थान हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो मैं तुम्हें बता देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये स्थान का प्रबंध करने जाता हूँ।

3) मैं वहाँ जाकर तुम्हारे लिये स्थान का प्रबन्ध करने के बाद फिर आऊँगा और तुम्हें अपने यहाँ ले जाउँगा, जिससे जहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम भी रहो।

4) मैं जहाँ जा रहा हूँ, तुम वहाँ का मार्ग जानते हो।

5 थोमस ने उन से कहा, ’’प्रभु! हम यह भी नहीं जानते कि आप कहाँ जा रहे हैं, तो वहाँ का मार्ग कैसे जान सकते हैं?’’

6) ईसा ने उस से कहा, ’’मार्ग सत्य और जीवन मैं हूँ। मुझ से हो कर गये बिना कोई पिता के पास नहीं आ सकता।’’


📚 मनन-चिंतन


प्रभु येसु प्रतिज्ञात मुक्तिदाता एवं मसीह थे जिन्हें ईश्वर ने भेजा था। किन्तु जिन लोगों को उनका स्वागत करना था उन्होंने ने ही उन्हें को क्रूस पर चढाकर मार डाला। उन्होंने उन्हें पहचाना नहीं तथा अपने अज्ञान में उन्हें मार डाला। वे शायद ऐसे मसीह की राह देख रहे थे जो उन्हें रोमियों से मुक्ति दिला कर राजनैतिक सत्ता को उलटफेर दे।

उनके इस कुकर्म और अज्ञान का कारण यह था कि उन्होंने धर्मग्रंथ में दी गयी नबियों की वाणियों पर ध्यान जिन्हें उनके सभागृहों हर विश्राम दिवस को पढकर सुनाई जाती थी। (13:27) उन्होंने वचन को सुना पर समझे नहीं। येसु उनके इसी पाखण्ड को दिखाते हुये कहते हैं, ’’तुम लोग यह समझ कर धम्रग्रन्थ का अनुशीलन करते हो कि उस में तुम्हें अनन्त जीवन का मार्ग मिलेगा। वही धर्मग्रन्ध मेरे विषय में साक्ष्य देता है, फिर भी तुम लोग जीवन प्राप्त करने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते।’’ (योहन 5:39-40)

धर्मग्रंथ को जानता तथा उसे समझना दो अलग-अलग बातें हैं। वचन को जानने के लिये हमें मनुष्य के प्रयासों की जरूरत पडती है किन्तु उसे समझने के लिये ईश्वर की सहायता की आवश्यकता महसूस होती है क्योंकि वे ईश-वचन है जिन्हें केवल ईश्वर ही समझा सकता है। वचन को समझने के हमें अपने पूर्वाग्रहों तथा मानसिक-व्यवस्ता से परे जाना होगा। हमें वचन को खुले दिल से समझना चाहिये जिससे वह जो हमें बनाना चाहता है वह भले ही हमारे आशाओं के विपरीत हो क्यों न हो हम समझ सके। यदि हम किसी विचार को लेकर जडवत बने रहते हैं ईश्वर वचन हमारे लिये नये द्वार नहीं खोल सकता क्योंकि हम अपने आप को ईश्वर की योजना अनुरूप बदलना ही नहीं चाहते हैं।

यहूदियों की भी यही दशा थी। उनके विचार में मसीह का आगमन एक भव्य एवं शानदार घटना होगी जिसे देखकर सभी भौंचके हो जायेगे तथा राजनैतिक सत्ता परिवर्तन करेंगे। वे अपने घमण्ड में इतने चूर थे कि वे यह भी नहीं जानते थे वे मसीह को ग्रहण करने के अयोग्य है। येसु उनकी स्थिति को बताते हुये कहते हैं, ’’तुम सुनते रहोगे, परन्तु नहीं समझोगे। तुम देखते रहोगे, परन्तु तुम्हें नहीं दिखेगा, क्योंकि इन लोगों की बुद्धि मारी गई है। ये कानों से सुनना नहीं चाहतेय इन्होंने अपनी आँख बंद कर ली हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये आँखों से देख ले, कानों से सुन लें, बुद्धि से समझ लें, मेरी ओर लौट आयें और मैं इन्हें भला चंगा कर दूँ। (मत्ती 13:14-15)

हमारे जीवन में भी हम बाइबिल पढते तथा उसका अर्थ अपने जीवन में ढुंढते है। हमें उन उपायों के बारे में सोचते है जो हमारी कल्पना के दायरे में है। किन्तु हमारी कल्पना के कहीं अधिर महान है तथा वे हमारे क्षणिक सुख के लिये नहीं वरन् स्थायी सुख और कल्याण के लिये योजना बनाता है। आइये हम भी ईशवचन को खुले और सरल हृदय से ग्रहण करे।



📚 REFLECTION



Although Jesus was the promised Saviour and Messiah God had sent yet he was rejected and killed by the very people who should have welcomed him. They rejected Jesus because they did not recognise Him when he came. They were perhaps looking for a political Messiah who would deliver them from Roman domination.

The reason they didn’t recognize Him is that they did not hear the voices of the prophets who spoke to them every Sabbath as God’s Word was read aloud (13:27). They heard the words but they did not understand it. As Jesus fittingly rebuked them, “You search the Scriptures because you think that in them you have eternal life; it is these that testify about Me; and you are unwilling to come to Me so that you may have life” (John 5:39-40).

Knowing the scripture and understanding it are two different things. By our human effort we can learn it but to understand we need God’s help as they are his own words. To receive this understanding one must be freed of his own pre-conception and pre-occupation. We need to be open to what the word of God could mean and relate to our life beyond our expectation. If we remain fixed on certain ideas then the unfolding of the word of would not take place. Jews were firm believers in the word of God but were also a closed people. Their ideas were fixed that Messiah would be a political and a macho man who would overthrow the Romans and installed the Jewish rule. His advent would be a spectacular event and so on and so forth. They could never imagine that they themselves were not fit to receive him. The fittingly summed up their plight, “You will keep on hearing, but will not understand; you will keep on seeing, but will not perceive; for the heart of this people has become dull, with their ears they scarcely hear, and they have closed their eyes, otherwise they would see with their eyes, hear with their ears, and understand with their heart and return, and I would heal them” (Matt. 13:14-15).

In our life’s too we read Bible and search of its meaning in our life. We look for solution that is suitable and imaginable to us but God is beyond our intellect and he looks for lasting good and welfare of us. Hence let us read and receive the word with an open and simple heart.

 -Br. Biniush Topno


Copyright © www.atpresentofficial.blogspot.com
Praise the Lord!

आज का पवित्र वचन गुरुवार - 29 अप्रैल 2021

 

गुरुवार - 29 अप्रैल 2021

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ : प्रेरित-चरित 13:13-25


13) पौलुस और उसके साथी नाव से चल कर पाफ़ोस से पम्फुलिया के पेरगे पहुँचे। वहाँ योहन उन्हें छोड़ कर येरुसालेम लौट गया।

14) पौलुस और बरनाबस पेरगे से आगे बढ़ कर पिसिदिया के अंताखिया पहुँचे। वे विश्राम के दिन सभागृह में जा कर बैठ गये।

15) संहिता तथा नबियों का पाठ समाप्त हो जाने पर सभागृह के अधिकारियों ने उन्हें यह कहला भेजा, ’’भाइयों! यदि आप प्रवचन के रूप में जनता से कुछ कहना चाहें, तो कहिए’’।

16) इस पर पौलुस खड़़ा हो गया और हाथ से उन्हें चुप रहने का संकेत कर बोलाः ’’इस्राएली भाइयो और ईश्वर-भक्त सज्जनो! सुनिए।

17) इस्राएली प्रजा के ईश्वर ने हमारे पूर्वजों को चुना, उन्हें मिस्र देश में प्रवास के समय महान बनाया और वह अपने बाहुबल से उन्हें वहाँ से निकाल लाया।

18) उसने चालीस बरस तक मरूभूमि में उनकी देखभाल की।

19) इसके बाद उसने कनान देश में सात राष्ट्रों को नष्ट किया और उनकी भूमि हमारे पूर्वजों के अधिकार में दे दी।

20) लगभग साढ़े चार सौ वर्ष बाद वह उनके लिए न्यायकर्ताओं को नियुक्त करने लगा और नबी समूएल के समय तक ऐसा करता रहा।

21) तब उन्होंने अपने लिए एक राजा की माँग की और ईश्वर ने उन्हें बेनयामीनवंशी कीस के पुत्र साऊल को प्रदान किया, जो चालीस वर्ष तक राज्य करता रहा

22) इसके बाद ईश्वर ने दाऊद को उनका राजा बनाया और उनके विषय में यह साक्ष्य दिया- मुझे अपने मन के अनुकूल एक मनुष्य, येस्से का पुत्र दाऊद मिल गया है। वह मेरी सभी इच्छाएँ पूरी करेगा।

23) ईश्वर ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्हीं दाऊद के वंश में इस्राएल के लिए एक मुक्तिदाता अर्थात् ईसा को उत्पन्न किया हैं।

24) उनके आगमन से पहले अग्रदूत योहन ने इस्राएल की सारी प्रजा को पश्चाताप के बपतिस्मा का उपदेश दिया था।

25) अपना जीवन-कार्य पूरा करते समय योहन ने कहा, ’तुम लोग मुझे जो समझते हो, मैं वह नहीं हूँ। किंतु देखो, मेरे बाद वह आने वाले हैं, जिनके चरणों के जूते खोलने योग्य भी मैं नहीं हूँ।’


सुसमाचार : योहन 13:16-20


16) मैं तुम से यह कहता हूँ- सेवक अपने स्वामी से बड़ा नहीं होता और न भेजा हुआ उस से, जिसने उसे भेजा।

17) यदि तुम ये बातें समझकर उनके अनुसार आचरण करोगे, तो धन्य होंगे।

18) मैं तुम सबों के विषय में यह नहीं कह रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि मैंने किन-किन लोगों को चुना है; परन्तु यह इसलिये हुआ कि धर्मग्रंथ का यह कथन पूरा हो जाये: जो मेरी रोटी खाता है, उसने मुझे लंगी मारी हैं।

19) अब मैं तुम्हें पहले ही यह बताता हूँ जिससे ऐसा हो जाने पर तुम विश्वास करो कि मैं वही हूँ।

20) मैं तुम से यह कहता हूँ- जो मेरे भेजे हुये का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह उसका स्वागत करता है जिसने मुझे भेजा।


📚 मनन-चिंतन


जब सभागृह के अधिकारी ने पौलुस को जनता से प्रवचन देने का अनुरोध किया तो उन्होंने इस्राएल के मुक्ति के इतिहास को दोहराया। ईश्वर ने इस प्रक्रिया की शुरूआत को इब्राहिम, इसहाक और याकूब को चुनकर आगे बढाया। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने ईश्वर को नहीं चुना था किन्तु ईश्वर ने उन्हें चुना था। फिर ईश्वर ने उन्हें मिस्र देश में फलने-फूलने दिया तथा बाद में वहां की गुलामी से मुक्त करा कर उन्हें एक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। ईश्वर ने सात देशों को नष्ट कर उनके लिये स्थान तैयार किया। उसने उनके लिये न्यायकर्ताओं, नबियों तथा राजा को नियुक्त किया। दाउद जो उनके इतिहास के सबसे गौरवशाली पुरूषों में से है, के वंश से एक मसीह की प्रतिज्ञा की। और अंत में योहन बपतिस्ता ने येसु मसीह के आगमन की घोषणा की।

ये घटनायें सारे इतिहास विशेषकरके मुक्ति के इतिहास पर ईश्वर के प्रभुत्व को बताती है। ईश्वर ने इस्राएल को चुना तथा स्थापित किया। इस कार्य का लक्ष्य तथा पराकाष्ठा प्रभु येसु है। ऐफिसियों के नाम पत्र में संत पौलुस लिखते हैं, ’’उसने अपनी मंगलमय इच्छा के अनुसार निश्चय किया था कि वह समय पूरा हो जाने पर स्वर्ग तथा पृथ्वी में जो कुछ है, वह सब मसीह के अधीन कर एकता में बाँध देगा। उसने अपने संकल्प का यह रहस्य हम पर प्रकट किया है।’’(ऐफेसिया 1:11) जो भी व्यक्ति येसु की सार्वभौमिकता एवं ईश्वत्व को नही मानता वह ईश्वर का नहीं हो सकता है। पुराने विधान का मुख्य उददेश्य भविष्य में आने वाले मसीह की प्रतिज्ञा तथा उन्हें चिन्हित करना था। मसीह नबियों की सभी भविष्यवाणियों का सच तथा अनुग्रह की परिपूर्णता है। ईश्वन ने अपनी चुनी प्रजा से मुक्तिदाता भेजने की प्रतिज्ञा की थी और वह प्रतिज्ञात मुक्तिदाता, दाउद के पुत्र, हमारे प्रभु ईसा मसीह है।



📚 REFLECTION



When Paul was invited by the synagogue president to speak a message of God, he chose to narrate the salvation history of Israel. God began the process by choosing Abraham, Isaac, and Jacob. It was not their choice of God, but God’s choice of them, that is significant. Then, God made them flourished in Egypt and set them free from the slavery, brought them out and established them as a nation. He destroyed seven nations to make a place for them. He provided them judges, prophets and the kings to rule over them. From David, one of the most distinguished personalities, he promised them a Messiah. It was John the Baptist who welcomed Jesus in most humble manner.

It shows God and His sovereignty over all of history, especially the history of salvation. it was God who took initiative in choosing and establishing Israel.

However,the goal and culmination of history is the Jesus Christ. God purposed to sum up all things in heaven and earth in Christ (Eph. 1:11). “All things have been created through Him and for Him. He is before all things, and in Him all things hold together. He is also head of the body, the church; and He is the beginning, the firstborn from the dead, so that He Himself will come to have first place in everything”.

Anyone denies the centrality and supremacy of Jesus Christ is not from God. All of the Old Testament was written to point forward to Jesus Christ. He is thefulfilment of prophecies and fulness of grace.God graciously promised His chosen people to send a Saviour, and that Jesus, the son of David, is that promised Saviour.

 -Br. Biniush Topno


Copyright © www.atpresentofficial.blogspot.com
Praise the Lord!

आज का पवित्र वचन बुधवार - 28 अप्रैल 2021

 

बुधवार - 28 अप्रैल 2021

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ : प्रेरित-चरित 12:24-13:5


12:24) ईश्वर का वचन बढ़ता और फैलता गया।

25) बनाराबस और साऊल अपना सेवा-कार्य पूरा कर येरुसालेम से लौटे और अपने साथ योहन को ले आये, जो मारकुस कहलाता था।

13:1) अंताखिया की कलीसिया में कई नबी और शिक्षक थे- जैसे बरनाबस, सिमेयोन, जो नीगेर कहलाता था, लुकियुस कुरेनी, राजा हेरोद का दूध-भाई मनाहेन और साऊल।

2) वे किसी दिन उपवास करते हुए प्रभु की उपासना कर ही रहे थे कि पवित्र आत्मा ने कहा, ’’मैंने बरनाबस तथा साऊल को एक विशेष कार्य के लिए निर्दिष्ट किया हैं। उन्हें मेरे लिए अलग कर दो।’’

3) इसलिए उपवास तथा प्रार्थना समाप्त करने के बाद उन्होंने बरनाबस तथा साऊल पर हाथ रखे और उन्हें जाने की अनुमति दे देी।

4) पवित्र आत्मा द्वारा भेजे हुए बरनाबस और साऊल सिलूकिया गये और वहाँ से वे नाव पर क्रुप्रुस चले।

5) सलमिस पहुँच कर वे यहूदियों के सभागृहों में ईश्वर के वचन का प्रचार करते रहे। योहन भी उनके साथ रह कर उनकी सहयता करता था।



सुसमाचार : योहन 12:44-50



45) और जो मुझे देखता है, वह उस को देखता है जिसने मुझे भेजा।

46) मैं ज्योति बन कर संसार में आया हूँ, जिससे जो मुझ में विश्वास करता हैं वह अन्धकार में नहीं रहे।

47) यदि कोई मेरी शिक्षा सुनकर उस पर नहीं चलता, तो मैं उसे दोषी नही ठहराता हूँ क्योंकि मैं संसार को दोषी ठहराने नहीं, संसार का उद्वार करने आया हूँ।

48) जो मेरा तिरस्कार करता और मेरी शिक्षा ग्रहण करने से इंकार करता है, वह अवश्य ही दोषी ठहराया जायेगा। जो शिक्षा मैंने दी है, वही उसे अंतिम दिन दोषी ठहरा देगी।

49) मैनें अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। पिता ने जिसने मुझे भेजा, आदेश दिया है कि मुझे क्या कहना और कैसे बोलना है।

50) मैं जानता हूँ कि उसका आदेश अनंत जीवन है। इसलिये मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे वैसे ही कहता हूँ जैसे पिता ने मुझ से कहा है।


📚 मनन-चिंतन


आज का पहला पाठ कलीसिया के नेताओं के पवित्र और धर्मपरायण चरित्र के बारे में प्रकाश डालता है। हम पाते हैं वे सभी पवित्र, आज्ञाकारी तथा प्रार्थनामय नेता थे। उनका चरित्र धार्मिक था। प्रार्थना के दौरान ईश्वर हम से व्यक्तिगत रूप से बातें करते तथा उनकी योजना एवं उददेश्यों को हम पर प्रकट करते हैं। प्रार्थना तथा उपवास एक धार्मिक व्यक्ति की मूलभूत दिनचर्या होती है। यह मनुष्य की ईश्वर के प्रति गहरायी को प्रकट करता है। प्रभु येसु ने स्वयं अनेक बार प्रार्थना करने की जरूरत पर जोर डाला तथा अनेक बार वे स्वयं भी प्रार्थना में लीन पाये गये। येसु ने उनके जीवन की मुख्य घटनाओं के पहले अत्यंत त्रीवता के साथ प्रार्थना की।

जब साउल और बरनाबस अन्यों के साथ मिलकर प्रार्थना तथा उपवास रखकर ईश्वर की उपासना कर रहे थे तो पवित्र आत्मा ने उन्हें यह कहकर निर्देशित किया, ’’मैंने बरनाबस और साउल को एक विशेष कार्य के लिये निर्दिष्ट किया है। उन्हें मेरे लिये अलग कर दो।’’ उन नेताओं की विशिष्ट योजना नहीं थी किन्तु इस प्रकार उन्होंने जाना कि ईश्वर की उनके लिये एक योजना है। उस योजना के तहत उन्होंने स्वेच्छा तथा शीघ्रता से ईश्वर के निर्देश का पालन किया। उनकी यह शीघ्रता तथा स्वेच्छा उनके धार्मिक चरित्र का चिन्ह है।

बरनाबस और साउल तत्कालीन कलीसिया के दो सबसे प्रमुख व्यक्तियों में थे तथा ईश्वर ने उन्हंछ मिशनरी यात्रा में भेजा। उनके इस प्रकार अचानक चले जाने से वहां की स्थानीय कलीसिया को गहरा दुख और खालीपन महसूस हुआ होगा लेकिन उन्होंने बिना किसी हिचक और विरोध के, आत्मा के निर्देशों का पालन किया तथा अपने इन दोनों महान हस्तियों को अंताखिया से बाहर जाने दिया। पवित्र आत्मा के प्रति आज्ञापालन बनने के लिये हमें ईश्वर की आराधना करने के लिये समय निकालना चाहिये तथा उनका निर्देशन ढूंढना चाहिये।




📚 REFLECTION



Today’s first reading tells us about the godly characteristics of the leaders of the churches. It tells that all of them were very pious, obedient and praying leaders. They had a godly character. It is while praying that God speaks to us more personally and reveals his plans and purposes to and for us. Prayer and fasting are basic habits of a godly persons. They reveal the depth a person has with God. Lord Jesus several times mentioned the needs for prayers and he himself was found praying many times. He prayed intensely before all the major events of his life.

While Saul and Barnabas along with others were worshiping the Lord in prayer and fasting,the Holy Spirit speaks to them and directs them about Saul and Barnabas. “Set apart for me Barnabas and Saul for the work to which I have called them.” While they apparently had no specific plan for themselves but God had for them. They experienced God’s will and willingly and promptly responded to it. It yet again points out godliness of the them as they were so willing and prompt to obey the Lord’s commands.

Barnabas and Saul were two of the most important men in that church, and God sent them out on this missionary journey. Their sudden going must have given a deep sense of loss to the church there but without a word of protest, the church obeyed the Spirit’s directive and released these gifted men for ministry outside of Antioch.To be obedient to the Holy Spirit, wemust take time to worship God and seek His direction.

 -Br. Biniush Topno


Copyright © www.atpresentofficial.blogspot.com
Praise the Lord!

आज का पवित्र वचनमंगलवार- 27 अप्रैल 2021

 

मंगलवार- 27 अप्रैल 2021

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ :प्रेरित-चरित 11:19-26

19) स्तेफ़नुस को ले कर येरुसालेम में अत्याचार प्रारंभ हुआ था। जो लोग इसके कारण बिखर गये थे, वे फेनिसिया, कुप्रस तथा अंताखिया तक पहुँच गये। वे यहूदियों के अतिरिक्त किसी को सुसमाचार नहीं सुनाते थे।

20) किंतु उन में से कुछ कुप्रुस तथा कुराने के निवासी थे और वे अंताखिया पहुँच कर यूनानियों को भी प्रभु ईसा का सुसमाचार सुनाते थे।

21) प्रभु उनकी सहायता करता था। बहुत से लोग विश्वासी बन कर प्रभु की ओर अभिमुख हो गये।

22) येरुसालेम की कलीसिया ने उन बातों की चर्चा सुनी और उसने बरनाबस को अंताखिया भेजा।

23) जब बरनाबस ने वहाँ पहुँच कर ईश्वरीय अनुग्रह का प्रभाव देखा, तो वह आनन्दित हो उठा। उसने सबों से अनुरोध किया कि वे सारे हृदय से प्रभु के प्रति ईमानदार बने रहें

24) क्योंकि वह भला मनुष्य था और पवित्र आत्मा तथा विश्वास से परिपूर्ण था। इस प्रकार बहुत-से लोग प्रभु के शिष्यों मे सम्मिलित हो गये।

25) इसके बाद बरनाबस साऊल की खोज में तरसुस चला गया

26) और उसका पता लगा कर उसे अंतखिया ले आया। दोनों एक पूरे वर्ष तक वहाँ की कलीसिया के यहाँ रह कर बहत-से लोगों को शिक्षा देते रहे। अंताखिया में शिष्यों को पहेले पहल ’मसीही’ नाम मिला।


सुसमाचार : योहन 10: 22-30.


22) उन दिनों येरुसालेम में प्रतिष्ठान पर्व मनाया जा रहा था। जाडे का समय था।

23) ईसा मंदिर में सुलेमान के मण्डप में टहल रहे थे।

24) यहूदियों ने उन्हें घेर लिया और कहा आप हमें कब तक असमंजस में रखे रहेंगे? यदि आप मसीह हैं, तो हमें स्पष्ट शब्दों में बता दीजिये।

25) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, मैंने तुम लोगों को बताया और तुम विश्वास नहीं करते। जो कार्य मैं अपने पिता के नाम पर करता हूँ, वे ही मेरे विषय में साक्ष्य देते हैं।

26) किंतु तुम विश्वास नहीं करते, क्योंकि तुम मेरी भेडें नहीं हो।

27) मेरी भेडें मेरी आवाज पहचानती है। मै उन्हें जानता हँ और वे मेरा अनुसरण करती हैं।

28) मै उन्हें अनंत जीवन प्रदान करता हूँँ। उनका कभी सर्वनाश नहीं होगा और उन्हें मुझ से कोई नहीं छीन सकेगा।

29) उन्हें मेरे पिता ने मुझे दिया है वह सब से महान है। उन्हें पिता से केाई नहीं छीन सकता।

30) मैं और पिता एक हैं।


📚 मनन-चिंतन


स्तेफनुस की शहादत के बाद, येरूसालेम की कलीसिया पर भारी अत्याचार शुरू हुआ जिसके परिणामस्वरूप विश्वासीगण आसपास के विभिन्न इलाकों में बिखर गये थे। अंताखिया ऐसा प्रमुख नगर था जिसमें बडी संख्या में विश्वासियों ने शरण पायी थी। यहॉ पर कलीसिया ने बडी उन्नति की तथा उनके विस्तार में कई महत्वपूर्ण बातें देखने को मिली।

एक छोटे से समूह के शरार्णाथियों से ख्राीस्तीयों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से बडी हो गयी। अनेक लोगों ने विश्वास ग्रहण किया। कलीसिया के विकास का कारण यह नहीं था कि वहां के नेताओं ने उसके विस्तार के लिये कोई बडी-बडी और गूढ योजनायें बनाई थी या लोगों को आकर्षित करने के लिये कुछ किया था बल्कि इसका मुख्य कारण जो वचन बताता है वह यह है कि, ’’ईश्वर उनकी सहायता करता था।’’ यह वह कलीसिया थी जिस पर ईश्वर का अनुग्रह था। अंताखिया की कलीसिया की स्थापना किसी प्रेरित या प्रमुख व्यक्ति द्वारा नहीं की गयी थी। इसकी आधार शिला अज्ञात-अंजानक किन्तु विश्वास में महान साधारण लोगों द्वारा रखी गयी जो वहां के स्थानीय लोगों के साथ येसु का सुसमाचार बांटते थे।

अंताखिया की कलीसिया की एक और प्रमुख और ऐतिहासिक बात यह थी कि यहां पर सबसे पहले ख्राीस्तीयों को मसीही कह कर बुलाया गया। इस नाम के पुकारे जाने के पूर्व तक वे यहूदी धर्म का हिस्सा माने जाते थे किन्तु अब उन्हें एक नयी पहचान मिल गयी थी।

अंताखिया की कलीसिया के विकास की घटना हमें सिखाती है कि ईश्वर का अनुग्रह किसी व्यक्ति विशेष या परिस्थिति या अन्य बात पर निर्भर नहीं करता। वह हर विषम परिस्थिति में हमें आशीष दे सकता है तथा उसे कोई रोक भी नहीं सकता।



📚 REFLECTION



After the martyrdom of Stephen, a great persecution arose in Jerusalem which resulted in scattering of the believers into different places. Antioch was one of those places which received many believers. We find great church growthas well unique features involved in the expansion there.

From a small group of persecuted refugees, the church in Antioch saw large numbers of people accepted the faith in Christ. The reason this church experienced such remarkable growth was not that the leaders employed some great strategies or tactics to attract or allure the people to the faith. They didn’t study the pros and cons, or calculate arithmetic gains. Rather, the reason for the growth was simple: “The hand of the Lord was with them” (11:21). This was a church that God was blessing.

The Church at Antioch hadnot been founded by any the prominent figures of the Church. It was mostly founded by the unknown, common believers sharing the word of God and good news of Jesus with the local residents of the city.

It was at Antioch that for the first time the believers received an identity as Christians. It was here that for the first time the disciples were first called “Christians.” Until now they had been considered part of the Jewish religion or dissatisfied groups of people. But now they had a name to be called by.

The growth story of the Church at Antioch tells us that if God wants to bless us, he does not depend up on any powerful or influential personality or conducive circumstances. He blesses against all odds, through simple people and ordinary means. And his mighty blessings knows no bounds.


 -Br. Biniush Topno


Copyright © www.atpresentofficial.blogspot.com
Praise the Lord!

आज का पवित्र वचन सोमवार- 26 अप्रैल 2021

 

सोमवार- 26 अप्रैल 2021

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ :प्रेरित-चरित 11:1-8


1) प्रेरितों तथा यहूदिया के भाइयों को यह पता चला कि गै़र-यदूदियों ने भी ईश्वर का वचन स्वीकार किया हैं।

2) जब पेत्रुस येरुसालेम पहुँचा, तो यहूदी विश्वासियों ने उसकी आलोचना करते हुए कहा,

3) "आपने गैर-यहूदियों के घर में प्रवेश किया और उनके साथ भोजन किया"।

4) इस पर पेत्रुस ने क्रम से सारी बातें समझाते हुए कहा,

5) "मैं योप्पे नगर में प्रार्थना करते समय आत्मा से आविष्ट हो गया। मैंने देखा कि लंबी-चैड़ी चादर-जैसी कोई चीज़ स्वर्ग से उतर रही है और उनके चारों कोने मेरे पास पृथ्वी पर रखे जा रहे हैं।

6) मैने उस पर दृष्टि गड़ा कर देखा कि उस में पृथ्वी के चैपाले, जंगली जानवर, रेंगने वाले जीव-जंतु और आकाश के पक्षी हैं।

7) मुझे एक वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी ’पेत्रुस! उठो, मारो और खाओ।

8) मैंने कहा, ’प्रभु! कभी नहीं! मेरे मुँह में कभी कोई अपवित्र अथवा अशुद्ध वस्तु नहीं पड़ी।’


सुसमाचार : योहन 10:1-10


1) "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- जो फाटक से भेड़शाला में प्रवेश नहीं करता, बल्कि दूसरे रास्ते से चढ़ कर आता है, वह चोर और डाकू है।

2) जो फाटक से प्रवेश करता है, वही भेड़ों का गड़ेरिया है

3) और उसके लिए दरवान फाटक खोल देता है। भेड़ें उसकी आवाज पहचानती हैं। वह नाम ले-ले कर अपनी भेड़ों को बुलाता और बाहर ले जाता है।

4) अपनी भेड़ों को बाहर निकाल लेने के बाद वह उनके आगे-आगे चलता है और वे उसके पीछे-पीछे आती हैं, क्योंकि वे उसकी आवाज पहचानती हैं।

5) वे अपरिचित के पीछे-पीछे नहीं चलेंगी, बल्कि उस से भाग जायेंगी; क्योंकि वे अपरिचितों की आवाज नहीं पहचानतीं।"

6) ईसा ने उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया, किन्तु वे नहीं समझे कि वे उन से क्या कह रहे हैं।

7) ईसा ने फिर उन से कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- भेड़शाला का द्वार मैं हूँ।

8) जो मुझ से पहले आये, वे सब चोर और डाकू हैं; किन्तु भेड़ों ने उनकी नहीं सुनी।

9) मैं ही द्वार हूँ। यदि कोई मुझ से हो कर प्रवेश करेगा, तो उसे मुक्ति प्राप्त होगी। वह भीतर-बाहर आया-जाया करेगा और उसे चरागाह मिलेगा।

10) "चोर केवल चुराने, मारने और नष्ट करने आता है। मैं इसलिए आया हूँ कि वे जीवन प्राप्त करें- बल्कि परिपूर्ण जीवन प्राप्त करें।


📚 मनन-चिंतन


पेत्रस एक परंपरावादी तथा रूढीवादी यहूदी था। वह भी यहूदी विश्वास और परंपरा की द्रष्टिसे गैर-यहूदियों की मुक्ति को देखता था। हालांकि पेंतेकोस्त के दिन पवित्र आत्मा से पूर्ण होकर वह प्रचार तथा चमत्कार दिखा कर मिशन के विस्तार में महान कार्य कर रहा था किन्तु वह गैर-यहूदियों के प्रति अपनी पैदायशी यहूदी पूर्वाग्रहों से अभी भी ग्रसित था। गैर-यहूदियों की मुक्ति का प्रश्न उसके मिशन कार्यों में एक ज्वलंत प्रश्न था। अपनी परम्परागत तथा रूढिवादी पालन-पोषण के कारण वह अपनी सोच को उनके प्रति उदार और व्यापक नहीं बना पा रहा था।

जब पेत्रुस एक दिन प्रार्थना कर रहा था तब प्रभु ने उसके जीवन तथा सोच को मूल-भूत रूप से बदलने वाले दिव्य दर्शन दिये। यदि पेत्रुस ने अपने प्रार्थना के समय का पाबंदी के साथ पालन नहीं किया होता तो शायद वह ईश्वर के इस दिव्य दर्शन को ग्रहण नहीं कर पाता। हम प्रार्थना में ईश्वर के साथ अपना समय बिताते तथा उन्हें सुनते हैं। यदि हम उनके साथ प्रार्थना में समय नहीं बिताये तो ईश्वर हमारी सोचसमझ को शायद ही बदले। इसलिये हमारे संघर्षों एवं संदेह में ही हमें सदैव प्रार्थना करते रहना चाहिये।

ईश्वर हमें असुविधाजनक परिस्थितियों के अनुभवों के द्वारा झकझोरते तथा हमें बदलाव की ओर ले जाते हैं। ईश्वर अपने दर्शन के द्वारा पेत्रुस के जीवन में हस्तक्षेप करते तथा उन्हें अपने विचारों तथा योजना से अवगत कराते हैं। ईश्वर का यह प्रकटीकरण पेत्रुस को हिला देता है जैसा कि उसके आरंभिक प्रतिक्रियाओं से पता चलता है, जब वह कहता है, ’प्रभु कभी नहीं’। ईश्वर ने पेत्रुस के परंपरावादी सोच को झाकझोर दिया था। कई बार ईश्वर को हमें बदलने के लिये झकझोरना तथा झटका देना पडता है। यदि हम आरामदायक स्थिति में रहते हैं तो हमें बदलने की आवश्यकता नहीं पडती किन्तु यदि हम अचानक नयी और विकट परिस्थिति में पड जाते हैं तो पाते हैं कि हमारे पुराने तौर-तरीके नयी परिस्थितियों में कारगर सिद्ध नहीं होगें। पेत्रुस के जीवन की इस घटना से हमें सिखना चाहिये कि हमें हर परिस्थिति में ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिये तथा उनके बताये मार्गों पर चलना चाहिये।



📚 REFLECTION


Peter was a traditional and a staunch Jew. He too looked at the salvation of the non-Jews through the prism of Jewish traditions and belief system. Although at the Pentecost he was filled with Holy Spirit and was moving about doing an extensive ministry of preaching and healing. Yet he was not freed from the prejudices that were inbuilt in him. The question about the salvation of the gentiles must have been a burning issue in his ministry. however knowing his traditional upbringing, it was hard for him to think broadly and inclusively.

It was while Peter was praying that the Lord gave him this life-changing vision. If Peter had skipped his prayer time, he might have missed what God wanted to do through him. It is in prayer we spent our time with God and listen to him. God will not change your thinking if you rarely spend time alone with Him.

Secondly God changes us by shaking and shocking us through uncomfortable circumstances. God through the vision intervened in Peter’s life with his ideas and His agenda! And God’s revelation and agenda shocked Peter, as seen by his surprised reply, “By no means, Lord!” It was Lord who had shaken Peter’s traditional mindset.

The Lord often has to shock and shake us to get us to change. If we’re comfortable, we don’t feel any need to change. But if we’re suddenly hit with a new situation that’s outside our comfort zone, we realize that our old ways of thinking will not work anymore. We have to listen to the Lord and trust Him to do something we can’t do in our own strength.


 - Br. Biniush Topno


Copyright © www.atpresentofficial.blogspot.com
Praise the Lord!

आज का पवित्र वचन पास्का का चौथा इतवार- 25 अप्रैल 2021 बुलाहट इतवार

 

पास्का का चौथा इतवार- 25 अप्रैल 2021
बुलाहट इतवार

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ :प्रेरित-चरित 4:8-12

8) पेत्रुस ने पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर उन से कहा, "जनता के शासकों और नेताओ"!

9) हमने एक लँगड़े मनुष्य का उपकार किया है और आज हम से पूछताछ की जा रही है कि यह किस तरह भला-चंगा हो गया है।

10) आप लोग और इस्राइल की सारी प्रजा यह जान ले कि ईसा मसीह नाज़री के नाम के सामर्थ्य से यह मनुष्य भला-चंगा हो कर आप लोगों के सामने खड़ा है। आप लोगों ने उन्हें क्रूस पर चढ़ा दिया, किन्तु ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से पुनर्जीवित किया।

11) वह वही पत्थर है, जिसे आप, कारीगरों ने निकाल दिया था और जो कोने का पत्थर बन गया है।

12) किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मुक्ति नहीं मिल सकती; क्योंकि समस्त संसार में ईसा नाम के सिवा मनुष्यों को कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया है, जिसके द्वारा हमें मुक्ति मिल सकती है।"

<

दूसरा पाठ :1 योहन 3:1-2


1) पिता ने हमें कितना प्यार किया है! हम ईश्वर की सन्तान कहलाते हैं और हम वास्तव में वही हैं। संसार हमें नहीं पहचानता, क्योंकि उसने ईश्वर को नहीं पहचाना है।

2) प्यारे भाइयो! अब हम ईश्वर की सन्तान हैं, किन्तु यह अभी तक प्रकट नहीं हुआ है कि हम क्या बनेंगे। हम इतना ही जानते हैं कि जब ईश्वर का पुत्र प्रकट होगा, तो हम उसके सदृश बन जायेंगे; क्योंकि हम उसे वैसा ही देखेंगे, जैसा कि वह वास्तव में है।


सुसमाचार : योहन 10:11-18


11) "भला गड़ेरिया मैं हूँ। भला गड़ेरिया अपनी भेड़ों के लिए अपने प्राण दे देता है।

12) मज़दूर, जो न गड़ेरिया है और न भेड़ों का मालिक, भेडि़ये को आते देख भेड़ों को छोड़ कर भाग जाता है और भेडि़या उन्हें लूट ले जाता है और तितर-बितर कर देता है।

13) मज़दूर भाग जाता है, क्योंकि वह तो मजदूर है और उसे भेड़ों की कोई चिन्ता नहीं।

14) "भला गडेरिया मैं हूँ। जिस तरह पिता मुझे जानता है और मैं पिता को जानता हूँ, उसी तरह मैं अपनी भेड़ों को जानता हूँ और मेरी भेड़ें मुझे जानती हैं।

15) मैं भेड़ों के लिए अपना जीवन अर्पित करता हूँ।

16) मैरी और भी भेड़ें हैं, जो इस भेड़शाला की नहीं हैं। मुझे उन्हें भी ले आना है। वे भी मेरी आवाज सुनेंगी। तब एक ही झुण्ड होगा और एक ही गड़ेरिया।

17) पिता मुझे इसलिए प्यार करता है कि मैं अपना जीवन अर्पित करता हूँ; बाद में मैं उसे फिर ग्रहण करूँगा।

18) कोई मुझ से मेरा जीवन नहीं हर सकता; मैं स्वयं उसे अर्पित करता हूँ। मुझे अपना जीवन अर्पित करने और उसे फिर ग्रहण करने का अधिकार है। मुझे अपने पिता की ओर से यह आदेश मिला है।"


📚 मनन-चिंतन


पुराने विधान में ईश्वर को चरवाहे के रूप में प्रस्तुत किया गया है। चरवाहे के गुणों के द्वारा ईश्वर यह बताते हैं कि वे हमारा कितना प्रेम करते हैं। चरवाहा अपनी भेडों को सुरक्षित तथा हरे-भरे स्थानों पर ले जाता है। चरवाहे का मुख्य कार्य अपनी झुण्ड की रक्षा करना होता है। चरवाहे दो प्रकार के होते है। पहले जो दूसरों की झुण्ड की देखभाल का कार्य पैसे के लिये करते हैं तथा दूसरा जो स्वयं झुण्ड के स्वामी तथा चरवाहे दोनों होते हैं। जो चरवाहे पैसों के लिये झुण्ड की देखभाल करते हैं वे विपत्ति या संकट में झुण्ड को छोडकर भाग जाते थे। किन्तु झुण्ड का स्वामी यदि चरवाहा होता था तो वह झुण्ड को बचाने की खातिर जंगली जानवरों से भी भिड जाता था।

दाउद जब चरवाहे का कार्य किया करते थे तो वह अपनी झुण्ड की रक्षा के लिये जंगली जानवरों तक से भिड जाते थे। वे बताते हैं, ’’आपका यह दास जब अपने पिता की भेड़ें चराता था और कोई सिंह या भालू आ कर झुण्ड से कोई भेड़ पकड़ ले जाता, तो मैं उसके पीछे जा कर उसे मारता और उसके मुँह से उसे छीन लेता था और यदि वह मेरा सामना करता, तो मैं उसकी अयाल पकड़ कर उस पर प्रहार करता और उसे मार डालता था। आपके दास ने तो सिंहों और भालूओं को मारा है।’’ (1 समूएल 17:34-36) जब दाउद राजा बने तो उन में भी चरवाहे के अनेक गुण देखने को मिले।

येसु स्वयं को भला चरवाहा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं, ’’भला गड़ेरिया मैं हूँ। भला गड़ेरिया अपनी भेड़ों के लिए अपने प्राण दे देता है। मज़दूर, जो न गड़ेरिया है और न भेड़ों का मालिक, भेड़िये को आते देख भेड़ों को छोड़ कर भाग जाता है और भेड़िया उन्हें लूट ले जाता है और तितर-बितर कर देता है। मज़दूर भाग जाता है, क्योंकि वह तो मजदूर है और उसे भेड़ों की कोई चिन्ता नहीं। भला गडेरिया मैं हूँ।’’ (योहन 10:11-14) येसु अपनी रेवड जोकि हम है को बचाने की खातिर अपने प्राण तक त्याग देते हैं। येसु के प्राण त्यागने से अभिप्राय कू्रस पर अपने प्राण न्यौछावर करने से था।

येसु के प्राण त्यागने का उददेश्य पिता की इच्छा पूरी करना था। येसु की कू्रस पर मृत्यु के द्वारा पिता ने मानवजाति को यह बताया कि वे उन्हें कितना प्रेम करते हैं, ’’ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिये अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उसमें विश्वास करता है उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे।’’ (योहन 3:16) येसु ने प्रेम की पराकाष्ठा को बताते हुये कहा, ’’इससे बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे।’’ (योहन 15:13) इस प्रकार येसु ने अपने प्रेम का अपूर्व उदाहरण अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। अपने इस प्रेम से येसु ने पिता को महिमा प्रदान की। उन्होंने अपनी मृत्यु को पिता की इच्छा मानकर स्वीकार किया। जिससे पिता उन्हें पुनर्जीवित कर सकें। येसु की मृत्यु का फल पुनरूत्थान था।

आदम और हेवा ने अवज्ञा करके पाप किया। उन्होंने शैतान के सामने स्वयं को कमजोर तथा असहाय साबित किया। किन्तु येसु ने शैतान के प्रलोभन को नकार कर, जो उन्हें क्रूस को नकारने का था, शैतान के सभी प्रलोभनों पर विजय पाकर हमारे लिये मुक्ति का द्वार खोल दिया है। इस प्रकार येसु के नाम में विश्वास के द्वारा हमें पापों से मुक्ति प्राप्त होती है। येसु में विश्वास के द्वारा हम सारे प्रलोभनों पर विजयी प्राप्त होते हैं। आज के पहले पाठ में संत पेत्रुस एक लॅगडे को प्राप्त चंगाई के बारे में गवाही देते हुये कहते हैं, ’’आप लोग और इस्राएल की सारी प्रजा यह जान ले कि ईसा मसीह नाज़री के नाम के सामर्थ्य से यह मनुष्य भला-चंगा हो कर आप लोगों के सामने खड़ा है। ..... किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मुक्ति नहीं मिल सकती; क्योंकि समस्त संसार में ईसा नाम के सिवा मनुष्यों को कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया है, जिसके द्वारा हमें मुक्ति मिल सकती है।’’

ईसा के नाम पर प्रेरित अनेक चमत्कारों को करते तथा स्वर्गराज्य का सुसमाचार देते थे। उनके नाम पर विश्वास के कारण अनेकों ने चंगाई तथा नवजीवन प्राप्त किया। प्रेरितों ने येसु के नाम की शिक्षा का अपने जीवन में भी अनुपालन किया। उन्होंने अपने जीवन में अनेक कष्टों तथा अत्याचारों का सामना किया तथा अधिकांश ने तो शहादत ग्रहण की। जब हम अपने जीवन में वास्तविक रूप से येसु को चरवाहा मानते तथा व्यवहारिक जीवन में जीते हो तो हमारा जीवन भी बदल जाता है। हम येसु के नाम की शक्ति और सामर्थ्य का अनुभव करते हैं। हम से अधिकांश विश्वासी येसु के नाम तथा उनकी शिक्षाओं को स्वीकारते तो है किन्तु दैनिक जीवन में उन्हें लागू नहीं कर पाते हैं। जब-जब प्रलोभन आता है हम येसु को भूल कर प्रलोभन में पड जाते हैं। प्रलोभन में गिर कर हम अपने स्वार्थ की बातों में लग जाते हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जब किराये के चरवाहें रेवडों को छोडकर अपनी जान बचाने के लिये भाग जाते थे। हमें भागना नहीं बल्कि येसु के नाम से उन सारी बुराईयों, कमजोरियों तथा प्रलोभनों का सामना करना हैं।


📚 REFLECTION



In the old Testament God is projected as a Good Shepherd. Through the characteristics of Good Shepherd God shows us his love towards us. shepherd takes his sheep to safer and a greener pastures. The primary duty of a shepherd is to protect its fold. There are two types of shepherds; the hired shepherds and those who owned the sheep and shepherd them. The hired shepherds used to dessert the sheep whenever a danger arose. However, the owner of the sheepfold cum shepherd used to fight the wild animals and ward off the dangers.

When David was the shepherd of his flock, he used to protect them even at the risk of his own life. He says, “But David said to Saul, ‘Your servant used to keep sheep for his father; and whenever a lion or a bear came, and took a lamb from the flock, I went after it and struck it down, rescuing the lamb from its mouth; and if it turned against me, I would catch it by the jaw, strike it down, and kill it. Your servant has killed both lions and bears; and this uncircumcised Philistine shall be like one of them, since he has defied the armies of the living God.’ (1 Samuel 17:34-36) When he became the king he visibly displayed the qualities of the shepherd.

Jesus presents himself as the good shepherd. He says, “I am the good shepherd. The good shepherd lays down his life for the sheep. 12The hired hand, who is not the shepherd and does not own the sheep, sees the wolf coming and leaves the sheep and runs away—and the wolf snatches them and scatters them. 13The hired hand runs away because a hired hand does not care for the sheep. 14I am the good shepherd. I know my own and my own know me.” (John 10:11-14) Jesus for the safety and security of his sheepfold was ready even to give up his own life. Lord’s sacrifice on the cross was exactly an offering for the redemption of the humanity.

Jesus’ purpose to offer himself as a sacrifice was in obedience to God’s will. Father manifested his love for the humanity by letting his own son die on the cross, “For God so loved the world that he gave his only Son, so that everyone who believes in him may not perish but may have eternal life.” (John 3:16) Jesus defined love saying, “No one has greater love than this, to lay down one’s life for one’s friends.” (John 15:13) Jesus by giving up his life redefined love and set an example before us all. Jesus by his love glorified the Father. He accepted death as the will of the father so that Father raised him up on the third day.

Adam and Eve disobeyed God and sinned. In the wake of the temptation and before devil they proved themselves weak and vulnerable. But Jesus rejected the temptation of denying the Cross and thereby snubbed the devil. By overcoming all the temptations, he proved victorious and opened the door of salvation for all. Therefore, all those who believe in the name of Jesus all become partakers in his salvific work. By believing in his name we can overcome all temptations. In today’s first reading gives testimony of the healed man, “Rulers of the people and elders,….let it be known to all of you, and to all the people of Israel, that this man is standing before you in good health by the name of Jesus Christ of Nazareth, whom you crucified, whom God raised from the dead. ….There is salvation in no one else, for there is no other name under heaven given among mortals by which we must be saved.”

In the name of Jesus apostles were preaching the kingdom of God and performing many miracles. Those who believed in him name found a new meaning and purpose in their life and many of them received healing. Apostles lived a radical life by following the teachings of Jesus. Most of them endured suffering and even martyrdom in many cases. When we in our life live the teaching of Jesus then our life also changes. We would also experience the power of the name of Jesus. Most of us today believe in the name of Jesus yet are far away from translating the teaching into action. Whenever we are faced with temptations we feel entrapped because Jesus seems to be a remote reality. By falling into temptations we become selfish and get lost into the petty affairs of life. This is what the hired shepherds do. Whenever the difficult arise they abandon the flock. We do not need to run away or abandon the name of Jesus but rather stay strong and fight the situation with brevity.



मनन-चिंतन-2


गडेरिया भेडों को चराने ले जाता है। वह भेडों को न सिर्फ अच्छे चारागाहों में ले जाता है बल्कि उनकी जंगली जानवरों तथा हर प्रकार के खतरे से रक्षा भी करता है। यदि कोई जानवर उन पर हमला करता है तो वह उस खतरे से स्वयं निपटता है। कभी-कभी इन झुण्डों को चराने की जिम्मेदारी मजदूरों को भी दी जाती थी। खतरे की स्थिति में ये मजदूर भेडों को अकेला छोडकर भाग जाते थे। मजदूर को केवल अपनी मजदूरी से मतलब होता था। वह अपनी जान पर खेलकर भेडों की देखभाल नहीं कर सकता। प्रभु येसु ऐसे मजदूरों की तुलना इस्राएल के धार्मिक नेताओं जिन पर ईश्वर की प्रजा की देखरेख की जिम्मेदारी थी, से करते हैं जो लोगों की चिंता नहीं करते थे। वे अपने ही स्वार्थ एवं आडम्बर की बातों में लगे रहते थे।

नबी एजेकिएल ने भी तत्कालीन इस्राएली नेतृत्व की स्वार्थी एवं शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठायी थी तथा उनके पतन की चेतावनी दी थी। वे कहते हैं, “वे बिखर गयी, ....और वे बनैले पशुओं का शिकार बन गयीं। मेरी भेड़ें सब पर्वतों और ऊँची पहाडियों पर भटकती फिरती हैं वे समस्त देश में बिखर गयी हैं, और उनकी परवाह कोई नहीं करता, उनकी खोज में कोई नहीं निकलता। “इसलिए चरवाहो! प्रभु की वाणी सुनो। प्रभु-ईश्वर यह कहता है -अपने अस्तित्व की शपथ! मेरी भेड़ें, चराने वालों के अभाव में, बनैले पशुओं का शिकार और भक्ष्य बन गयी हैं, मेरे चरवाहों ने भेडो की परवाह नहीं की - उन्होंने भेडों की नहीं, बल्कि अपनी देखभाल की है इसलिए चरवाहो! प्रभु की वाणी सुनो। प्रभु यह कहता हैं, मैं उन चरवाहों का विरोधी बन गया हूँ। मैं उन से अपनी भेड़ें वापस माँगूंगा। मैं उनकी चरवाही बन्द करूँगा। वे फिर अपनी ही देखभाल नहीं कर पायेंगे।’’ (एजेकिएल 34:5-10)

प्रभु येसु अपने समय के शोषणकारी धार्मिक नेताओं, फरीसियों एवं शास्त्रियों, को उनकी अकर्मण्यता एवं कर्तव्य निष्ठा में विफलता के लिए धिक्कारते हैं। वे उनके पाखण्ड पर प्रहार कर कहते हैं, “फरीसियो! धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम पुदीने, रास्ने और हर प्रकार के साग का दशमांश तो देते हो, लेकिन न्याय और ईश्वर के प्रति प्रेम की उपेक्षा करते हो। इन्हें करते रहना और उनकी भी उपेक्षा नहीं करना, तुम्हारे लिए उचित था। फरीसियो! धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम सभागृहों में प्रथम आसन और बाजारों में प्रणाम चाहते हो। धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम उन कब्रों के समान हो, जो दीख नहीं पड़तीं और जिन पर लोग अनजाने ही चलते-फिरते हैं।’’ ’’शास्त्रियों! धिक्कार तुम लोगों को भी! क्योंकि तुम मनुष्यों पर बहुत-से भारी बोझ लादते हो और स्वयं उन्हें उठाने के लिए अपनी तक उँगली भी नहीं लगाते। “शास्त्रियों, धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुमने ज्ञान की कुंजी ले ली। तुमने स्वयं प्रवेश नहीं किया और जो प्रवेश करना चाहते थे, उन्हें रोका।’’(लूकस 11: 42-46,52)

इस्राएली इतिहास में एक योग्य राजा की तुलना चरवाहे से की जाती रही है। जिस प्रकार भला चरवाहा अपनी रेवड की देखभाल करता है, उनका मार्गदर्शन करता तथा हर संभावित खतरों से उनकी रक्षा करता है उसी प्रकार की आशा एक राजा या नेता से की जाती रही है। दाऊद प्रभु द्वारा राजा चुने जाने के पूर्व चरवाहे थे। वे अपनी रेवड की देखरेख एवं रक्षा भली-भांति किया करते थे। जंगली जानवरों के आक्रमण करने पर वे उनका बहादुरी से सामना कर अपनी रेवड को बचाया करते थे। ‘‘आपका यह दास जब अपने पिता की भेड़ें चराता था और कोई सिंह या भालू आ कर झुण्ड से कोई भेड़ पकड़ ले जाता, तो मैं उसके पीछे जा कर उसे मारता और उसके मुँह से उसे छीन लेता था और यदि वह मेरा सामना करता, तो मैं उसकी अयाल पकड़ कर उस पर प्रहार करता और उसे मार डालता था। आपके दास ने तो सिंहों और भालूओं को मारा है।’’ (1 समूएल 17:34-36) राजा दाऊद पहले एक भले चरवाहा बने शायद इसी कारण से एक अच्छे राजा भी बन सके। अपने स्तोत्र 23 में राजा दाऊद ईश्वर की परिकल्पना भी एक ऐसे चरवाहे के रूप में करते हैं जो उसे जीवन की सम्पूणर्ता प्रदान करते हैं; अपनी लाठी और डण्डे से उन्हें सांत्वना देते तथा उसे अपने मंदिर में चिस्थायी स्थान प्रदान करते हैं।

ऐसी पृष्ठभूमि में येसु स्वयं को भले गडेरिये के रूप में प्रस्तुत करते हुए नबी एजेकिएल की भविष्यवाण पूरी करते हैं जिन्होंने इस्राएल को एक भावी भले गडेरिये के आगमन के बारे में सूचित किया था। ’’मैं उनके लिए एक चरवाहे, अपने सेवक दाऊद को नियुक्त करूँगा और वह उन को चरायेगा और उनका चरवाहा होगा। मैं, प्रभु, उनका ईश्वर होऊँगा और मेरा सेवक दाऊद उनका शासक होगा।’’ (एजेकिएल 34:23-24) येसु ही ईश्वर के प्रतिज्ञात भले चरवाहा है जो ईश्वर की इच्छानुसार उनकी देखभाल करते हैं।

येसु का भेडों के प्रति प्रेम उनके पिता के प्रति प्रेम से उपजता है। उसी प्रेम से प्रेरणा पाकर वे अपनी भेडों की देखभाल करते हैं। किसी मनुष्य के लिए अपने प्राणों से बढकर कोई चीज नहीं हैं किन्तु येसु अपने जीवन को भी भेडों की सेवा में अर्पित कर देते हैं। अपने प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाते हुए वे कहते हैं, ’’इस से बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिए अपने प्राण अर्पित कर दे।’’ (योहन 15:13) क्रूस पर अपने प्राणों को अर्पित कर येसु ने अपने वचनों को सत्यता प्रदान की। येसु अपने चरवाहे के आदर्श प्रेम, सेवा एवं आत्म-त्याग के कार्य से न सिर्फ चुने हुये लोगों को बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति को स्वर्गिक पिता की रेवड बना देगे। इस प्रकार प्रभु भविष्य का वह अकल्पनीय दृष्य प्रस्तुत करते हैं जब सारी मानवजाति का एक ही चरवाहा होगा तथा मानवजाति विभिन्न वर्णों एवं विचारधाराओं में बंटी हुयी न होकर एक ही चरवाहे की भेडे बन जायेगी।

 Biniush Topno

Copyright © www.atpresentofficial.blogspot.com
Praise the Lord!