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25 सितंबर 2022 वर्ष का छ्ब्बीसवाँ इतवार

वर्ष का छ्ब्बीसवाँ इतवार



📒 पहला पाठ : आमोस 6:1,4-7


1) "धिक्कार उन लोगों को, जो सियोन में भोग-विलास का जीवन बितातें हैं! धिक्कार उन्हें, जो समारिया के पर्वत पर अपने को सुरक्षित समझते हैं! तुम, उत्तम राष्ट्र के गण्यमान्य नेताओ! तुम्हारे ही पास इस्त्राएली जनता न्याय के लिए आती है।

2) कलने जा कर देखो तो सही, और फिर वहाँ से महानगर हमात भी चले जाओ; उसके बाद फिलिस्तियों के गत नगर भी जा कर देखो। क्या तुम इन राज्यों से श्रेष्ठतर हो? क्या तुम्हारा देश इनके देश के बड़ा है?

3) अरे, तुम दुर्दिन टालना चाहते हो; टालना तो दूर रहे, तुम हिंसा का शासन समीप ला रहे हो।

4) वे हाथीदांत के पलंगो पर सोते और आराम-कुर्सियों पर पैर फैलाये पडे रहते हैं। वे झुण्ड के मेमरे और बाड़े के बछड़े चट कर जाते हैं।

5) वे सारंगी की ध्वनि पर ऊँचे स्वर में गाते और दाऊद की तरह नये वाद्यों का आविष्कार करते हैं।

6) वे प्याले-पर-प्याला मदिरा पीते और उत्तम सुगन्धित तेल से अपने शरीर का विलेपन करते हैं; किन्तु उन्हें यूसुफ़ के विनाश की चिंता नहीं है।

7) इसलिए उन्हें सब से पहले निर्वासित किया जायेगा।" और उनके भोग-विलास का अन्त हो जायेगा।"



📒 दूसरा पाठ : 1तिमथि 6:11-16


11) ईश्वर का सेवक होने के नाते तुम इन सब बातों से अलग रह कर धार्मिकता, भक्ति, विश्वास, प्रेम, धैर्य तथा विनम्रता की साधना करो।

12) विश्वास के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहो और उस अनन्त जीवन पर अधिकार प्राप्त करो, जिसके लिए तुम बुलाये गये हो और जिसके विषय में तुमने बहुत से लोगों के सामने अपने विश्वास का उत्तम साक्ष्य दिया।

13) ईश्वर जो सब को जीवन प्रदान करता है और ईसा मसीह, जिन्होंने पोंतियुस पिलातुस के सम्मुख अपना उत्तम साक्ष्य दिया, दोनों को साक्षी बना कर मैं तुम को यह आदेश देता हूँ।

14) कि हमारे प्रभु ईसा मसीह की अभिव्यक्ति के दिन तक अपना धर्म निष्कलंक तथा निर्दोष बनाये रखो।

15) यह अभिव्यक्ति यथासमय परमधन्य तथा एक मात्र अधीश्वर के द्वारा हो जायेगी। वह राजाओं का राजा और प्रभुओं का प्रभु है,

16) जो अमरता का एकमात्र स्रोत है, जो अगम्य ज्योति में निवास करता है, जिसे न तो किसी मनुष्य ने कभी देखा है और न कोई देख सकता है। उसे सम्मान तथा अनन्त काल तक बना रहने वाला सामर्थ्य! आमेन!


📒 सुसमाचार : सन्त लूकस 16:19-31


19) "एक अमीर था, जो बैंगनी वस्त्र और मलमल पहन कर प्रतिदिन दावत उड़ाया करता था।

20) उसके फाटक पर लाज़रूस नामक कंगाल पड़ा रहता था, जिसका शरीर फोड़ों से भरा हुआ था।

21) वह अमीर की मेज़ की जूठन से अपनी भूख मिटाने के लिए तरसता था और कुत्ते आ कर उसके फोड़े चाटा करते थे।

22) वह कंगाल एक दिन मर गया और स्वर्गदूतों ने उसे ले जा कर इब्राहीम की गोद में रख दिया। अमीर भी मरा और दफ़नाया गया।

23) उसने अधोलोक में यन्त्रणाएँ सहते हुए अपनी आँखें ऊपर उठा कर दूर ही से इब्राहीम को देखा और उसकी गोद में लाज़रूस को भी।

24) उसने पुकार कर कहा, ‘पिता इब्राहीम! मुझ पर दया कीजिए और लाज़रुस को भेजिए, जिससे वह अपनी उँगली का सिरा पानी में भिगो कर मेरी जीभ ठंडी करे, क्योंकि मैं इस ज्वाला में तड़प रहा हूँ’।

25) इब्राहीम ने उस से कहा, ‘बेटा, याद करो कि तुम्हें जीवन में सुख-ही-सुख मिला था और लाज़रुस को दुःख-ही-दुःख। अब उसे यहाँ सान्त्वना मिल रही है और तुम्हें यन्त्रणा।

26) इसके अतिरिक्त हमारे और तुम्हारे बीच एक भारी गत्र्त अवस्थित है; इसलिए यदि कोई तुम्हारे पास जाना भी चाहे, तो वह नहीं जा सकता और कोई भ़ी वहाँ से इस पार नहीं आ सकता।’

27) उसने उत्तर दिया, ’पिता! आप से एक निवेदन है। आप लाज़रुस को मेरे पिता के घर भेजिए,

28) क्योंकि मेरे पाँच भाई हैं। लाज़रुस उन्हें चेतावनी दे। कहीं ऐसा न हो कि वे भी यन्त्रणा के इस स्थान में आ जायें।’

29) इब्राहीम ने उस से कहा, ‘मूसा और नबियों की पुस्तकें उनके पास है, वे उनकी सुनें‘।

30) अमीर ने कहा, ‘पिता इब्राहीम! वे कहाँ सुनते हैं! परन्तु यदि मुरदों में से कोई उनके पास जाये, तो वे पश्चात्ताप करेंगे।’

31) पर इब्राहीम ने उस से कहा, ‘जब वे मूसा और नबियों की नहीं सुनते, तब यदि मुरदों में से कोई जी उठे, तो वे उसकी बात भी नहीं मानेंगे’।’



📚 मनन-चिंतन


हमारा समय, ध्यान और दिल किन बातो के बारे में सबसे ज्यादा सोचता है? लाजरूस और अमीर आदमी के दृष्टांत में येसु ने जीवन के दर्दनाक, नाटकीय पहलुओं और इसके विरोधाभासों को इंगित किया है - धन और गरीबी, स्वर्ग और नरक, करुणा और उदासीनता, समावेश और बहिष्कार।

इन दोनों के जीवन में अचानक और नाटकीय उलटफेर भी होता है। लाजरूस न केवल गरीब था बल्कि अक्षम भी था। ऐसा कहा जाता है कि उन्हें अमीर आदमी के घर के द्वार पर "लेटा" दिया जाता था। जो कुत्ते उसके घावों को चाटते थे, वे शायद अपने लिए मिली छोटी-सी रोटी भी उससे छीन कर खा लेते थे। वह बहुत ही दयनीय जीवन व्यतीत कर रहा था। अमीर आदमी का भिखारी के प्रति रवैया तब तक उदासीन रहा जब तक कि उसने अपनी किस्मत को उलट नहीं पाया! दुर्भाग्य और पीड़ा के जीवन के बावजूद, लाजरूस ने परमेश्वर में आशा नहीं खोई। उसकी नज़र स्वर्ग में उसके लिए जमा किए गए ख़ज़ाने पर टिकी थी। हालाँकि, धनी व्यक्ति अपने सांसारिक खजाने से आगे नहीं देख सकता था। उसके पास न केवल वह सब कुछ था जिसकी उसे आवश्यकता थी, बल्कि वह अपने एशो आराम में भी लिप्त था। वह अपनी विलासिता की पार्टियों में इतना अधिक व्यस्त था कि उसने अपने आसपास के लोगों की जरूरतों पर कभी ध्यान नहीं दिया। उसने ईश्वर और स्वर्ग के खजाने पर से अपनी दृष्टि खो दी क्योंकि वह भौतिक चीजों में खुशी तलाशने में व्यस्त था। उसने ईश्वर के बजाय धन की सेवा की। आखिर में अमीर भिखारी बन गया ! क्या हम ईश्वर को अपने एकमात्र खजाने के रूप में रखने के आनंद और स्वतंत्रता को जानते हैं? भला प्रभु उनके लिए और उनकी खुशी के तरीकों के लिए हमारी भूख को बढ़ाए। वह हमें स्वर्ग की वस्तुओं में धनी बना दे और हमें एक उदार हृदय प्रदान करे कि हम उस खजाने को दूसरों के साथ स्वतंत्र रूप से साझा कर सकें जो उसने हमें दिया है।




📚 REFLECTION


What most occupies our time, attention, and our heart? In the parable of Lazarus and the rich man Jesus points out painful yet dramatic aspects of life and its contrasts -- riches and poverty, heaven and hell, compassion and indifference, inclusion and exclusion.

There also comes an abrupt and dramatic reversal of fortune. Lazarus was not only poor but incapacitated. It is said that he was "laid" at the gates of the rich man's house. The dogs which licked his sores probably also stole the little bread he got for himself. He was living in a very miserable state of life. The rich man’s attitude towards the beggar was indifferent until he found his fortunes reversed! Despite a life of misfortune and suffering, Lazarus did not lose hope in God. His eyes were set on a treasure stored up for him in heaven. The rich man, however, could not see beyond his material treasure. He not only had everything he needed, but he also indulged in his wealth. He was too much preoccupied with his pleasure parties that he never noticed the needs of those around him. He lost sight of God and the treasure of heaven because he was preoccupied with seeking happiness in material things. He served wealth rather than God. In the end, the rich man became a beggar! Do we know the joy and freedom of possessing God as our only treasure? May the good Lord increase our hunger for him and for his ways of happiness. May he make us rich in the things of heaven and give us a generous heart that we may freely share with others the treasure he has given to us



📚 मनन-चिंतन-2


इस दुनिया में हमारा जीवन 70 या 80 साल का होता है (देखें स्तोत्र 90:10)। अगर कोई 100 वर्ष पार करता है तो हम उसे आश्चर्यजनक मानते हैं। पवित्र ग्रन्थ कहता है, “यदि मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष है, तो वह बहुत मानी जाती है; किन्तु अनन्त काल की तुलना में ये थोड़े वर्ष समुद्र में बूँद की तरह, रेतकण की तरह हैं” (प्रवक्ता 18:8)। इस दुनिया में हमारे जीवन-काल की तुलना परलोक में हमारे जीवन-काल से करते हुए पवित्र वचन हमें बताता है कि परलोक में हमारा जीवन-काल समुद्र के समान है जबकि इस दुनिया में हमारा जीवन-काल पानी की एक बूँद के समान है। गौरतलब है, हमें परलोक के जीवन पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए। इस दुनिया में हमारा जीवन-काल परलोक के जीवन की तैयारी का समय है। इसलिए हमें सतर्कता तथा ईमानदारी से परलोक के जीवन की तैयारी करनी चाहिए। अमीर और लाज़रूस के दृष्टान्त में अमीर व्यक्ति इस लोक में रहते समय बैंगनी व मलमल के वस्त्र, स्वादिष्ट भोजन, विशाल तथा सुन्दर घर और अपने मनोरंजन पर ध्यान देते हुए एक आलीशान ज़िन्दगी बिताता है। वह परलोक को भूल कर इस दुनिया की सुख-सुविधाओं पर ही ध्यान देता है। उसे मार्गदर्शन देने के लिए पवित्र ग्रन्थ भी उपल्ब्ध था, परन्तु उसने उस पर भी ध्यान नहीं दिया। मरने के बाद ही उसे अपनी बेवकूफ़ी का एहसास हुआ, तब तक तो वह अस्सहाय बन जाता है। वह न तो अपनी और न ही अपनों की मदद कर पाता है। इस लोक में रहते समय परलोक के जीवन के लिए तैयारी करना ही समझदारी है।




Our life-span is 70 to 80 years (cf. Ps 90:10). If, by chance, we cross 100 years, it is considered as something amazing. The Word of God tells us, “The number of a man’s days is great if he reaches a hundred years. Like a drop of water from the sea and a grain of sand so are a few years in the day of eternity” (Sir 18:9-10). Our eternal life-span is compared to an ocean while our earthly life-span is like a drop of water. In the parable of the rich man and Lazarus (Lk 16:19-31), we find the rich man caring for sumptuous meals, luxurious clothing and material pleasures and he is thus engrossed in this world losing sight of the eternal life. He has the Scriptures to guide him to his destination, but he does not bother to pay attention to the guidance given by the Word of God. Only after his death his folly is revealed and he realizes that he has caused irreparable damage to himself. Now, he is not able to rectify the situation, nor is he capable of coming to the aid of those whom he loves. The wisdom of the Word of God reminds us to be wise while living in the world and prepare for the life to come.



📚 प्रवचन


पवित्र बाइबिल में उपस्थित चारों पवित्र सुसमाचार ही अनौखे हैं| प्रत्येक सुसमाचार की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं| सन्त लूकस के अनुसार सुसमाचार में हमें कुछ ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं जो दूसरे सुसमाचारों में नहीं मिलते| उन्हीं में से एक है धनी व्यक्ति और दरिद्र लाजरुस का दृष्टान्त| यह दृष्टान्त विभिन्न संदेशों से भरा हुआ है| इस दृष्टान्त का प्रत्येक पात्र, प्रत्येक घटना, प्रत्येक दृश्य बहुत कुछ सन्देश देता है| पिछले रविवार को हमने प्रभु येसु के इन शब्दों पर मनन-चिंतन किया था कि झूठे धन से अपने लिये मित्र बना लो ताकि वे परलोक में तुम्हारा स्वागत करें| हममें से किसी ने भी परलोक के दर्शन नहीं किये हैं, क्योंकि जो परलोक जाता है वह वापस लौटकर नहीं आता, लेकिन प्रभु येसु हमें उस लोक की झलक दिखाते हैं| आज के सुसमाचार से हमें पता चलता है कि ईश्वर सबका हिसाब चुकाते हैं| आईये आज के इस दृष्टान्त को एवं उसके सन्देश को हम गहराई से समझें|

यह दृष्टान्त एक अमीर व्यक्ति के उल्लेख से शुरू होता है जो बैंगनी वस्त्र और मलमल पहनकर प्रतिदिन दावत बुलाया करता था| बैंगनी वस्त्र शाही अंदाज़ को बयाँ करता है| जब सैनिक लोग प्रभु येसु को राजा बनाकर उनका उपहास करते थे तो उन्हें बैंगनी वस्त्र पहना देते थे| (मारकुस 15:17)| यह बैंगनी वस्त्र कोई साधारण लोगों का वस्त्र नहीं था| सामान्य लोग सस्ते, सूती वस्त्र पहनते थे, लेकिन जो महँगे वस्त्र खरीद सकते थे, वे ही बैंगनी और मलमल के कपड़े पहनते थे| यानि कि वह व्यक्ति बहुत धनी था, क्योंकि वह प्रतिदिन दावत बुलाया करता था| आश्चर्यजनक बात यह है कि उस धनी व्यक्ति का कोई नाम तक नहीं बताया गया है जबकि पवित्र बाइबिल के अनुसार किसी के नाम का बहुत महत्व है| इस व्यक्ति का नाम शायद इसलिए नहीं बताया गया कि स्वर्ग में नामी-गिरामी लोग भी गुमनाम हो जाते हैं, और पृथ्वी पर गुमनाम लोग भी स्वर्ग में नामी-गिरामी लोग हो जाते हैं|

इस कहानी का दूसरा पात्र लाज़रुस नामक कंगाल व्यक्ति है जो उस धनी व्यक्ति के फाटक पर पड़ा रहता था| एक कंगाल का नाम बताया गया है लेकिन एक धनी का नाम तक कोई मायने नहीं रखता| वह कंगाल भूख से तडपता था, फोड़ों के कारण कष्ट में था, और कुत्ते उसके घावों को चाटते थे, यानि कि वे घाव सूखकर भरने, या ठीक होने की बजाय हमेशा ताज़ा बने रहते थे, और उसका दर्द कभी कम नहीं होता था| वहीँ दूसरी ओर धनी व्यक्ति के साथ एकदम उल्टा था, वह रोज दावत उड़ाया करता था, उसके शरीर को अपार सुख था, कोई चिंता, दुःख या परेशानी नहीं थी| ना लाज़रुस को उससे कोई शिकायत थी और न उसे लाज़रुस से कोई लेना-देना बल्कि वह तो उस कंगाल को अपने फाटक पर पड़े रहने देता था| लेकिन जब दोनों परलोक जाते हैं, तो लाज़रुस को आराम मिलता है और धनी को कष्ट| आखिर लाज़रुस को किस कारण पिता इब्राहीम की गोद में बैठने का सौभाग्य मिला और धनी व्यक्ति को किस बात की सज़ा मिली?

पवित्र कलीसिया हमें सिखाती है कि पाप के अनेक प्रकारों में से दो प्रकार ये भी हैं – हमारे आचरण से होने वाले पाप और हमारे अनाचरण से होने वाले पाप (Sins of commission and sins of omission)| यानि कि एक वे पाप जो हमारे कुछ गलत करने के कारण होते हैं और दूसरे वे पाप जो हमारे कुछ भला नहीं करने के कारण होते हैं| हमें न केवल अपने आप को गलत करने से रोकना है बल्कि हमें भला भी करते रहना है| कभी-कभी हम सोचते हैं कि हम तो कुछ गलत नहीं कर रहे इसलिए ईश्वर हमें दण्ड नहीं देंगे। लेकिन हम भूल जाते हैं कि हमें जो भला करना चाहिए अगर वह नहीं करते हैं तो भी हम पाप करते हैं| उस अमीर व्यक्ति को इसी बात की सज़ा मिली कि उसने अपनी ज़िन्दगी में अपने धन-दौलत और ऐशो-आराम का भरपूर मज़ा लिया लेकिन एक दरिद्र, दुखी और लाचार के बारे में कोई परवाह नहीं की| अगर ईश्वर ने हमें धन-दौलत और आरामदायक जीवन दिया है तो न केवल हमें उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए बल्कि दीन-दुखियों के लिए भी उस धन-दौलत का उपयोग करना चाहिए|

लाज़रुस ने कष्ट उठाया इसलिए उसे परलोक में सांत्वना मिली| प्रभु येसु ने स्वयं वादा किया है - “धन्य हैं वे जो शोक करते हैं, उन्हें सांत्वना मिलेगी| (मत्ती 5:5)| इस दृष्टान्त के दोनों पात्रों में से मैं कौन हूँ- वह धनी व्यक्ति जिसे ईश्वर ने सुखमय जीवन दिया है और जो दूसरों की परवाह नहीं करता या वह कंगाल जो अपने कष्ट और परेशानी में भी ईश्वर पर भरोसा रखता है और परलोक में सांत्वना पाने का पात्र बन जाता है?


 -Br. Biniush Topno


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18 सितंबर 2022 वर्ष का पच्चीसवाँ इतवार

 

18 सितंबर 2022

वर्ष का पच्चीसवाँ इतवार



📒 पहला पाठ : आमोस 8:4-7


4) तुम लोग मेरी यह बात सुनो, तुम जो दीन-हीन को रौंदते हो और देश के गरीबों को समाप्त कर देना चाहते हो।

5) तुम कहते हो, "अमावस का पर्व कब बीतेगा, जिससे हम अपना अनाज बेच सकें ? विश्राम का दिन कब बीतेगा, जिससे हम अपना गेहूँ बेच सकें? हम अनाज की नाप छोटी कर देंगे, रुपये का वजन बढ़ायेंगे और तराजू को खोटा बनायेंगे।

6) हम चाँदी के सिक्के से दरिद्र को खरीद लेंगे और जूतों की जोड़ी के दाम पर कंगाल को। हम गेहूँ का कचरा तक बेच देंगे।"

7) प्रभु याकूब के अहँ का शपथ खा कर कहता है- "तुम लोगों ने जो कुछ किया, मैं वह सब याद रखूँगा।

8) क्या यह सुन कर धरती नहीं काँप उठेगी? क्या उसके सब निवासी विलाप नहीं करेंगे? सारी पृथ्वी नील नदी की बाढ़ की तरह हिलोरित हो उठेगी और फिर मिस्र की नील नदी की तरह शान्त हो जायेगी।"


📒 दूसरा पाठ : 1 तिमथि 2:1-8


1 (1-2) मैं सब से पहले यह अनुरोध करता हूँ कि सभी मनुष्यों के लिए, विशेष रूप से राजाओं और अधिकारियों के लिए, अनुनय-विनय, प्रार्थना निवेदन तथा धन्यवाद अर्पित किया जाये, जिससे हम भक्ति तथा मर्यादा के साथ निर्विघ्न तथा शान्त जीवन बिता सकें।

3) यह उचित भी है और हमारे मुक्तिदाता ईश्वर को प्रिय भी,

4) क्योंकि वह चाहता है कि सभी मनुष्य मुक्ति प्राप्त करें और सत्य को जानें।

5) क्योंकि केवल एक ही ईश्वर है और ईश्वर तथा मनुष्यों के केवल एक ही मध्यस्थ हैं, अर्थात् ईसा मसीह,

6) जो स्वयं मनुष्य हैं और जिन्होंने सब के उद्धार के लिए अपने को अर्पित किया। उन्होंने उपयुक्त समय पर इसके सम्बन्ध में अपना साक्ष्य दिया।

7) मैं सच कहता हूँ, झूठ नहीं बोलता। मैं इसी का प्रचारक तथा प्रेरित, गैर-यहूदियों के लिए विश्वास तथा सत्य का उपदेशक नियुक्त हुआ हूँ।

8) मैं चाहता हूँ कि सब जगह पुरुष, बैर तथा विवाद छोड़ कर, श्रद्धापूर्वक हाथ ऊपर उठा कर प्रार्थना करें।


📒सुसमाचार : सन्त लूकस 16:1-13


1) ईसा ने अपने शिष्यों से यह भी कहा, "किसी धनवान् का एक कारिन्दा था। लोगों ने उसके पास जा कर कारिन्दा पर यह दोष लगाया कि वह आपकी सम्पत्ति उड़ा रहा है।

2) इस पर स्वामी ने उसे बुला कर कहा, ‘यह मैं तुम्हारे विषय में क्या सुन रहा हूँ? अपनी कारिन्दगरी का हिसाब दो, क्योंकि तुम अब से कारिन्दा नहीं रह सकते।’

3) तब कारिन्दा ने मन-ही-मन यह कहा, ‘मै क्या करूँ? मेरा स्वामी मुझे कारिन्दगरी से हटा रहा है। मिट्टी खोदने का मुझ में बल नहीं; भीख माँगने में मुझे लज्जा आती है।

4) हाँ, अब समझ में आया कि मुझे क्या करना चाहिए, जिससे कारिन्दगरी से हटाये जाने के बाद लोग अपने घरों में मेरा स्वागत करें।’

5) उसने अपने मालिक के कर्ज़दारों को एक-एक कर बुला कर पहले से कहा, ’तुम पर मेरे स्वामी का कितना ऋण है?’

6) उसने उत्तर दिया, ‘सौ मन तेल’। कारिन्दा ने कहा, ‘अपना रुक्का लो और बैठ कर जल्दी पचास लिख दो’।

7) फिर उसने दूसरे से पूछा, ‘तुम पर कितना ऋण है?’ उसने कहा, ‘सौ मन गेंहूँ। कारिन्दा ने उस से कहा, ‘अपना रुक्का लो और अस्सी लिख दो’।

8) स्वामी ने बेईमान कारिन्दा को इसलिए सराहा कि उसने चतुराई से काम किया; क्योंकि इस संसार की सन्तान आपसी लेन-देन में ज्योति की सन्तान से अधिक चतुर है।

9) "और मैं तुम लोगों से कहता हूँ, झूठे धन से अपने लिए मित्र बना लो, जिससे उसके समाप्त हो जाने पर वे परलोक में तुम्हारा स्वागत करें।

10) "जो छोटी-से-छोटी बातों में ईमानदार है, वह बड़ी बातों में भी ईमानदार है और जो छोटी-से-छोटी बातों बेईमान है, वह बड़ी बातों में भी बेईमान है।

11) यदि तुम झूठे धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें सच्चा धन कौन सौंपेगा?

12) और यदि तुम पराये धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें तुम्हारा अपना धन कौन देगा?

13) "क़ोई भी सेवक दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता; क्योंकि वह या तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम करेगा, या एक का आदर और दूसरे का तिरस्कार करेगा। तुम ईश्वर और धन-दोनों क़ी सेवा नहीं कर सकते।"


📒मनन-चिंतन


सन 258 ईस्वी में जब सन्त पापा सिक्स्तुस द्वितीय सन्त पापा थे तो उस समय उपयाजक सन्त लॉरेंस कलीसिया की धन-सम्पत्ति के प्रबन्धक थे। अगस्त 258 में रोमी सम्राट वेलेरियन ने राजाज्ञा निकाली कि समस्त धर्माध्यक्षों, पुरोहितों, उपयाजकों एवं कलीसिया के अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया जाये और कलीसिया की सारी संपत्ति को राजकोष में शामिल कर लिया जाये। कलीसिया की सारी संपत्ति के प्रबन्धक होने के कारण सन्त लॉरेंस को सम्राट के समक्ष हाजिर किया गया। सन्त लॉरेंस ने सम्राट से कहा, “हुजुर, मुझे तीन दिन का समय दीजिये, मैं कलीसिया की सारी सम्पत्ति आपको सौंप दूंगा।” राजा ने समय दे दिया। सन्त लॉरेंस ने कलीसिया की सारी धन सम्पत्ति दरिद्रों, अनाथों, विधवाओं, बूढ़े, लाचार-बीमारों में बाँट दी। तीन दिन बाद वे उन सभी के साथ फिर राजा के दरबार में प्रस्तुत हुए, और दरिद्रों, अनाथों, विधवाओं, बूढ़े, लाचार-बीमारों को आगे करते हुए कहा, “ले लीजिये, यही है कलीसिया की सारी धन-सम्पत्ति।”

यह बात हमें भले ही थोड़ी सी अटपटी लगे, लेकिन ईश्वर के राज्य में सच्ची धन-संपत्ति यही निराश्रित, दरिद्र, अनाथ आदि हैं। आज की दुनिया में हम देखते हैं कि मनुष्य जीवन की भाग-दौड़ में बड़ा व्यस्त है। उसकी इच्छाएं असीम हैं। अगर उसने दो पैसे कमाये हैं तो वह उसे बढ़ा कर चार पैसे करना चाहेगा। उसी तरह अगर किसी ने एक लाख रूपये कमाये हों, और ये उसके लिए पर्याप्त हों लेकिन फिर भी उसे और अधिक कमाने की ललक रहती है। इन्सान के लालची स्वभाव का जीता-जागता उदाहरण हमें इसी बात में मिलता है कि अगर एक व्यक्ति अच्छी सरकारी नौकरी करता है, और 35-40 हज़ार तक वेतन लेता है, सारी सरकारी सुविधाएँ लेता है, उसके बावजूद कई बार ऐसी घटनाएँ देखने को मिलती हैं जब वही व्यक्ति 5-7 हजार तनख्वाह पाने वाले व्यक्ति का काम करवाने के एवज में हज़ार-दो हज़ार रूपये ऐंठ लेता है। क्या उसकी तनख्वाह उसके लिए पर्याप्त नहीं है? लेकिन फिर भी वह लालची और भ्रष्ट क्यों है? क्योंकि जब तक हमारी एक इच्छा पूरी नहीं होती तब तक दूसरी जन्म ले लेती है। और इन्ही इच्छाओ की पूर्ती करते-करते एक दिन हम मर जाते हैं। उपदेशक ग्रन्थ हमें बताता है- “जिसे पैसा प्रिय है, वह हमेशा और (अधिक) पैसा चाहता है। जिसे सम्पत्ति प्रिय है, वह कभी अपनी आमदनी से संतुष्ट नहीं होता है। यह भी व्यर्थ है।” (उपदेशक-ग्रन्थ 5:9)। क्या यह सब धन-दौलत हमारे साथ जायेगा? वास्तव में सच्चाई यही है कि यह सब इस पृथ्वी पर मूल्यवान होगा लेकिन स्वर्ग में इसका कोई मोल नहीं है।

जब हम विदेश जाते हैं, तो उस देश की मुद्रा की हमें ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति भारत से अमरीका जाता है तो उसे अमरीका में उपयोग करने के लिए वहाँ की मुद्रा चाहिए, इसके लिए भारत की मुद्रा ‘रूपये’ को अमरीका की मुद्रा ‘डॉलर’ में परिवर्तित करना पड़ेगा। वहाँ रूपये का कोई उपयोग नहीं। हम पृथ्वी पर कुछ ही समय के लिए आते हैं, हमारा वास्तविक निवास, स्थायी स्वदेश स्वर्ग ही है। स्वर्ग की मुद्रा यहाँ पृथ्वी की मुद्रा से भिन्न है। स्वर्ग में हमारा पुण्य, हमारी भलाई, हमारी अच्छाई वहाँ की मुद्रा बन जाते हैं। हमें यहाँ की धन-दौलत को स्वर्ग की धन-दौलत में बदलना होगा। इसलिए प्रभु येसु कहते हैं, “...झूठे धन से अपने लिये मित्र बना लो, जिससे उसके समाप्त हो जाने पर वे परलोक में तुम्हारा स्वागत करें।” (लूकस 16:9)। इस पृथ्वी का धन झूठा है, सच्ची दौलत तो स्वर्ग की दौलत है। हमारी भलाई और उद्दार इसी में है कि हम उसी दौलत को कमायें और स्वर्ग में जमा करें। “स्वर्ग में अपने लिए पूँजी जमा करो, जहाँ न तो मोरचा लगता है, न कीड़े खाते हैं और न चोर सेंध लगाकर चुराते हैं।” (मत्ती 6:20)।

अब मन में सवाल उठेगा कि स्वर्ग में हम अपने लिए धन-दौलत कैसे जमा कर सकते हैं? छोटी-छोटी बातों में इमानदार रहकर भूखों को भोजन खिलाकर, प्यासे को पानी पिलाकर, निराश्रितों को आश्रय देकर, जिनके पास कपड़े नहीं हैं, उन्हें कपड़े पहनाकर, बीमारों से भेंट कर एवं उनकी सेवा करके, बंदियों से मिलकर उनकी हिम्मत बंधा कर, क्योंकि इसी आधार पर हमारी स्वर्गीय पूँजी का मूल्यांकन होगा। (देखें मत्ती 25:35)। या अगर सीधे-सीधे बोलें तो दुनिया की धन-दौलत को दूसरों की भलाई में लगाकर पुण्य कमायें वही हमारी सबसे बड़ी पूँजी होगी। हम चाहे कितने भी धनवान हों लेकिन यदि उस धन का उपयोग हम स्वर्गीय दौलत कमाने के लिए नहीं करते तो वह व्यर्थ है। धनी युवक की कहानी (मत्ती 19:16-22) भी हमें यही सिखाती है। उस धनी युवक के साथ-साथ प्रभु येसु हमसे भी यही कहते हैं, “यदि तुम पूर्ण होना चाहते हो, तो जाओ, अपनी सारी संपत्ति बेचकर गरीबों को दे दो और स्वर्ग में तुम्हारे लिए पूँजी रखी रहेगी। तब आकर मेरा अनुसरण करो।” (मत्ती 19:21)।



 -Br. Biniush Topno


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11 सितंबर 2022 वर्ष का चौबीसवाँ इतवार

 

11 सितंबर 2022

वर्ष का चौबीसवाँ इतवार



📒पहला पाठ : निर्गमन 32:7-11,13-14


7) प्रभु ने मूसा से कहा, ''पर्वत से उतरो, क्योंकि तुम्हारी प्रजा, जिसे तुम मिस्र से निकाल लाये हो, भटक गयी है।

8) उन लोगों ने शीघ्र ही मेरा बताया हुआ मार्ग छोड़ दिया। उन्होंने अपने लिए ढली हुई धातु का बछड़ा बना कर उसे दण्डवत किया और बलि चढ़ा कर कहा, ''इस्राएल; यही तुम्हारा देवता है। यही तुम्हें मिस्र से निकाल लाया।''

9) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मैं देख रहा हूँ कि ये लोग कितने हठधर्मी हैं।

10) मुझे इनका नाश करने दो। मेरा क्रोध भड़क उठेगा और इनका सर्वनाश करेगा। तब मैं तुम्हारे द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा।''

11) मूसा ने अपने प्रभु-ईश्वर का क्रोध शान्त करने के उद्देश्य से कहा, ''प्रभु; यह तेरी प्रजा है, जिसे तू सामर्थ्य तथा भुजबल से मिस्र से निकाल लाया। इस पर तू कैसे क्रोध कर सकता है?

13) अपने सेवकों को, इब्राहीम, इसहाक और याकूब को याद कर। तूने शपथ खा कर उन से यह प्रतिज्ञा की है - मैं तुम्हारी संतति को स्वर्ग के तारों की तरह असंख्य बनाऊँगा और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हारे वंशजों को यह समस्त देश प्रदान करूँगा और वे सदा के लिए इसके उत्तराधिकारी हो जायेगे।''

14) तब प्रभु ने अपनी प्रजा को दण्ड देने की जो धमकी दी थी, उसका विचार छोड़ दिया।


📒 दूसरा पाठ : 1 तिमथि 1:12-17


12) मैं हमारे प्रभु ईसा मसीह को धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने मुझे बल दिया और मुझे विश्वास के योग्य समझ कर अपनी सेवा में नियुक्त किया है।

13) मैं पहले ईश-निन्दक, अत्याचारी और अन्यायी था; किन्तु मुझ पर दया की गयी है, क्योंकि अविश्वास के कारण मैं यह नहीं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूँ।

14) मुझे हमारे प्रभु का अनुग्रह प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुआ और साथ ही वह विश्वास और प्रेम भी, जो हमें ईसा मसीह द्वारा मिलता है।

15) यह कथन सुनिश्चित और नितान्त विश्वसनीय है कि ईसा मसीह पापियों को बचाने के लिए संसार में आये, और उन में सर्वप्रथम मैं हूँ।

16) मुझ पर इसीलिए दया की गयी है कि ईसा मसीह सब से पहले मुझ में अपनी सम्पूर्ण सहनशीलता प्रदर्शित करें और उन लोगों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करें, जो अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए विश्वास करेंगे।

17) युगों के अधिपति, अविनाशी, अदृश्य और अतुल्य ईश्वर को युगानुयुग सम्मान तथा महिमा! आमेन!


📒 सुसमाचार : सन्त लूकस 15:1-32


1) ईसा का उपदेश सुनने के लिए नाकेदार और पापी उनके पास आया करते थे।

2 फ़रीसी और शास्त्री यह कहते हुए भुनभुनाते थे, "यह मनुष्य पापियों का स्वागत करता है और उनके साथ खाता-पीता है"।

3) इस पर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया,

4) "यदि तुम्हारे एक सौ भेड़ें हों और उन में एक भी भटक जाये, तो तुम लोगों में कौन ऐसा होगा, जो निन्यानबे भेड़ों को निर्जन प्रदेश में छोड़ कर न जाये और उस भटकी हुई को तब तक न खोजता रहे, जब तक वह उसे नहीं पाये?

5) पाने पर वह आनन्दित हो कर उसे अपने कन्धों पर रख लेता है

6) और घर आ कर अपने मित्रों और पड़ोसियों को बुलाता है और उन से कहता है, ’मेरे साथ आनन्द मनाओ, क्योंकि मैंने अपनी भटकी हुई भेड़़ को पा लिया है’।

7) मैं तुम से कहता हूँ, इसी प्रकार निन्यानबे धर्मियों की अपेक्षा, जिन्हें पश्चात्ताप की आवश्यकता नहीं है, एक पश्चात्तापी पापी के लिए स्वर्ग में अधिक आनन्द मनाया जायेगा।

8) "अथवा कौन ऐसी स्त्री होगी, जिसके पास दस सिक्के हों और उन में एक भी खो जाये, तो बत्ती जला कर और घर बुहार कर सावधानी से तब तक न खोजती रहे, जब तक वह उसे नहीं पाये?

9) पाने पर वह अपनी सखियों और पड़ोसिनों को बुला कर कहती है, ’मेरे साथ आनन्द मनाओ, क्योंकि मैंने जो सिक्का खोया था, उसे पा लिया है’।

10) मैं तुम से कहता हूँ, इसी प्रकार ईश्वर के दूत एक पश्चात्तापी पापी के लिए आनन्द मनाते हैं।"

11) ईसा ने कहा, "किसी मनुष्य के दो पुत्र थे।

12) छोटे ने अपने पिता से कहा, ’पिता जी! सम्पत्ति का जो भाग मेरा है, मुझे दे दीजिए’, और पिता ने उन में अपनी सम्पत्ति बाँट दी।

13 थोड़े ही दिनों बाद छोटा बेटा अपनी समस्त सम्पत्ति एकत्र कर किसी दूर देश चला गया और वहाँ उसने भोग-विलास में अपनी सम्पत्ति उड़ा दी।

14) जब वह सब कुछ ख़र्च कर चुका, तो उस देश में भारी अकाल पड़ा और उसकी हालत तंग हो गयी।

15) इसलिए वह उस देश के एक निवासी का नौकर बन गया, जिसने उसे अपने खेतों में सूअर चराने भेजा।

16) जो फलियाँ सूअर खाते थे, उन्हीं से वह अपना पेट भरना चाहता था, लेकिन कोई उसे उन में से कुछ नहीं देता था।

17) तब वह होश में आया और यह सोचता रहा-मेरे पिता के घर कितने ही मज़दूरों को ज़रूरत से ज़्यादा रोटी मिलती है और मैं यहाँ भूखों मर रहा हूँ।

18) मैं उठ कर अपने पिता के पास जाऊँगा और उन से कहूँगा, ’पिता जी! मैंने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है।

19) मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा। मुझे अपने मज़दूरों में से एक जैसा रख लीजिए।’

20) तब वह उठ कर अपने पिता के घर की ओर चल पड़ा। वह दूर ही था कि उसके पिता ने उसे देख लिया और दया से द्रवित हो उठा। उसने दौड़ कर उसे गले लगा लिया और उसका चुम्बन किया।

21) तब पुत्र ने उस से कहा, ’पिता जी! मैने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है। मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा।’

22) परन्तु पिता ने अपने नौकरों से कहा, ’जल्दी अच्छे-से-अच्छे कपड़े ला कर इस को पहनाओ और इसकी उँगली में अँगूठी और इसके पैरों में जूते पहना दो।

23) मोटा बछड़ा भी ला कर मारो। हम खायें और आनन्द मनायें;

24) क्योंकि मेरा यह बेटा मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और फिर मिल गया है।’ और वे आनन्द मनाने लगे।

25) "उसका जेठा लड़का खेत में था। जब वह लौट कर घर के निकट पहुँचा, तो उसे गाने-बजाने और नाचने की आवाज़ सुनाई पड़ी।

26) उसने एक नौकर को बुलाया और इसके विषय में पूछा।

27) इसने कहा, ’आपका भाई आया है और आपके पिता ने मोटा बछड़ा मारा है, क्योंकि उन्होंने उसे भला-चंगा वापस पाया है’।

28) इस पर वह क्रुद्ध हो गया और उसने घर के अन्दर जाना नहीं चाहा। तब उसका पिता उसे मनाने के लिए बाहर आया।

29) परन्तु उसने अपने पिता को उत्तर दिया, ’देखिए, मैं इतने बरसों से आपकी सेवा करता आया हूँ। मैंने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। फिर भी आपने कभी मुझे बकरी का बच्चा तक नहीं दिया, ताकि मैं अपने मित्रों के साथ आनन्द मनाऊँ।

30) पर जैसे ही आपका यह बेटा आया, जिसने वेश्याओं के पीछे आपकी सम्पत्ति उड़ा दी है, आपने उसके लिए मोटा बछड़ा मार डाला है।’

31) इस पर पिता ने उस से कहा, ’बेटा, तुम तो सदा मेरे साथ रहते हो और जो कुछ मेरा है, वह तुम्हारा है।

32) परन्तु आनन्द मनाना और उल्लसित होना उचित ही था; क्योंकि तुम्हारा यह भाई मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और मिल गया है’।"


📒 मनन-चिंतन


अभी कुछ दिन पहले ही हमने महान महिला सन्त मोनिका का पर्व मनाया है। उनका प्रार्थनामय जीवन करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणास्रोत है। जब उनका विवाह एक गैर-ख्रीस्तीय परिवार में हुआ था तो अपने ख्रीस्तीय विश्वास एवं मूल्यों को बनाये रखना उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती थी। वे अपने विधर्मी पति की आत्मा को विनाश से बचाना चाहती थी, इसलिए खूब प्रार्थना करती रहती थी। बाद में अपने बेटे अगस्तीन को भी सही रास्ते पर आगे बढ़ाना चाहती थी। लेकिन जब उनका पुत्र अध्ययन के लिए सांसारिक वातावरण में पड़ा तो उसी में संलग्न हो गया और अंधकार में भटककर खो गया। लेकिन उसकी माँ ने हिम्मत नहीं हारी बल्कि वह रो-रो कर घंटों अपने पति व अपने पुत्र के लिए लगातार प्रार्थना करती थी। और एक दिन उसकी सच्ची प्रार्थनाओं के फलस्वरूप उसके पति का मन परिवर्तन हुआ और उसने ख्रीस्त को स्वीकार किया। कड़ी तपस्या और वर्षों की आंसुओं भरी प्रार्थना के बाद उसके बेटे अगस्तीन का भी जीवन बदला और न केवल उसने प्रभु ख्रीस्त को अपनाया बल्कि अपना जीवन भी ईश्वर की सेवा में समर्पित कर दिया। बाद में वही भटका हुआ पुत्र पुरोहित बना, विद्वान बिशप बना और सन्त भी बना। उसकी माँ के लिए इससे बढ़कर और कोई ख़ुशी नहीं कि उसका पापी बेटा पश्चाताप कर एक सन्त बना। वह मृत्यु से पूर्व बताती है – “अब मुझे इस दुनिया की किसी ख़ुशी की ज़रूरत नहीं है, मैंने जितना माँगा उससे ज्यादा पाया।” उनके लिए यही सबसे बड़ी ख़ुशी थी कि उनका पुत्र प्रभु की पवित्र वेदी पर उन्हें याद कर सकता है। अगर एक सांसारिक माँ को अपने पुत्र के वापस ईश्वरीय रास्ते पर आने की इतनी ख़ुशी होती है, तो हमारे स्वर्गीय पिता को पापियों के वापस लौटने पर कितना आनन्द होगा?

सन्त लूकस के सुसमाचार के 15वें अध्याय में हमें तीन उदाहरण मिलते हैं- भटकी हुई भेड़ का दृष्टान्त, खोये हुए सिक्के का दृष्टान्त और खोये हुए पुत्र का दृष्टान्त। ये तीनों ही दृष्टान्त यही सन्देश देते हैं कि हमारे वापस लौटने पर पिता ईश्वर को अपार आनंद होता है। किसी वस्तु के खोकर वापस मिलने के आनंद की सीमा उस वस्तु के मूल्य पर निर्भर करती है। जैसा उसका मूल्य होगा वैसा ही उसके पाने पर ख़ुशी होगी। उदाहरण के लिए अगर किसी के सौ रूपये खो जाएँ और बाद में वो वापस मिल जाएँ तो ज़रूर बहुत ख़ुशी होगी लेकिन यदि किसी की सोने की अंगूठी खो जाये और बड़ी परेशानी के बाद मिल जाये तो उसकी ख़ुशी कहीं अधिक होगी क्योंकि अंगूठी की कीमत सौ रूपये से बहुत अधिक है। एक पश्चातापी मनुष्य के लिये स्वर्ग में इसलिये आनंद मनाया जायेगा क्योंकि हममें से प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की नज़रों में बहुत कीमती है। प्रभु कहते हैं – “तुम मेरी दृष्टि में मूल्यवान हो और महत्व रखते हो। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ...” (इसायस 43:4)। प्रभु का यह प्यार अस्थाई या अल्पकालिक नहीं है; बल्कि अनन्त है। आखिर हम प्रभु की दृष्टि में इतने मूल्यवान क्यों हैं?

एक बच्चा जब कक्षा में खूब मेहनत करता है, एक चित्र बनाता है, धीरे-धीरे पूरे धैर्य के साथ वह घंटों उसमें मेहनत करता है, रंग भरता, उसे सजाता-सँवारता है, और उसका वह चित्र जब बनकर तैयार हो जाता है, तो उसे बहुत ख़ुशी और गर्व होता है। जब लोग उसे देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं तो उसे बहुत आनंद होता है क्योंकि वह उसकी अपनी रचना है, उसे उसने खुद बनाया है। अब कल्पना कीजिए कि संसार के महान चित्रकार ने हममें से प्रत्येक व्यक्ति को अपने हाथों से बनाया है, अपने पूरे मन से बनाया है, प्रेम से बनाया है। हम स्तोत्र-ग्रन्थकार के साथ गा सकते हैं- “मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ- मेरा निर्माण अपूर्व है।.. जब मैं अदृश्य में बन रहा था, जब में गर्भ के अंधकार में गढ़ा जा रहा था, तो तूने मेरी हड्डियों को बढ़ते देखा...” (स्तोत्र 139:14-15)। उसने पल-पल हमारा ख्याल रखा। “माता के गर्भ में रचने से पहले ही मैंने तुम को जान लिया।” (येर० 1:5)। “मैंने तुम्हें अपनी हथेलियों पर अंकित किया है।” (इसयास 49:16)।

यदि हम प्रभु की इतनी अमूल्य रचना हैं, और यदि यह अमूल्य रचना पाप के कारण प्रभु से विमुख हो जाये, प्रभु से दूर चली जाये तो प्रभु को कितना दुःख होगा ! क्या हमारा रचनाकार चाहता है कि उसकी अपने हाथों से बनायीं हुई यह सुन्दर रचना व्यर्थ ही नष्ट हो जाये? उसने अपने स्वर्गदूतों को हमारी रक्षा के लिए लगाया है, हमारे दूत स्वर्ग में निरन्तर हमारे लिये प्रार्थना करते हैं। जब हम गलत रास्ते को, पाप के रास्ते को छोड़कर वापस प्रभु के पास आते हैं तो ज़रूर स्वर्ग में अपार आनंद मनाया जायेगा। क्या मैं अपने गलत और पापमय जीवन के द्वारा अपने सृष्टिकर्ता ईश्वर को दुखी तो नहीं कर रहा हूँ? क्या मैं भी स्वर्ग में आनंद मनाने का कारण बन सकता हूँ?


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!