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मार्च 26, 2023, इतवार चालीसा काल का पाँचवाँ इतवार

 

मार्च 26, 2023, इतवार

चालीसा काल का पाँचवाँ इतवार


📒 पहला पाठ : एज़ेकिएल 37:12-14

12) तुम उन से कहोगे, ’प्रभु यह कहता है: मैं तुम्हारी कब्रों को खोल दूँगा। मेरी प्रजा! में तुम लोगों को कब्रों से निकाल का इस्राएल की धरती पर वापस ले जाऊँगा।

13) मेरी प्रजा! जब मैं तुम्हारी कब्रों को खोल कर तुम लोगों को उन में से निकालूँगा, तो तुम लोग जान जाओगे कि मैं ही प्रभु हूँ।

14) मैं तुम्हें अपना आत्मा प्रदान करूँगा और तुम में जीवन आ जायेगा। मैं तुम्हें तुम्हारी अपनी धरती पर बसाऊँगा और तुम लोग जान जाओगे कि मैं, प्रभु, ने यह कहा और पूरा भी किया’।"

📕 दूसरा पाठ : रोमियों 8:8-11

8) जो लोग शरीर की वासनाओं से संचालित हैं, उन पर ईश्वर प्रसन्न नहीं होता।

9) यदि ईश्वर का आत्मा सचमुच आप लोगों में निवास करता है, तो आप शरीर की वासनाओं से नहीं, बल्कि आत्मा से संचालित हैं। जिस मनुष्य में मसीह का आत्मा निवास नहीं करता, वह मसीह का नहीं।

10) यदि मसीह आप में निवास करते हैं, तो पाप के फलस्वरूप शरीर भले ही मर जाये, किन्तु पापमुक्ति के फलस्वरूप आत्मा को जीवन प्राप्त है।

11) जिसने ईसा को मृतकों में से जिलाया, यदि उनका आत्मा आप लोगों में निवास करता है, तो जिसने ईसा मसीह को मृतकों में से जिलाया वह अपने आत्मा द्वारा, जो आप में निवास करता है, आपके नश्वर शरीरों को भी जीवन प्रदान करेगा।

📙 सुसमाचार : योहन 11:1-45 अथवा 11:3-7,17,20-27, 33-45

1) बेथानिया का निवासी लाज़रुस नामक व्यक्ति बीमार पड गया।

2) वेथानिया मरियम और उसकी बहन मरथा का गाँव था। यह वही मरियम थी, जिसने इत्र से प्रभु का विलेपन किया और अपने केशों से उनके चरण पोंछे। उसका भाई लाज़रुस बीमार था।

3) इसलिये बहनों ने ईसा को कहला भेजा, प्रभु! देखिये, जिसे आप प्यार करते हैं, वह बीमार है।

4) ईसा ने यह सुनकर कहा, "यह बीमारी मृत्यु के लिये नहीं, बल्कि ईश्वर की महिमा के लिये आयी है। इसके द्वारा ईश्वर का पुत्र महिमान्वित होगा।"

5) ईसा मरथा, उसकी बहन मरियम और लाज़रुस को प्यार करते थे।

6) यह सुनकर कि लाज़रुस बीमार है, वे जहाँ थे, वहाँ और दो दिन रह गये।

7) किन्तु इसके बाद उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "आओ! हम फिर यहूदिया चलें"।

8) शिष्य बोले, "गुरुवर! कुछ ही दिन पहले तो यहूदी लोग आप को पत्थरों से मार डालना चाहते थे और आप फिर वहीं जा रहे हैं।"

9) ईसा ने उत्तर दिया, क्या दिन के बारह घण्टें नहीं होते? जो दिन में चलता है, वह ठोकर नहीं खाता, क्योंकि वह इस दुनिया का प्रकाश देखता है।

10) परन्तु जो रात में चलता है, वह ठोकर खाता है, क्योंकि उसे प्रकाश नहीं मिलता।"

11) इतना कहने के बाद वे फिर उन से बोले, "हमारा मित्र लाज़रुस सो रहा है। मैं उसे जगाने जा रहा हूँ।"

12) शिष्यों ने कहा, "प्रभु! यदि वह सो रहा है तो अच्छा हो जायेगा।"

13) ईसा ने यह उसकी मृत्यु के विषय में कहा था, लेकिन उनके शिष्यों ने समझा कि वह नींद के विश्राम के विषय में कह रहे हैं।

14) इसलिये ईसा ने उन से स्पष्ट शब्दों में कहा, "लाजरुस मर गया है।

15) मैं तुम्हारे कारण प्रसन्न हूँ कि मैं वहाँ नहीं था, जिससे तुम लोग विश्वास कर सको। आओ, हम उसके पास चलें।"

16) इस पर थोमस ने, जो यमल कहलाता था, अपने सहशिष्यों से कहा, "हम भी चलें और इनके साथ मर जायें।"

17) वहाँ पहुँचने पर ईसा को पता चला कि लाजरुस चार दिनों से कब्र में है।

18) बेथानिया येरूसालेम से दो मील से भी कम दूर था,

19) इसलिये भाई की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने के लिये बहुत से यहूदी मरथा और मरियम से मिलने आये थे।

20) ज्यों ही मरथा ने यह सुना कि ईसा आ रहे हैं, वह उन से मिलने गयी। मरियम घर में ही बैठी रहीं।

21) मरथा ने ईसा से कहा, “प्रभु! यदि आप यहाँ होते, तो मेरा भाई नही मरता

22) और मैं जानती हूँ कि आप अब भी ईश्वर से जो माँगेंगे, ईश्वर आप को वही प्रदान करेगा।“

23) ईसा ने उसी से कहा “तुम्हारा भाई जी उठेगा“।

24) मरथा ने उत्तर दिया, “मैं जानती हूँ कि वह अंतिम दिन के पुनरुथान के समय जी उठेगा“।

25) ईसा ने कहा, "पुनरुथान और जीवन में हूँ। जो मुझ में विश्वास करता है वह मरने पर भी जीवित रहेगा

26) और जो मुझ में विश्वास करते हुये जीता है वह कभी नहीं मरेगा। क्या तुम इस बात पर विश्वास करती हो?"

27) उसने उत्तर दिया, "हाँ प्रभु! मैं दृढ़ विश्वास करती हूँ कि आप वह मसीह, ईश्वर के पुत्र हैं, जो संसार में आने वाले थे।"

28) वह यह कह कर चली गयी और अपनी बहन मरियम को बुला कर उसने चुपके से उस से कहा, "गुरुवर आ गये हैं, तुम को बुलाते हैं।"

29) यह सुनते ही वह उठ खडी हुई और ईसा से मिलने गयी।

30) ईसा अब तक गाँव नहीं पहुँचें थे। वह उसी स्थान पर थे, जहाँ मरथा उन से मिली थी।

31) जो यहूदी लोग संवेदना प्रकट करने के लिये मरियम के साथ घर में थे, वे यह देख कर कि वह अचानक उठकर बाहर चली गयी उसके पीछे हो लिये क्योंकि वे समझते थे कि वह कब्र पर रोने जा रही है।

32) मरियम उस जगह पहुँची, जहाँ ईसा थे। उन्हें देखते ही वह उनके चरणेां पर गिर पडी और बोली, "प्रभु! यदि आप यहाँ होते, तो मेरा भाई नहीं मरता।"

33) ईसा उसे और उसके साथ आये हुये यहूदियों को रोते देखकर, बहुत व्याकुल हो उठे और आह भर कर

34) बोले तुम लोगों ने उसे कहाँ रखा हैं? उन्होनें कहा, "प्रभु! आइये और देखिये।"

35) ईसा रो पडे।

36) इस पर यहूदियों ने कहा, "देखो! वे उसे कितना प्यार करते थे";

37) किन्तु कुछ लोगो ने कहा, "इन्होंने तो अन्धे को आँखें दी। क्या वे उस को मृत्यु से नही बचा सकते थे।"

38) कब्र के पास पहुँचने पर ईसा फिर बहुत व्याकुल हो उठे। वह कब्र एक गुफा थी जिसके मुँह पर एक बडा पत्थर रखा हुआ था।

39) ईसा ने कहा, पत्थर हटा दो। मृतक की बहन मरथा ने उन से कहा, "प्रभु! अब तो दुर्गन्ध आती होगी। आज चैथा दिन है।"

40) ईसा ने उसे उत्तर दिया, "क्या मैंने तुम से यह नहीं कहा कि यदि तुम विश्वास करोगी तो ईश्वर की महिमा देखोगी?"

41) इस पर लोगों ने पत्थर हटा दिया। ईसा ने आँखें उपर उठाकर कहा, "पिता! मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ; तूने मेरी सुन ली है।

42) मैं जानता था कि तू सदा मेरी सुनता है। मैंने आसपास खडे लोगो के कारण ही ऐसा कहा, जिससे वे विश्वास करें कि तूने मुझे भेजा है।"

43) इतना कहने के बाद ईसा ने ऊँचें स्वर से पुकारा, "लाजरुस! बाहर निकल आओ!"

44) मृतक बाहर निकला। उसके हाथ और पैर पटिटयों से बँधे हुये थे और उसके मुख पर अँगोछा लपेटा हुआ था। ईसा ने लोगो से कहा, इसके बन्धन खोल दो और चलने-फिरने दो।

45) जो यहूदी मरियम से मिलने आये थे और जिन्होंने ईसा का यह चमत्कार देखा, उन में से बहुतों ने उन में विश्वास किया।



 -Br. BiniushTopno

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Praise the Lord!

मार्च 19, 2023, इतवार चालीसा काल का चौथा इतवार

 

मार्च 19, 2023, इतवार

चालीसा काल का चौथा इतवार





📒 पहला पाठ : 1समुएल 16:1ब,6-7,10-13अ


1) प्रभु ने समूएल से कहा, "तुम कब तक उस साऊल के कारण शोक मनाते रहोगे, जिसे मैंने इस्राएल के राजा के रूप में अस्वीकार किया है? तुम सींग में तेल भर कर जाओ। मैं तुम्हें बेथलेहेम-निवासी यिशय के यहाँ भेजता हूँ, क्योंकि मैंने उसके पुत्रों में एक को राजा चुना है।"

6) जब वे आये और समूएल ने एलीआब को देखा, तो वह यह सोचने लगा कि निश्चय ही यही ईश्वर का अभिषिक्त है।

7) परन्तु ईश्वर ने समूएल से कहा, "उसके रूप-रंग और लम्बे क़द का ध्यान न रखो। मैं उसे नहीं चाहता। प्रभु मनुष्य की तरह विचार नहीं करता। मनुष्य तो बाहरी रूप-रंग देखता है, किन्तु प्रभु हृदय देखता है।"

10) इस प्रकार यिशय ने अपने सात पुत्रों को समूएल के सामने उपस्थित किया। किन्तु समूएल ने यिशय से कहा, "प्रभु ने उन में किसी को भी नहीं चुना।"

11) उसने यिशय से पूछा, "क्या तुम्हारे पुत्र इतने ही है? "यिशय ने उत्तर दिया, "सब से छोटा यहाँ नहीं है। वह भेडे़ चरा रहा है।" तब समूएल ने यिशय से कहा, "उसे बुला भेजो। जब तक वह नहीं आयेगा, हम भोजन पर नहीं बैठेंगे।"

12) इसलिए यिशय ने उसे बुला भेजा। लड़के का रंग गुलाबी, उसकी आँखें सुन्दर और उसका शरीर सुडौल था। ईश्वर ने समूएल से कहा, "उठो, इसका अभिशेक करो। यह वही है।"

13) समूएल ने तेल का सींग हाथ में ले लिया और उसके भाइयों के सामने उसका अभिशेक किया। ईश्वर का आत्मा दाऊद पर छा गया और उसी दिन से उसके साथ विद्यमान रहा। समूएल लौट कर रामा चल दिया।



📕 दूसरा पाठ : एफेसियों 5:8-14



8) आप लोग पहले ’अन्धकार’ थे, अब प्रभु के शिष्य होने के नाते ’ज्योति’ बन गये हैं। इसलिए ज्योति की सन्तान की तरह आचरण करें।

9) जहाँ ज्योति है, वहाँ पर हर प्रकार की भलाई, धार्मिकता तथा सच्चाई उत्पन्न होती है।

10) आप यह पता लगाते रहें कि प्रभु को कौन-सी बातें प्रिय हैं,

11) लोग जो व्यर्थ के काम अंधकार में करते हैं, उन से आप दूर रहें और उनकी बुराई प्रकट करें।

12) वे जो काम गुप्त रूप से करते हैं, उनकी चर्चा करने में भी लज्जा आती है।

13) ज्योति इन सब बातों की बुराई प्रकट करती और इनका वास्तविक रूप स्पष्ट कर देती है।

14) ज्योति जिसे आलोकित करती है, वह स्वयं ज्येाति बन जाता है। इसलिए कहा गया है -नींद से जागो, मृतकों में से जी उठो और मसीह तुम को आलोकित कर देंगे।



📙 सुसमाचार : योहन 9:1-41 अथवा 9:1,6-9,13-17,34-38



1) रास्ते में ईसा ने एक मनुष्य को देखा, जो जन्म से अन्धा था।

2) उनके शिष्यों ने उन से पूछा, "गुरुवर! किसने पाप किया था, इसने अथवा इसके माँ-बाप ने, जो यह मनुष्य जन्म से अन्धा है?"

3) ईसा ने उत्तर दिया, "न तो इस मनुष्य ने पाप किया और न इसके माँ-बाप ने। यह इसलिए जन्म से अन्धा है कि इसे चंगा करने से ईश्वर का सामर्थ्य प्रकट हो जाये।

4) जिसने मुझे भेजा, हमें उसका कार्य दिन बीतने से पहले ही पूरा कर देना है। रात आ रही है, जब कोई भी काम नहीं कर सकता।

5) मैं जब तक संसार में हूँ, तब तक संसार की ज्योति हूँ।"

6) उन्होंने यह कह कर भूमि पर थूका, थूक से मिट्टी सानी और वह मिट्टी अन्धे की आँखों पर लगा कर

7) उस से कहा, "जाओ, सिलोआम के कुण्ड में नहा लो"। सिलोआम का अर्थ है ‘प्रेषित’। वह मनुष्य गया और नहा कर वहाँ से देखता हुआ लौटा।

8) उसके पड़ोसी और वे लोग, जो उसे पहले भीख माँगते देखा करते थे, बोले, "क्या यह वही नहीं है, जो बैठे हुए भीख माँगा करता था?"

9) कुछ लोगों ने कहा, "हाँ, यह वही है"। कुछ ने कहा, "नहीं, यह उस-जैसा कोई और होगा"। उसने कहा, मैं वही हूँ"।

10) इस पर लोगों ने उस से पूछा, "तो, तुम कैसे देखने लगे?"

11) उसने उत्तर दिया, "जो मनुष्य ईसा कहलाते हैं, उन्होंने मिट्टी सानी और उसे मेरी आँखों पर लगा कर कहा- सिलोआम जाओ और नहा लो। मैं गया और नहाने के बाद देखने लगा।"

12) उन्होंने उस से पूछा, "वह कहाँ है?" और उसने उत्तर दिया, "मैं नहीं जानता"।

13) लोग उस मनुष्य को, जो पहले अन्धा था, फरीसियों के पास ले गये।

14) जिस दिन ईसा ने मिट्टी सान कर उसकी आँखें अच्छी की थीं, वह विश्राम का दिन था।

15) फिरीसियों ने भी उस से पूछा कि वह कैसे देखने लगा। उसने उन से कहा, "उन्होंने मेरी आँखों पर मिट्टी लगा दी, मैंने नहाया और अब मैं देखता हूँ"।

16) इस पर कुछ फरीसियों ने कहा, "वह मनुष्य ईश्वर के यहाँ से नहीं आया है; क्योंकि वह विश्राम-दिवस के नियम का पालन नहीं करता"। कुछ लोगों ने कहा, "पापी मनुष्य ऐसे चमत्कार कैसे दिखा सकता है?" इस तरह उन में मतभेद हो गया।

17) उन्होंने फिर अन्धे से पूछा, "जिस मनुष्य ने तुम्हारी आँखें अच्छी की हैं, उसके विषय में तुम क्या कहते हो?" उसने उत्तर दिया, "वह नबी है"।

18) यहूदियों को विश्वास नहीं हो रहा था कि वह अन्धा था और अब देखने लगा है। इसलिए उन्होंने उसके माता-पिता को बुला भेजा

19) और पूछा, "क्या यह तुम्हारा बेटा है, जिसके विषय में तुम यह कहते हो कि यह जन्म से अन्धा था? तो अब यह कैसे देखता है?"

20) उसके माता-पिता ने उत्तर दिया, "हम जानते हैं कि यह हमारा बेटा है और यह जन्म से अन्धा था;

21) किन्तु अब यह कैसे देखता है- हम यह नहीं जानते। हम यह भी नहीं जानते कि किसने इसकी आँखें अच्छी की हैं। यह सयाना है, इसी से पूछ लीजिए। यह अपनी बात आप ही बोलगा।"

22) उसके माता-पिता ने यह इसलिए कहा कि वे यहूदियों से डरते थे। यहूदी यह निर्णय कर चूके थे कि यदि कोई ईसा को मसीह मानेगा, तो वह सभागृह से बहिष्कृत कर दिया जायेगा।

23) इसलिए उसके माता-पिता ने कहा-"यह सयाना है, इसी से पूछ लीजिए’।

24) उन्होंने उस मनुष्य को, जो पहले अन्धा था, फिर बुला भेजा और उसे शपथ दिला कर कहा, "हम जानते हैं कि वह मनुष्य पापी है"।

25) उसने उत्तर दिया, "वह पापी है या नहीं, इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता। मैं यही जानता हूँ कि मैं अन्धा था और अब देखता हूँ।"

26) इस पर उन्होंने उस से फिर पूछा, "उसने तुम्हारे साथ क्या किया? उसने तुम्हारी आँखे कैसे अच्छी कीं?

27) उसने उत्तर दिया, "मैं आप लोगों को बता चुका हूँ, लेकिन आपने उस पर ध्यान नहीं दिया। अब फिर क्यों सुनना चाहते हैं? क्या आप लोग भी उनके शिष्य बनना चाहते हैं?"

28) वे उसे बुरा-भला कहते हुए बोले, "तू ही उसका शिष्य बन जा। हम तो मूसा के शिष्य हैं।

29) हम जानते हैं कि ईश्वर ने मूसा से बात की है, किन्तु उस मनुष्य के विषय में हम नहीं जानते कि वह कहाँ का है।"

30) उसने उन्हें उत्तर दिया, "यही तो आश्चर्य की बात है। उन्होंने मुझे आँखे दी हैं और आप लोग यह भी नहीं जानते कि वह कहाँ के हैं।

31) हम जानते हैं कि ईश्वर पापियों की नहीं सुनता। वह उन लोगों की सुनता है, जो भक्त हैं और उसकी इच्छा पूरी करते हैं।

32) यह कभी सुनने में नही आया कि किसी ने जन्मान्ध को आँखें दी हैं।

33) यदि वह मनुष्य ईश्वर के यहाँ से नहीं आया होता, तो वह कुछ भी नहीं कर सकता।"

34) उन्होंने उस से कहा, "तू तो बिलकुल पाप में ही जन्मा है। तू हमें सिखाने चला है?" और उन्होंने उसे बाहर निकाल दिया।

35) ईसा ने सुना कि फरीसियों ने उसे बाहर निकाल दिया है; इसलिए मिलने पर उन्होंने उस से कहा, "क्या तुम मानव पूत्र में विश्वास करते हो?"

36) उसने उत्तर दिया, "महोदय! मुझे बता दीजिए कि वह कौन है, जिससे मैं उस में विश्वास कर सकूँ।

37) ईसा ने उस से कहा, "तुमने उसे देखा है। वह तो तुम से बातें कर रहा है।"

38) उसने उन्हें दण्डवत् करते हुए कहा "प्र्रभु! मैं विश्वास करता हूँ"।

39) ईसा ने कहा, "मैं लोगों के प्रथक्करण का निमित्त बन कर संसार में आया हूँ, जिससे जो अन्धे हैं, वे देखने लगें और जो देखते हैं, वे अन्धे हो जायें"।

40) जो फरीसी उनके साथ थे, वे यह सुन कर बोले, "क्या हम भी अन्धे हैं?"

41) ईसा ने उन से कहा, "यदि तुम लोग अन्धे होते, तो तुम्हें पाप नहीं लगता, परन्तु तुम तो कहते हो कि हम देखते हैं; इसलिए तुम्हारा पाप बना रहता है।



📚 मनन-चिंतन


प्रभु का बुलावा किसी की योग्यता या किसी की कला को नही देखता है। प्रभु अयोग्य को भी योग्य बनाता है। वह उनके बाहरी रंग रूप को नहीं देखता बल्कि वह हृदय को देखता है। प्रभु की ज्योति की चमक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जो सारे इस्त्राएल का चरवाहा बना। एक साधारण चरवाहा इ़स्त्राएल का राजा बना। प्रभु ने उसका अभिपेक कर अपना आत्मा उसे प्रदान किया, जिससे वह सब को ज्योति की राह पे ले चले।

प्रभु येसु के अनुयायी होने के नाते हम ज्योति बन गये। हम अंधकार में छिप गये थे। प्रभु ज्योति बन कर इस अंधकार से बहार निकालने आये। यह ज्योति अंनत जीवन देने वाली ज्याति है। जो उसका अनुसरण करेगा, वह अंधेरे मे नहीं भटकेगा। हम इस ज्योति को हमारे जीवन में चमकने दें।

ज्योति के आभाव से मनुष्य अंधकार में भटकता है। उसे अपने मार्ग पर चलने से कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अंधकार उसके जीवन को खाली कर छोड़ देता है। वह उस अंधकार से बहार आकर ज्योति के मार्ग पर चलना चाहता है। प्रभु येसु जन्म से अन्धे उस व्यक्ति की आखों को ज्योति प्रदान करते हैं। वह उस ज्योति से आलोकित होकर प्रभु की स्तुति करता है।

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु एक जन्मान्ध को चंगा करते हैं। साथ-साथ प्रभु हमें यह शिक्षा देना चाहते हैं कि अच्छे सास्थ्य तथा बीमारी – दोनों में प्रभु का सामर्थ्य प्रकट होता है; समृद्धि और कष्ट – दोनों में प्रभु का सामर्थ्य प्रकट होता है।




📚 REFLECTION

The call of the Lord does not look at one's ability or one's skill. The Lord makes even the unworthy worthy. He does not see their outer appearance but sees the heart. The light of the Lord shone upon such a man who became the shepherd of all Israel. A simple shepherd became the king of Israel. The Lord blessed him and gave his Spirit to him, so that he could lead everyone on the path of light.

As followers of the Lord Jesus, we have become light. But we often hide in the dark. The Lord came as the light to bring us out of this darkness. This light is the flame that gives eternal life. He who follows him will not wander in the dark. Let us let this light shine in our lives.

Man wanders in darkness due to lack of light. He has to face many problems while walking on his path. The darkness leaves his life empty. He wants us to come out of that darkness and walk on the path of light. In today's Gospel, the Lord Jesus heals a man who was born blind. Jesus gives light to his eyes. Enlightened by that light, he praises the Lord.

At the same time, the Lord wants to teach us that the power of the Lord is manifested both in good health and in illness. The power of the Lord is manifested in both prosperity and suffering. We need to learn to see the hand of the Lord in all circumstances.




प्रवचन - 01

समस्याएं, बीमारी, परेशानियॉ जीवन का अभिन्न अंग है। ये बातें सामान्य जीवन में अवरोधक हैं। सभी इससे बचने का प्रयत्न करते हैं किन्तु कोई भी प्राणी इससे अछूता नहीं रह सकता है। जिस प्रकार हम इन अवरोधों का सामना करते हैं वह हमारे जीवन को परिभाषित करता था उसे निर्धारित करता है। संत योहन के सुसमाचार अध्याय 9 में हम जंमांध अंधे को पाते हैं। उस जंमांध अंधे को देखकर सभी लोग अपना-अपना राग अलाप रहे थे। शिष्य भी इसके बारे में अधिक सकारात्मक नहीं सोचते थे। वे येसु से पूछते हैं, ’’गुरुवर! किसने पाप किया था, इसने अथवा इसके माँ-बाप ने, जो यह मनुष्य जन्म से अन्धा है?’’ शिष्यों तथा शायद अधिकांश लोगों के लिये उस व्यक्ति का अंधापन एक समस्या है। उसका अंधापन किसी के पाप का कारण है किन्तु येसु के लिये यह समस्या एक अवसर है। येसु के लिये अंधकार, ज्योति को लाने का अवसर है। इसलिये वे कहते हैं, ’’न तो इस मनुष्य ने पाप किया और न इसके माँ-बाप ने। यह इसलिए जन्म से अन्धा है कि इसे चंगा करने से ईश्वर का सामर्थ्य प्रकट हो जाये।’’ येसु के लिये उसका अंधापन पिता ईश्वर की कृपा को चंगाई के रूप में उस पर प्रकट करने का अवसर था।

कई बार हम समस्याओं को बाधा मानते हैं किन्तु येसु हमें सिखाते हैं कि समस्याएं बाधा नहीं बल्कि अपनी क्षमताओं और सामर्थ्य को प्रदर्शित करने का अवसर है। संत मत्ती के सुसमाचार अध्याय 14 में हम रोटियों के चमत्कार का वर्णन पाते हैं। जब येसु भीड़ को देखते हैं तो उन्हें उन पर तरस आता है तथा वे उनमें जो रोगी थे उनको चंगा करते हैं। जब दिन ढलने को होता है तो शिष्यों के लिये यह भीड एक समस्या तथा बोझ बन जाती है। वे इससे छुटकारा पाने के लिये येसु को पूर्व में ही सूचित करते हुये कहते हैं, ’’यह स्थान निर्जन है और दिन ढल चुका है। लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे गाँवों में जा कर अपने लिए खाना खरीद लें।’’ किन्तु येसु उनसे कहते हैं, ’’उन्हें जाने की जरूरत नहीं। तुम लोग ही उन्हें खाना दे दो। इस पर शिष्यों ने कहा ’पाँच रोटियों और दो मछलियों के सिवा यहाँ हमारे पास कुछ नहीं है।’’ येसु इस समस्या को अवसर के रूप में प्रदर्शित करते हुये शिष्यों से जो कुछ उनके पास था उसे उनके पास ले आने के लिये कहते हैं, ’’उन्हें यहाँ मेरे पास ले आओ।’’ (मत्ती 14:15-18) येसु उन पर आशिष की प्रार्थना कर उसे सभी के लिये भोजन में बना देते हैं। इस प्रकार जो शिष्यों के लिये समस्या थी उसे येसु पिता की दया को प्रदर्शित करने का अवसर बना देते हैं। रोचक तथ्य यह है कि बचे हुये टुकडों से बारह टोकरियॉ भर जाती है। ऐसा इसलिये प्रतीत होता है मानो बारह टोकरियॉ येसु के बारह शिष्यों के लिये एक पाठ या सीख हो कि समझों ईश्वर किस प्रकार हमारे अभावों या समस्याओं को अपने महान चमत्कार के द्वारा हमारी समझ से ज्यादा परितृप्त कर सकता है।

लाजरूस की बीमारी, उसकी मृत्यु तथा मृत अवस्था से पुनः जीवन पाने का घटनाक्रम इस बात को और भी अधिक रूप से प्रतिपादिक करता है कि येसु के लिये समस्या या जाटिल परिस्थिति पिता की महिमा प्रकट करने का अवसर है। लाजरूस की ’’बहनों ने ईसा को कहला भेजा, प्रभु! देखिये, जिसे आप प्यार करते हैं, वह बीमार है। ईसा ने यह सुनकर कहा, ’यह बीमारी मृत्यु के लिये नहीं, बल्कि ईश्वर की महिमा के लिये आयी है। इसके द्वारा ईश्वर का पुत्र महिमान्वित होगा।’’(योहन 11:3-4) येसु का यह कथन आने वाले घटनाक्रम के लिये था जिसके द्वारा वे न सिर्फ मृत लाजरूस को पुनः जीवन प्रदान करने का महान कार्य करेंगे बल्कि दूसरों तथा विशेषकर उनकी बहनों मरथा और मरियम में पुनरूत्थान के प्रति विश्वास भी दृढ़ बनायेंगे। (देखिये योहन 11:1-44)

संत लूकस के सुसमाचार 8:41-53 में जैरूस की पुत्री के पुनः जीवन पाने की घटना है। जब सभागृह का अधिकारी जैरूस येसु के पास आता है तो उसकी बारह बरस की बेटी मरने को थी। येसु के लिये उस तक जल्द-से-जल्द से पहुॅचना अनिवार्य था अन्यथा वह मर जायेगी। येसु इस कार्य हेतु निकल भी पडते हैं। किन्तु रास्ते में कोई उन्हें छू लेता है। ऐसी आपातकालीन परिस्थिति में भी येसु उस रक्तस्राव से पीडित महिला को नजरअंदाज नहीं करते वरन उस स्त्री के ’विश्वास के स्पर्श’, जो उसके विश्वास की अभिव्यक्ति थी, को सारी भीड के सामने दिखाने का अवसर देखते हैं। इस दौरान देर हो जाती तथा मार्ग में ही सूचना मिलती है कि जैरूस की बेटी मर चुकी है। येसु इस शोकमय परिस्थिति को पिता की महिमा दिखाने के अवसर के रूप में देखते हैं और घर जाकर मृत बालिका से कहते हैं, ’’ओ लड़की! उठो!’’ उसके प्राण लौट आये और वह उसी क्षण उठ खड़ी हो गयी। ईसा ने उसे कुछ खिलाने को कहा।’’ (लूकस 8:54-55)

इस प्रकार येसु हर बीमारी, विवाद, पूछताछ आदि की समस्याग्रसित परिस्थितियों को अपनी शिक्षा देने पिता ईश्वर की महिमा प्रकट करने तथा उनकी योजना को प्रदर्शित करने के अवसर के रूप में देखते हैं। यहॉ तक कि उनका दुखभोग, क्रूस पर प्राणपीडा, मृत्यु जैसी घोर परिस्थितियॉ भी येसु को इन्हें पिता का साक्ष्य देने के अवसर बनाने से नहीं रोक सके।

शिष्यों तथा अन्यों के लिये वह जंमांध व्यक्ति एक नकारात्मक समस्या था। उनके लिये वह पाप का प्रतीक था किन्तु येसु के लिये वह अवसर था। हम अपने जीवन की समस्यों एवं चुनौतियों को कैसे लेते हैं? शायद कुडकुडाकर या उदास होकर या फिर स्वयं को बेचारा समझकर। किन्तु यही वह समय होता जब हम अपने विश्वास के द्वारा इन्हें अपने विश्वास की अभिव्यक्ति के अवसर के रूप में देख सकते हैं। हमें जीवन की समस्याओं को अवसर मानना तथा बनाना चाहिये। येसु का जीवन हमें इसी बात को सिखाता है।




HOMILY - 01

Problems, sicknesses, tensions are integral part of human life. However, these things are deterrent to our normal life. We all try to escape and run away from these deterrents but no one can escape from them. Our problems do not define us but how we handle them shape and mould our life. In St. John’s gospel chapter 9 we encounter a man born blind. Many people have their own theories and opinions about his blindness. Even the disciples were not exception to this. They asked Jesus, “Rabbi, who sinned, this man or his parents, that he was born blind?” For them his blindness is a problem because they think it is an outcome of sin. But Jesus sees differently. For him it is an opportunity to manifest God’s glory as he says, “Neither this man nor his parents sinned; he was born blind so that God’s works might be revealed in him.”

Many a times and very often we consider our difficulties as problems but the Lord Jesus teaches us problems are occasion to show forth our strength and calibre. In Matthew 14 we have the miracle of multiplication of bread. When Jesus sees the crowd, he had pity on them and he healed many of them. When the day was coming to end the crowd become a problem for the disciples. So they caution Jesus to disperse them, ‘This is a deserted place, and the hour is now late; send the crowds away so that they may go into the villages and buy food for themselves.’ Jesus said to them, ‘They need not go away; you give them something to eat.’ They replied, ‘We have nothing here but five loaves and two fish.’ And he said, ‘Bring them here to me.’ (Mt. 14:15-18) Lord blesses the five loaves and two fish and turns them into a food for thousands of them. What was a problem for the disciples Jesus turns it into an occasion to manifest God’s glory. Interestingly the twelve baskets leftover crumbs seem to be left for the twelve disciples to believe and remember how a problem was turned into a miracle.

The events of Lazarus’s illness, his death and rising to life prove this point much more powerfully that a grave situation or a difficulty is an opportunity for Jesus. “So the sisters sent a message to Jesus, ‘Lord, he whom you love is ill.’ But when Jesus heard it, he said, ‘This illness does not lead to death; rather it is for God’s glory, so that the Son of God may be glorified through it.” (John 11:3-4) Jesus’ statement was an indication of the things that would follow and he would not only give life to dead Lazarus but also stir and strengthen the faith of others specially of Lazarus’ sisters Marth and Mary in the resurrection.

Luke’s gospel 8:41-53 narrates how the daughter of Jairus was raised to life. When the official Jairus approached Jesus, his daughter was about to die. It was important that Jesus should reach his house at the earliest. However, on the way Jesus encounter great crowd and in it a woman who touches the fringe of his garment to be healed. Jesus amidst this commotion makes this ‘touch of faith’ of the woman to become an example of faith to all. So, he calls her to bear witness to the healing she had received. All this happening had delayed Jesus and meanwhile the daughter had died. Yet Jesus is not discouraged but he further exploits the grave situation to manifest God’s glory and raises the dead girl to life. “He took her by the hand and called out, ‘Child, get up!’ Her spirit returned, and she got up at once. Then he directed them to give her something to eat.” (Luke 8:54-55)

Jesus always saw the sickness, opposition, inquiry etc. as occasions and opportunity to teach and give glory to God and manifest his plan for the world. Even he considered his trial, passion and death to be an occasion to bear witness to the will of God the father.

For the disciples and perhaps for many people the man born blind was a negative situation. It was perceived to be a cause of sin but for the Lord it was an occasion. How do we see the difficulties and challenges of our life? How do we accept and handle them? Many a times we grumble and curse the situation and sadly drag beneath them. But those are the moments we need to sum up our faith and turn them into opportunities to bear witness to the world of our faith.



प्रवचन - 02

सुख और दुःख हमारे जीवन के दो पहलू हैं। दोनों ही हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं। कभी सुख आता तो कभी दुःख। सुख और दुःक का चक्कर हमारे जीवन में चलता ही रहता है। हम सब एक दूसरे को मद्द करने व अच्छाई कर ईश्वर को प्रकट करने के लिए बुलाये गये हैं।

एक बुजुर्ग व्यक्ति न्यू योर्क के ब्रुकलेन शहर के सड़क किनारे अचानक बेहोश हो गया। तुरन्त उसे किंग्स कौन्टी होस्पीटल में भर्ती कराया गया। नर्स अपनी ड्यूटी में, कुछ पूछ-ताछ करने के बाद पता चला कि कोई मारीन जो उत्तरी कारोलिना में रहता था उसका बेटा हो सकता है। नर्स ने उस मारीन को फोन कर अस्पताल बुलवाया। जब वह मारीन आ पहुँचा तो नर्स ने जल्दी से उस मरते हुए बुजुर्ग के बेड के पास ले गयी और उसने कहा-‘‘आपका बेटा आ गया है।’’ नर्स इस वाक्य को तबतक दुहराती रही जबतक बिमार व्यक्ति की ऑंखें नहीं खुल गयी। दिल का दौरा होने कारण दर्द निवारण दवा काफी मात्रा में दिया गया था। इस कारण उसे देखने में भी कठिनाई हो रही थी। जब उसने ऑंखे खोली तो देखा कि एक मारीन का व्यक्ति पूरी वरदी में ऑक्सीजन शिविर के बाहर खड़ा है। बुजुर्ग व्यक्ति ने अपना हाथ बढ़ाया। मारीन ने उसके कड़क हाथ को पकड़कर प्यार से सहलाने लगा। नर्स एक कुर्सी ले आया ताकि मारीन उसके बेड के बगल में बैठ सके। मरीन व्यक्ति पूरी रात भर उस बुजुर्ग व्यक्ति के हाथ को पकड़कर सहलाता रहा। उसे प्रेम और ढाड़स और बल देता रहा। कभी-कभी नर्स मरीन को दूसरे जगह जाकर थोड़ी आराम करने को कहा। लेकिन मारीन ने इन्कार कर दिया। मारीन उस बिमार बुजुर्ग को सहलाने और दिलासा देने में इतना लीन था कि नर्स के वार्ड आने-जाने व आस्पताल के विभिन्न प्रकार की आवाज से बिलकुल बेखबर था। कभी-कभी नर्स ने मारीन को कुछ हलका-हलका, कुछ कोमल शब्द कहते हुए सुना। मरता हुआ बुजुर्ग कुछ नहीं कहता सिवाय यह कि वह पूरी रात भर अपने बेटे का हाथ पकड़ा रहा। सवेरा होते-होते वह मर गया। मारीन ने धीरे से अपने हाथों को मृत्य शरीर के पकड़ से छुड़ाकर नर्स को खबर देने चला गया। जो कुछ नर्स को करना था वह करती रही, और मारीन प्रतीक्षा करता रहा। कुछ समय पश्चात नर्स वापस आयी। वह मारीन को संतवाना देने लगी। तभी मारीन ने बीच में पूछ दिया-‘‘कौन था यह आदमी?’’ नर्स अचम्भे में पड़ गयी। ‘‘वह आपका पिताजी था’’-नर्स ने कहा। ‘‘नहीं वह नहीं था’’-मारीन ने कहा-‘‘मैंने इसके पहले उसे कभी अपने जीवन में नहीं देखा।’’ ‘‘तो आप ने क्यों कुछ भी नहीं कहा जब मैं आप को उसके पास ले गई।’’ मैं जानता था कि कुछ गलतफामी हुई है। लेकिन मैं यह भी जानता था उस बुजुर्ग को अपने बेटे की जरूरत थी जो कि वहॉं था ही नहीं। जब मुझे लगा कि उसे अपने बेटे की सक्त जरूरत है और वह इतना बिमार था कि वह यह नहीं बता सकता था कि मैं वास्तव में उसका बेटा हूँ या नहीं, मैंने महसूस किया कि उसको मेरी जरूरत है, और इसलिए मैं रूक गया।’’

बाइबिलीय समय में मनवीय दुःख का प्रश्न सबसे विशाल समस्या थी अब भी विशाल समस्या ही है। और पुराना विधान दुःख वा पाप के संबन्ध को दर्शाता है। पुराना विधान बतलाता है कि दुःख और पाप एक साथ जुड़े हुए हैं। दुःख को ईश्वर के द्वारा दिया पाप की सजा के रूप में देखा जाता था। अतः जब कभी लोग किसी को दुःख सहते देखते तो यह निष्कर्ष निकालते थे कि पाप के कारण यह दुःख भोग रहा है। इस तरह से किसी भी प्रकार का दुःख लोगों को यही स्मरण दिलाती थी कि किसी ने पाप किया है। इस प्रकार लोगों में ईश्वर का भयंकर नाकारात्मक धारणा फैली हुई थी कि ईश्वर पाप करने वालों को सजा देता है, दुःख देता है। इस प्रकार लोगों में यह विश्वास था कि ईश्वर प्रतिशोधी है। इसलिए जब येसु के शिष्यों ने एक अन्धे को देखा तो तुरन्त वे इस निष्कर्ष पर पहुँच गये कि किसी ने पाप किया। उसके अन्धेपन का कारण पाप है। येसु के शिष्यों ने येसु से पूछा कि किसके पाप के कारण यह दुःख सह रहा है। समस्या, समस्या ही रही। यह उम्मीद करते हुए कि येसु इस समस्या का समाधान करे, उन्होंने येसु से पूछा- क्यों यह व्यक्ति जन्म से अन्धा है? किसने पाप किया? इसी ने पाप किया अथवा इसके माता-पिता ने? किसके पाप के कारण यह दुःख सह रहा है? येसु ने उत्तर दिया-‘‘न तो इस मनुष्य ने पाप किया और न इसके मॉं-बाप ने। वह इसलिए जन्म से अंधा है कि इसे चंगा करने से ईश्वर का सामर्थ्य प्रकट हो जाये।’’ इस प्रकार येसु यह नकारते हैं कि उस व्यक्ति के पाप और दुःख में कुछ संबन्ध है, पाप और दुःख में कुछ संयोजन है। उस व्यक्ति का अन्धापन ईश्वर की ओर से सजा नहीं था। ईश्वर बुराई नहीं करता है। ईश्वर अच्छाई करता है। हम इतने होशियार भी नहीं हैं कि यह जान पायें कि यह कैसे हुआ। यह हो सकता है कि यह आनुवंशिक हो, या फिर पालास्टाइन की स्वस्थ्य संबंधी लापरवाही का परिणाम हो। या ऐसे कुछ भी हुआ हो। हम नहीं जानते, और वास्तव में यह कोई महत्त्व की बात नहीं है। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात ये है कि येसु आगे कहते हैं कि यह उसके लिए एक अवसर है, यह दर्शाने के कि ईश्वर का कार्य किस प्रकार है। फिर वह अन्धे को चंगा करने गया। तो व्यक्ति का अन्धापन बेशक यह दर्शाता कि ईश्वर किस प्रकार है। ये मानवीय दुःख के समक्ष ईश्वर की अनुकम्पा व करूणा को दर्शाता है। येसु के शिष्य शायद इस उत्तर से संतुष्ट नहीं रहे होंगे। लेकिन अन्धा व्यक्ति के लिए यह सर्वोत्तम उत्तर था। समस्याओं के बारे बात करना समस्या का समाधान नहीं करता, लेकिन कार्य अवश्य करता है। तो बुराई एक सच्चाई है। इस सच्चाई के प्रति प्रतिक्रिया अच्छा है। अन्धे व्यक्ति को जो आवश्यकता थी वह बुराई की उद्गम पर उपदेश नहीं बल्कि चंगाई की। इस प्रकार शिष्यों के लिए जो समस्या था येसु के लिए एक अवसर बनता है। ईश्वर के कार्य करने के लिए एक अवसर, ईश्वर किस प्रकार है इसे दर्शाने के लिए एक अवसर। और इसलिए येसु आगे कहते हैं कि समय बीतता जा रहा है। हमें उसका कार्य दिन बीतने से पहले पूरा कर देना है। पृथ्वी पर येसु का जीवन समाप्ति पर पहुँच रहा है। मृत्यु की रात जल्द आ रही है। इसलिए वह कहता है कि जबतक दिन बीतता है मुझे उसके कार्य को करते रहना है जिसने मुझे भेजा है। इसलिए येसु के शब्दों में शीघ्रता झलकती है। वे हर अवसर को ईश्वर को प्रकट करने के लिए उपयोग कर रहे थे। दूसरों के दुःख हमारे लिए भी अवसर बनता है, दूसरों की परवाह करने का अवसर। हमारे लिए भी रात आ रही है। हम नहीं जानते कि हमारी कितनी जिन्दगी बाकी है। इसलिए हमें जो भी अवसर प्राप्त होता है उन सभी अवसरों को अच्छाई करने के लिए स्तेमाल करना चाहिए। हमें किसी भी प्रकार के अन्धेपन से अशक्त नहीं होनी चाहिए। जैसे कि हमारी स्वार्थता हमें दूसरो की जरूरत को देखने नहीं देती। हमारी असंवेदनशीलता, हम जो दूसरों को दुःख देते उसे देखने नहीं देती है। हमारी अहंकार अपने ही गलतियों को स्वीकारने नहीं देती है। हमारी पूर्वधारणा सच्चाई से वंचित रखती है। हमारी जल्द-बाज वाली संस्कृति दुनिया की सौन्दर्य की निहारने नहीं देती है। भौतिकवाद हमें अध्यत्मिक मूल्यों को देखने नहीं देती है। छिछोरापन हमें लोगों के सच्ची मूल्यों व महत्त्वओं को देखने नहीं देती है। और हम वाह्य रंग-रूप से लागों को आंकते हैं जैसे कि आज के प्रथम पाठ में समूएल के साथ होता है। ये सभी एक तरह का अन्धापन है। हम सिर्फ ऑंखों से नहीं देखते हैं लेकिन हम अपने मन, दिल और कल्पनाशक्ति से भी देखते हैं। संकिर्ण दिमाग, लधु दिल और अशक्त, निर्बल कल्पनाशक्ति हमारी दष्टि को तीक्षण कर देती है। ये हमारे जीवन को अन्धकारमय बना देतीं है और हमारी दुनिया को सिकुड़कर छोटा कर देती है। यदि हम येसु को हमारे जीवन को ज्योतिमर्य बनाने देते हैं तो हम फिर से अपने आपको एवं हमारे जिन्दगी को उसी तरह, उसी प्रकाश में नहीं देखेंगे जैसे हम पहले देखते थे। आन्तरिक चमक से सबकुछ ज्योतिमर्य हो जायेगा। विश्वास हमें अधुनिक दुनिया की दुर्व्यवस्था, उलझन और अन्धकार में राह दिखाता है। हमें जो भी अवसर मिलता है हर अवसर में हमें अच्छाई करते हुए ईश्वर को प्रकट करना चाहिए, जिस प्रकार येसु ने किया। उस मारीन ने भी तो यही किया। वह बुजुर्ग उसका पिताजी नहीं था लेकिन मारीन ने उसके बेटे होने का एहसास दिलाया। किसी ने ठीक ही कहा है-‘‘हम इस दुनिया से एक बार गुजरते हैं कुछ अच्छाई जो हम कर सकते है, कुछ दया जो हम किसी पर कर सकते है अब करें। हम इसमें विलम्ब न करें और न ही उपेक्षा करें। क्योंकि हम फिर से इन राहों से नहीं गुजरेंगे।

 -Biniush Topno


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Praise the Lord!

मार्च 12, 2023, इतवार चालीसा काल का तीसरा इतवार

 

मार्च 12, 2023, इतवार

चालीसा काल का तीसरा इतवार




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📒 पहला पाठ : निर्गमन 17:3-7



3) लोगों को बड़ी प्यास लगी और वे यह कर मूसा के विरुद्ध भुनभुना रहे थे, ''क्या आप हमें इसलिए मिस्र से निकाल लाये कि हम अपने बाल-बच्चों और पशुओं के साथ प्यास से मर जायें?''

4) मूसा ने प्रभु की दुहाई दे कर कहा, ''मैं इन लोगों का क्या करूँ? ये मुझे पत्थरों से मार डालने पर उतारू हैं।''

5) प्रभु ने मूसा को यह उत्तर दिया, ''इस्राएल के कुछ नेताओं के साथ-साथ लोगों के आगे-आगे चलो। अपने हाथ में वह डण्डा ले लो, जिसे तुमने नील नदी पर मारा था और आगे बढ़ते जाओ।

6) मैं वहाँ होरेब की उस चट्टान पर तुम्हारे सामने खड़ा रहूँगा। तुम उस चट्टान पर डण्डे से प्रहार करो। उस से पानी फूट निकलेगा और लोगों को पीने को मिलेगा।'' मूसा ने इस्राएल के नेताओं के सामने ऐसा ही किया।

7) उसने उस स्थान का नाम "मस्सा" और "मरीबा" रखा; क्योंकि इस्राएलियों ने उसके साथ विवाद किया था और यह कह कर ईश्वर को चुनौती दी थी, ईश्वर हमारे साथ है या नहीं?''



📕 दूसरा पाठ : रोमियों 5:1-2,5-8


1) ईश्वर ने हमारे विश्वास के कारण हमें धार्मिक माना है। हम अपने प्रभु ईसा मसीह द्वारा ईश्वर से मेल बनाये रखें।

2) मसीह ने हमारे लिए उस अनुग्रह का द्वार खोला है, जो हमें प्राप्त हो गया है। हम इस बात पर गौरव करें कि हमें ईश्वर की महिमा के भागी बनने की आशा है।

5) आशा व्यर्थ नहीं होती, क्योंकि ईश्वर ने हमें पवित्र आत्मा प्रदान किया है और उसके द्वारा ही ईश्वर का प्रेम हमारे हृदयों में उमड़ पड़ा है।

6) हम निस्सहाय ही थे, जब मसीह निर्धारित समय पर विधर्मियों के लिए मर गये।

7) धार्मिक मनुष्य के लिए शायद ही कोई अपने प्राण अर्पित करे। फिर भी हो सकता है कि भले मनुष्य के लिए कोई मरने को तैयार हो जाये,

8) किन्तु हम पापी ही थे, जब मसीह हमारे लिए मर गये थे। इस से ईश्वर ने हमारे प्रति अपने प्रेम का प्रमाण दिया है।


📙 सुसमाचार : योहन 4:5-42 अथवा 4:5-15,19-26, 39-42


5) वह समारिया के सुख़ार नामक नगर पहुँचे। यह उस भूमि के निकट है, जिसे याकूब ने अपने पुत्र यूसुफ़ को दिया था।

6) वहाँ याकूब का झरना है। ईसा यात्रा से थक गये थे, इसलिए वह झरने के पास बैठ गये। उस समय दोपहर हो चला था।

7) एक समारी स्त्री पानी भरने आयी। ईसा ने उस से कहा, "मुझे पानी पिला दो",

8) क्योंकि उनके शिष्य नगर में भोजन खरीदने गये थे। यहूदी लोग समारियों से कोई सम्बन्ध नहीं रखते।

9) इसलिए समारी स्त्री ने उन से कहा, "यह क्या कि आप यहूदी हो कर भी मुझ समारी स्त्री से पीने के लिए पानी माँगते हैं?"

10) ईसा ने उत्तर दिया, "यदि तुम ईश्वर का वरदान पहचानती और यह जानती कि वह कौन है, जो तुम से कहता है- मुझे पानी पिला दो, तो तुम उस से माँगती और और वह तुम्हें संजीवन जल देता"।

11) स्त्री ने उन से कहा, "महोदय! पानी खींचने के लिए आपके पास कुछ भी नहीं है और कुआँ गहरा है; तो आप को वह संजीवन जल कहाँ से मिलेगा?

12) क्या आप हमारे पिता याकूब से भी महान् हैं? उन्होंने हमें यह कुआँ दिया। वह स्वयं, उनके पुत्र और उनके पशु भी उस से पानी पीते थे।"

13) ईसा ने कहा, "जो यह पानी पीता है, उसे फिर प्यास लगेगी,

14) किन्तु जो मेरा दिया हुआ जल पीता है, उसे फिर कभी प्यास नहीं लगेगी। जो जल मैं उसे प्रदान करूँगा, वह उस में वह स्रोत बन जायेगा, जो अनन्त जीवन के लिए उमड़ता रहता है।“

15) इस पर स्त्री ने कहा, "महोदय! मुझे वह जल दीजिए, जिससे मुझे फिर प्यास न लगे और मुझे यहाँ पानी भरने नहीं आना पड़े"।

16) ईसा ने उस से कहा, "जा कर अपने पति को यहाँ बुला लाओ"।

17) स्त्री ने उत्तर दिया, "मेरा कोई पति नहीं नहीं है"। ईसा ने उस से कहा, "तुमने ठीक ही कहा कि मेरा कोई पति नहीं है।

18) तुम्हारे पाँच पति रह चुके हैं और जिसके साथ अभी रहती हो, वह तुम्हारा पति नहीं है। यह तुमने ठीक ही कहा।"

19) स्त्री ने उन से कहा, "महोदय! मैं समझ गयी- आप नबी हैं।

20) हमारे पुरखे इस पहाड़ पर आराधना करते थे और आप लोग कहते हैं कि येरूसालेम में आराधना करनी चाहिए।"

21) ईसा ने उस से कहा, "नारी ! मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह समय आ रहा है, जब तुम लोग न तो इस पहाड़ पर पिता की आराधना करोगे और न येरूसोलेम में ही।

22) तुम लोग जिसकी आराधना करते हो, उसे नहीं जानते। हम लोग जिसकी आराधना करते हैं, उसे जानते हैं, क्योंकि मुक्ति यहूदियों से ही प्रारम्भ होती हैं

23) परन्तु वह समय आ रहा है, आ ही गया है, जब सच्चे आराधक आत्मा और सच्चाई से पिता की आराधना करेंगे। पिता ऐसे ही आराधकों को चाहता है।

24) ईश्वर आत्मा है। उसके आराधकों को चाहिए कि वे आत्मा और सच्चाई से उसकी आराधना करें।"

25) स्त्री ने कहा, "मैं जानती हूँ कि मसीह, जो खीस्त कहलाते हैं, आने वाले हैं। जब वे आयेंगे, तो हमें सब कुछ बता देंगे।"

26) ईसा ने उस से कहा, "मैं, जो तुम से बोल रहा हूँ, वहीं हूँ"।

27) उसी समय शिष्य आ गये और उन्हें एक स्त्री के साथ बातें करते देख कर अचम्भे में पड़ गये; फिर भी किसी ने यह नहीं कहा, ‘इस से आप को क्या?’ अथवा ‘आप इस से क्यों बातें करते हैं?’

28) उस स्त्री ने अपना घड़ा वहीं छोड़ दिया और नगर जा कर लोगों से कहा,

29) "चलिए, एक मनुष्य को देखिए, जिसने मुझे वह सब जो मैंने किया, बता दिया है। कहीं वह मसीह तो नहीं हैं?"

30) इसलिए वे लोग नगर से निकल कर ईसा से मिलने आये।

31) इस बीच उनके शिष्य उन से यह कहते हुए अनुरोध करते रहे, "गुरुवर! खा लीखिए"।

32) उन्होंने उन से कहा, "खाने के लिए मेरे पास वह भोजन है, जिसके विषय में तुम लोग कुछ नहीं जानते"।

33) इस पर शिष्य आपस में बोले, "क्या कोई उनके लिए खाने को कुछ ले आया है?"

34) इस पर ईसा ने उन से कहा, "जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पर चलना और उसका कार्य पूरा करना, यही भेरा भोजन है।

35) "क्या तुम यह नहीं कहते कि अब कटनी के चार महीने रह गये हैं? परन्तु मैं तुम लोगों से कहता हूँ - आँखें उठा कर खेतों को देखो। वे कटनी के लिए पक चुके हैं।

36) अब तक लुनने वाला मजदूरी पाता और अनन्त जीवन के लिए फसल जमा करता है, जिससे बोने वाला और लुनने वाला, दोनों मिल कर आनन्द मनायें;

37) क्योंकि यहाँ यह कहावत ठीक उतरती है- एक बोता है और दूसरा लुनता है।

38) मैंने तुम लोगों को वह खेत लुनने भेजा, जिस में तुमने परिश्रम नहीं किया है- दूसरों ने परिश्रम किया और तुम्हें उनके परिश्रम का फल मिल रहा है।"

39) उस स्त्री ने कहा था- ‘उन्होंने मुझे वह सब, जो मैंने किया, बता दिया है-। इस कारण उस नगर के बहुत-से समारियों ने ईसा में विश्वास किया।

40) इसलिए जब वे उनके पास आये, तो उन्होंने अनुरोध किया कि आप हमारे यहाँ रहिए। वह दो दिन वहीं रहे।

41) बहुत-से अन्य लोगों ने उनका उपदेश सुन कर उन में विश्वास किया

42) और उस स्त्री से कहा, "अब हम तुम्हारे कहने के कारण ही विश्वास नहीं करते। हमने स्वयं सुन लिया है और हम जान गये है कि वह सचमुच संसार के मुक्तिदाता हैं।"


📚 मनन-चिंतन


प्यास लगने पर हम पानी का ढुढ़ते हैं, अगर प्यास तीव्र होती हैं तो एक बूँद पानी भी हमारी प्यास को राहत दे सकता है। जल हमारे जीवन से जुड़ा एक महत्तवपूर्ण तत्व हैं। बिन जल जीवन अंसभव हैं। मरूभूमि में इस्त्राएली लोग मूसा के विरूद्व भुनभुनानें लगे। यात्रा लम्बी थी और चारों ओर पानी नही था। प्रभु अपने लोगों के लिए पानी का प्रबंध करते हैं। वे चट्टान से पानी निकालकर लोगों को तृप्त करते हैं। प्रभु के लिए सब कुछ संभव हैं।

विश्वास के कारण लोग प्रभु की आखों मे प्रिय एवं धर्मी बन जातें हैं। ऐसे भी लोग हैं जो बिना देखे ही प्रभु के कार्यो पर विश्वास करते हैं। ऐसे लोगों के लिए प्रभु अनुगृह का द्वार खोल देते हैं। प्रभु येसु ने अपने प्राण अर्पित कर यह कार्य किया है। समारी स्त्री ने भी उस अनंत जीवन के जल को ढुढ़ लिया। उस स्त्री के विश्वास से उसे उस जल को ग्रहण करने का अनुग्रह प्राप्त हुआ। अपने विश्वास से वह अन्य लोगों को भी उस जल के पास ले आती हैं। प्रभु येसु स्वयं वह जल है, जिनके हृदय से वह अंनत जीवन की धारा फूट निकलती हैं। संत योहन 7:37-39 में हम पढ़ते हैं, “पर्व के अन्तिम और मुख्य दिन ईसा उठ खड़े हुए और उन्होंने पुकार कर कहा, "यदि कोई प्यासा हो, तो वह मेरे पास आये। जो मुझ में विश्वास करता है, वह अपनी प्यास बुझाये।" जैसा कि धर्म-ग्रन्थ में लिखा है- उसके अन्तस्तल से संजीवन जल की नदियाँ बह निकलेंगी। उन्होंने यह बात उस आत्मा के विषय में कही, जो उन में विश्वास करने वालों को प्राप्त होगा।” आईए, हम भी उसी झरने के पास जायें और अपनी प्यास बुझायें।




📚 REFLECTION

We look for water when we are thirsty. If the thirst is intense then even a drop of water can give relief to us. Water is an important element related to our life. Without water life is impossible. In the desert the Israelites grumbled against Moses. The journey was long and there was no water around. The Lord provides water for his people. He satisfies the people by providing them water from the rock. Everything is possible for the Lord.

By faith, people become dear and righteous in the eyes of the Lord. There are people who believe in the works of the Lord without seeing them. For such people the Lord opens the door of grace. Lord Jesus has done this work by sacrificing his life. The Samaritan woman also found that water of eternal life. By faith, that woman got the grace to accept that spring of water. By her faith, she also leads other people to that water. The Lord Jesus Himself is the water from whose heart springs the stream of eternal life. In Saint John 7:37-39 we read, “On the last and main day of the feast, Jesus stood up and cried out, “On the last day of the festival, the great day, while Jesus was standing there, he cried out, “Let anyone who is thirsty come to me, and let the one who believes in me drink. As the scripture has said, ‘Out of the believer’s heart shall flow rivers of living water.’” Come, let us also go to the same spring and quench our thirst.



📚 मनन-चिंतन -2

येसु का समारी स्त्री से वार्तालाप धनी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि से भरा है। यह घटना हमें सिखाती है जब हमारा जीवन येसु के संपर्क में आता है तो कितना चमत्कारिक परिवर्तन हो जाता है। समारी स्त्री अनेक प्रकार से एक दुखी महिला थी। वह समारी थी जो सामाजिक रूप से तुच्छ समझे जाते थे। वह पुरूष प्रधान समाज में स्त्री थी। इन सब से बढकर वह नैतिक रूप से संदेहात्मक चरित्र की महिला थी। इन सब नकारात्कम बातों के बावजूद भी वह एक ऐसी स्त्री के रूप में उभर कर सामने  है जो येसु को एक नबी तथा संसार में आने वाले मसीहा के रूप में पहचानती, स्वीकारती तथा दूसरों के सामने इसकी घोषणा करती है।

समारी स्त्री की इस विजय के पीछे का राज है उसकी अपने जीवन के अंर्ततम में झांकने की शक्ति एवं योग्यता। स्त्री ने बिना किसी झिझक के साथ येसु से अपने जीवन के बारे में बात की तथा सच्चाई को बताया तथा जो येसु ने उसे बताया उसे स्वीकारा। उसके इस खुलेपन तथा ईमानदारी के कारण येसु उसके जीवन को बदल देते हैं।

चालीसे का काल समारी स्त्री के समान अपने अंर्तत्तम में झांकने का समय है। हमें भी समारी स्त्री के समान अपने जीवन के अंधकारमय पहलुओं को येसु के सामने प्रकट करना चाहिये जिससे वे हमारे जीवन को बदल सके। यदि हम ऐसा कर सकेंगे तो अवश्य ही यह काल हमारे लिये फलदायक सिद्ध होगा।



📚 REFLECTION

Jesus’ encounter with the Samaritan woman is rich with spiritual insights. It tells us what wonders Jesus can do when we come in touch with him. The Samaritan woman on many accounts was the woman in distress. She was a Samaritan- a social outcast, she was a woman in male dominated society and moreover she was a woman of dubious moral character. Inspite of all these negative points against her she ends up as someone who recognizes Jesus as a prophet and the Messiah.

The reason for her triumph is her ability to introspect her life in the light Jesus. When Jesus asks her about her personal life, an area which normal people would not like to talk to strangers, she shows boldness and confidence in Jesus. She shows openness to be corrected by Jesus and be changed. And once she did that Jesus was able change her life. From an outcast personality she becomes a missionary who brings people to Jesus. She teaches that to be an effective evangelizer we need to first meet Jesus in our personal life.

The season of Lent is a time where God invites to introspect our life and bring out the dark area to him and confess our weakness and sinfulness. If we take courage and open ourselves to him than our life story too will be changed in and through Jesus.



प्रवचन - 01

संवाद या बातचीत रिश्ते बनाने तथा उन्हें बनाये रखने में बहुत ही महत्वपूर्व भूमिका निभाता है। संवाद के द्वारा हम लोगों तक पहुँच सकते हैं, उनकी भावनाओं तथा मनस्थिति को समझ सकते हैं। हम अपने जीवन में निरंतर लोगों से संवाद करते हैं।

हम किन लोगों से बात करते हैं? हम ज्यादात्तर परिस्थितियों में केवल उन्हीं लोगों से बातचीत करते हैं जिन्हें हम जानते एवं पसंद करते हैं। हम लोगों से सकारात्मक प्रतिक्रिया की आशा रखकर भी संवाद स्थापित करने की कोशिश करते हैं। किन्तु अनजान, बदनाम, फालतू लोगों से हम दूरी ही बनाये रखते हैं। जब हमें लोगों से कोई लाभ की आशा नहीं होती तो हम ज्यादा उनके बारे में सोचते भी नहीं है। येसु का समारी स्त्री के साथ संवाद ईश्वर के स्वाभाव को समझने में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इस संवाद के द्वारा येसु न सिर्फ समारी स्त्री को बल्कि सारी मानवजाति को सिखाते हैं कि ईश्वर स्वयं ही कैसे सब की सुधि लेता है, चाहे वे कितने ही बदनाम, भूले-बिसरे या दयनीय क्यों न हो।

यहूदी लोग समारियों से कोई भी संबंध नहीं रखते थे। इसका कारण उनकी धार्मिक, सामाजिक तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी। इसके अलावा अनजानी महिलाओं से सार्वजनिक स्थलों पर बातचीत करना भी सामाजिक रूप से वर्जित था। स्थिति और भी अधिक गंभीर बन जाती है जब इसके अलावा वह स्त्री अकेली तथा बदनाम भी हो। येसु इस सब बातों से परिचित थे कि वह स्त्री समारी थी, अकेली ही सार्वजनिक जगह पर थी तथा संदेहात्मक चरित्र की थी। इस सब के बावजूद भी येसु उससे संवाद करने की पहल करते हैं। जब स्त्री कोई रूचि नहीं दिखाती तो येसु उसे बातों में लगाये रखने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु समारी स्त्री निरंतर संवाद की दिशा को भटकाने का प्रयास करती है। लेकिन येसु जो उसका उद्धार करना चाहते थे इस संवाद को रचनात्मक बनाये रखने का प्रयास करते हैं। येसु उसे सहज महसूस करने हेतु अनेक बातें करते हुये उसे उसके जीवन के उस पहलू को बताते हैं जिससे उसका जीवन परिवर्तित हो जाता है। अंत में जब वह येसु को मसीह के रूप में पहचान लेती है तो आसपास के अनेक लोगों को येसु के बारे में बताती तथा उन्हें येसु के पास लाती है।

संवाद दूसरों के प्रति हमारी रूचि तथा रिश्ते की गहरायी को दर्शाता है। जिन लोगों को हम खोना नहीं चाहते हम उनसे लगातार संपर्क तथा संवाद बनाये रखना चाहते हैं। ईश्वर भी हम में रूचि लेते तथा हमें खोना नहीं चाहते हैं। यह ईश्वर का स्वाभाव है कि वह निरंतर हमसे संपर्क एवं संवाद बनाने की कोशिश करते हैं। आदम और हेवा वाटिका में ईश्वर की उपस्थिति में रहते थे। किन्तु जब उन्होंने पाप किया तो वे छिप गये। ईश्वर ऐसी स्थिति में भी उनसे बात करते जाते हैं। वे आदम को पुकारते हुये पूछते हैं, ’’तुम कहॉ हो?’’ (उत्पत्ति 3:8) ईश्वर जानते थे कि आदम ने क्या किया तथा वह कहॉ है किन्तु ईश्वर आदम को यह महसूस करवाना चाहते थे कि वह पाप के द्वारा कहॉ पहुँच गया है। ईश्वर उसे उसकी स्थिति से अवगत कराना चाहते थे। आदम और हेवा के साथ लम्बे संवाद के दौरान ईश्वर उन्हें आने वाले कठिन जीवन तथा परिस्थितियों से अवगत कराते हैं। वे उन्हें वाटिका से निकालते तो हैं किन्तु उन्हें त्यागते नहीं हैं। वे उनकी नग्नता को ढांकते हैं, ’’प्रभु-ईश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिये खाल के कपडे बनाये और उन्हें पहनाया’’ (उत्पति 3:21)

इस प्रकार का संवाद प्रभु-ईश्वर काइन के साथ भी करते हैं। जब काइन अपने भाई हाबिल के प्रति ईर्ष्यालु बन जाता है तो ईश्वर उसे आगामी परिणाम से सचेत करते हैं। किन्तु काइन ईश्वर की वाणी पर ध्यान नहीं देता और अपने भाई की हत्या कर देता है। इसके बावजूद भी प्रभु-ईश्वर काइन से बात करने आते हैं तथा पूछते हैं, ’’तुम्हारा भाई हाबिल कहॉ है?’’ (उत्पत्ति 4:9) प्रभु-ईश्वर तो जानते थे कि काइन ने क्या किया है किन्तु वे चाहते हैं कि काइन इस बात को महसूस करे कि उसका भाई अब जीवित नहीं हैं। काइन को उसकी पापमय परिस्थिति से अवगत कराकर ईश्वर उसे रक्षा का चिन्ह प्रदान करते हैं, ’’जो काइन का वध करेगा, उस से इसका सात गुना बदला लिया जायेगा।’’ कहीं ऐसा न हो कि काइन से भेंट होने पर कोई उसका वध करे, इसलिये प्रभु ने काइन पर एक चिन्ह अंकित किया।’’ (उत्पति 4:15)

समारी स्त्री इस सांसारिक जीवन के सुख की खोज में थी। इसी खुशी को पाने में उसने कई बार विवाह किया। कोई साधारणः इतनी बार विवाह नहीं करता है। इस कारण यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है उस स्त्री में नैतिकता का अभाव था या वह मानवीय भोगविलास में जीवन का अर्थ ढूँढ रही थी। येसु जब समारी स्त्री से कहते हैं, ’’जाकर अपने पति को यहॉ बुला लाओ।’’ (योहन 4:16) तो येसु उससे उसके जीवन में झांकने के लिये कहते हैं मानो कि वे उससे पूछ रहे हो ’तुम्हारे कितने पति हैं?’ इसके प्रतिउत्तर में समारी स्त्री चलाकी से न तो सम्पूर्ण सच बोलती है और न तकनीकी रूप से झूठ। वह इतना की कहती है, ’’मेरा कोई पति नहीं है’’। येसु उसके उत्तर की सराहना करते हैं, ’’तुमने ठीक ही कहा कि मेरा कोई पति नहीं है’’ (योहन 4:17) तथा उसके अंदर छिपे अंधकारमय भाग को प्रकाश में लाते हुये कहते हैं, ’’तुम्हारे पॉच पति रह चुके हैं और जिसके साथ अभी रहती हो, वह तुम्हारा पति नहीं हैं।’’ (योहन 4:18) येसु जब उसे उसके जीवन से जुडी इस सच्चाई को बताते है वह जान जाती है कि येसु कोई साधारण मनुष्य नहीं, बल्कि नबी है।

ईश्वर जब बात करते हैं तो वह एक सार्थक एवं उद्देश्यपूर्ण संवाद होता है। ईश्वर हमारी भलाई तथा उद्धार के लिये हमारे जीवन के पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं जिससे हम ईश्वर की वाणी के प्रकाश में स्वयं के जीवन को समझे तथा आवश्यक सुधार लाये तथा इन सबसे ऊपर ईश्वर को पहचाने।



प्रवचन - 02

कुछ वर्ष पहले Hurricane Andrew तुफान दक्षिणी फ्लोरिडा का सर्वनाश कर दिया था। ऊॅंचे-ऊॅंचे मकाने समतल हो गये थे। पेड़-पौधे उखड़ गये थे। मानवीय जीवन बुरी तरह तहस-नहस व अस्तव्यस्त हो गया था। इस बिगड़ी हुई हालात से उभरने के लिए नेशनल गार्ड को बुलाया गया। अतः नेशनल गार्ड को खोयी हुई प्रकृतिक सादृश्य को पुनःस्थापित करना था। साथ-ही-साथ तात्कालिक मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति भी कराना था। सर्वप्रथम गार्डों ने उन लोगों के बीच स्वच्छ पेय जल उपलब्ध कराया जिनका जीवन तुफान व पानी से तबाही हो गयी थी। हर प्रकार के आभाव व नुकसान के मघ्य लोगों को जीवित व स्वस्थ्य रखने के लिए स्वच्छ पेयजल की नितान्त आवश्यकता थी। कल्पना कीजिए एक नेशनल गार्ड के आदमी स्वच्छ पेयजल की टंकी-ट्रक के बगल में खडे़ अन्डरू तुफान के शिकार लोगों के लिए स्वच्छ पेयजल का वितरण कर रहे हैं।

हाल ही में इसी प्रकार की घटना का दृश्य रवानडा में देखने को मिला था जहॉं हजारों-लाखों लोग हैजा से मर गये जबतक कि सयुक्त राष्ट्र, अमेरिका एवं अन्य देशों को एक साथ लाकर स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था नहीं किया गया। अतः यह उन तमाम मरते लोगों के लिए संजीवन जल प्रदान किया।

क्या हम येसु के पास जाते हैं जो हमारे एक मात्र प्यास बुझाने वाले हैं जो हममें स्रोत बन अनन्त जीवन के लिए उमड़ता रहेगा?

आज के पाठों के विषय-वस्तु के रूप में प्रतिकात्मक पानी प्रबल होता नज़र आता है। पर यदि हम इन पर गहराई से मनन्‍-चिन्तन करेंगे तो ये ईश्वर प्रदत विश्वास रूपी वरदान पर हमारी समझ से संबंधित है। प्रथम पाठ में जो कि निर्गमन-ग्रन्थ से लिया गया है, इस्राएली लोग मरूभूमि में पानी के प्यास से हैरान व परेशान हैं। वे पानी के लिए रो रहे हैं। जब इस्राएली जनता का ईश्वर पर से भरोसा टूट रहा होता है तब मुसा ईश्वर के इस्राएली जनता को बचाने के सार्मथ्य पर विश्वास करता है। अब इस्राएली जनता का विश्वास घट रहा है, उन्हें संदेह होने लगा है कि ईश्वर ही ने उन्हें मिश्र देश से छुड़ाया। तो अब ईश्वर कहॉं हैं? जब इस्राइएली जनता ईश्वर की उपस्थिति को चुनौती देती है तो मूसा ईश्वर से दुहाई करता है। वह प्रार्थना करता है कि ईश्वर उनके लिए कुछ करे। तब ईश्वर होरेब पर्वत की एक चट्टान पर डण्डे से प्रहार करने की बात कहता है। मूसा ईश्वर पर विश्वास करते हुए उसके मार्गदर्शन के अनुसार चलता है। वह डण्डे से चट्टान पर प्रहार करता है। डण्डे से चट्टान पर प्रहार करते ही जल बह लिकता है। इस प्रकार ईश्वर की उपस्थिति प्रमाणित हो जाती है। इस्राएली जानता ने विश्वास किया कि ईश्वर ने उन्हें मरूभूमि में नहीं छोड़ा है वल्कि वह उनके साथ है।

आज का सुसमाचार भी एक तरह से प्रथम पाठ के भॉंति ही है जिसमें येसु एक समारी स्त्री को संजीवन जल प्रदान करने का वादा करते हैं जो स्रोत बन अनन्त जीवन के लिए उमड़ता रहेगा। येसु व समारी स्त्री दोनों ही प्यासे है। यह विदित होता है कि येसु व उनके शिष्य सुबह ही निकल पड़े है। दोपहर का समय है। प्यास लगना उचित ही है। अतः दोनों प्यासों की मुलाकात कुए के पास होती है। वास्तव में कुए के पास लोग न सिर्फ पानी भरने आते थे अपितु एक दूसरे के साथ भेट-मुलाकात के लिए भी आते थे। इस तरह से कई बातों की चर्चायें कुए के पास होती थी। अतः येसु की समारी स्त्री से मुलाकात कोई इत्ताफाक नहीं बल्कि योजनाबद्ध है। पर इसमें कोई शक नहीं कि दोनों प्यासे हैं। प्रारम्भिक तौर पर पता चलता है कि दोनों पानी के प्यासे हैं। पर यदि हम गहराई से जाएं तो हम पायेंगे कि उनका प्यास कुछ और है।

उनकी वर्तालाप की शुरूआत येसु के पानी माँगने से होती है। येसु समारिया शहर के एक कुऑं के पास आये और थोड़ी राहत पाने के लिए रूक गये। दोपहर के समय उस शहर की एक स्त्री पानी भरने आयी। येसु को प्यास लगी थी और उसके पास कुछ भी नहीं था जिससे वह स्वेच्छा से पानी भर कर पी सके। जबकि समारी स्त्री के पास पानी भरने के लिए बाल्टी व रस्सी था। अतः यह स्वाभाविक है कि येसु उसे पानी मांगता है। यह शिष्टता की बात होती अगर दोनों एक दूसरे की उपेक्षा करते। क्योंकि येसु एक यहुदी था और वह एक समारी। यहुदी और समारी आपस में मिलते-जुलते नहीं थे। दोनों ही एक दूसरे से नफरत और घृणा करते थे। कोई आदमी इस कदर किसी औरत से खुले आम बात नहीं कर सकता था। कुऑं के पास किसी से बाते करना तो और ही बड़ी बात थी। येसु प्यासा था और उसे पानी मांगने के अलावा कोई दूसरा साधन नहीं था। इसलिए उसने उससे पानी मांगा। यह सामाजिक तौर पर स्वीकार्य नहीं था। समारी स्त्री ने येसु को इस बात की याद दिलायी। पर येसु जाति व धर्म की जो धारणा थी उसके परे गये। येसु स्त्री-पुरूष के घेरा के पार गये। येसु ने अपमान और अपराध की कदर नहीं की। वह अच्छाई और बुराई के परे गया और येसु ने उस समारी स्त्री से पानी मांगा। दोपहर की गर्मी, बेशक येसु को प्यास लगी थी। पर इससे भी बढ़कर येसु के उस स्त्री की विश्वास व मुक्ति के प्यास गहरी थी।

येसु की तरह वह समारी स्त्री भी प्यासी थी। तभी तो वह पानी भरने आयी थी। लेकिन उसकी प्यास पानी से बढ़कर कुछ और के लिए थी जिसे येसु को समझ में आ गया था। उसे भावनाओं एवं संबंधों के अस्तव्यस्ता एवं हलचल से शांति चाहिए थी। उसे क्षमा चाहिए थी। उसे उस अपमानजनक स्थिति से जिसमें वह जी रही थी छुटकारा चाहिए था। उसे प्रेम चाहिए था जिसकी तलाश में वह पॉंच बार असफल हुयी थी। उसे किसी की जरूरत थी जिस पर वह भरोसा और विश्वास करे। उनकी वर्तालाप साधारण पानी से अनन्त जीवन के लिए उमड़ता पानी तक पहुँच गया। इस प्रकार उस स्त्री ने येसु को सर्वप्रथम एक यहुदी, फिर एक नबी, और अनन्तः एक मसीहा व मुक्तिदाता के रूप में पहंचाना।

वह सच्चे संबन्ध की प्यासी थी। बहिष्कृत समारियों के बीच वह एक बाहरी व्यक्ति के समान थी। वह लोगों के बीच बदनाम थी। उसके पॉंच पती रह चुके है। अब जिसके साथ थी वह उसका पती नहीं था। वह बारंबार इस्तेमाल की गयी और छोड़ी गयी थी।

वह ईश्वर के लिए भी प्यासी थी। जैसी ही उसे यह महसूस हुआ कि येसु एक साधारण यहुदी से बढ़कर हैं तो उसने अप्रत्यक्ष रूप से पूछा-’’ईश्वर कहॉं पाया जा सकता है?’’ येसु आत्मा और सच्चाई से पिता की आराधना करने की बात कहते हैं। इस प्रकार येसु ने उसकी हर प्यास को बुझाया। जैसे ही समारी स्त्री को यह एहसास हुआ कि येसु ही मसीहा हैं वह सबकुछ छोड़कर शहर की ओर, मसीहा के बारे बताने चली गयी। आश्चर्य की बात ये रही होगी कि ये वही लोग थे जो इनसे दूर रहना चाहते थे, जिन्होंने इसके साथ दुर्व्यवहार किया होगा, कुछ लोग उनके पती रहे होगें, किसी से उसका नजैयज संबन्ध रहा होगा। निःसदेह किसी-किसी ने इसपर विश्वास कर येसु से मिलने आये। वे येसु के पास आये क्योंकि वे प्यासे थे। येसु ने उनकी प्यास बुझाई।

इस्राएली जानता प्यासी थी। येसु व समारी स्त्री प्यासे थे। समारी शहर के लोग प्यासे थे। हम भी प्यासे हैं। दुनिया के अन्य लोग भी प्यासे हैं। पर प्रश्न उठता है कि हम किस चीज के प्यासे है? अनन्त जीवन के, भौतिक वस्तुओं के, शारीरिक आवश्यकताओं के, सत्ता व अधिकार के? आवश्यकता है हमें अपनी प्यास को जानकर येसु के पास आने की। येसु ही हमारी प्यास बुझा सकते हैं।



 -Biniush Topno


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Praise the Lord!