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27 फरवरी 2022, इतवार

 

27 फरवरी 2022, इतवार

सामान्य काल का आठवाँ इतवार



📒 पहला पाठ : प्रवक्ता-ग्रन्थ 27:4-7


3-4) जो दृढ़तापूर्वक प्रभु पर श्रद्धा नहीं रखता, उसका घर शीघ्र उजड़ जायेगा।

5) छलनी हिलाने से कचरा रह जाता है, बातचीत में मनुष्य के दोष व्यक्त हो जाते हैं।

6) भट्टी में कुम्हार के बरतनों की, और बातचीत में मनुष्य की परख होती है।

7) पेड़ के फल बाग की कसौटी होते हैं और मनुष्य के शब्दों से उसके स्वभाव का पता चलता है।


📒 दूसरा पाठ : 1 कुरिन्थियों 15:54-58



54) जब यह नश्वर शरीर अनश्वरता को धारण करेगा, जब यह मरणशील शरीर अमरता को धारण करेगा, तब धर्मग्रन्थ का यह कथन पूरा हो जायेगा: मृत्यु का विनाश हुआ। विजय प्राप्त हुई।

55) मृत्यु! कहाँ है तेरी विजय? मृत्यु! कहाँ है तेरा दंश?

56) मृत्यु का दंश तो पाप है और पाप को संहिता से बल मिलता है।

57) ईश्वर को धन्यवाद, जो हमारे प्रभु ईसा मसीह द्वारा हमें विजय प्रदान करता है!

58) प्यारे भाइयो! आप दृढ़ तथा अटल बने रहें और यह जान कर कि प्रभु के लिए आपका परिश्रम व्यर्थ नहीं है, आप निरन्तर उनका कार्य करते रहें।


📒 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 6:39-45



39) ईसा ने उन्हें एक दृष्टान्त सुनाया, "क्या अन्धा अन्धे को राह दिखा सकता है? क्या दोनों ही गड्ढे में नहीं गिर पडेंगे?

40) शिष्य गुरू से बड़ा नहीं होता। पूरी-पूरी शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह अपने गुरू-जैसा बन सकता है।

41) "जब तुम्हें अपनी ही आँख की धरन का पता नहीं, तो तुम अपने भाई की आँख का तिनका क्यों देखते हो?

42) जब तुम अपनी ही आँख की धरन नहीं देखते हो, तो अपने भाई से कैसे कह सकते हो, ’भाई! मैं तुम्हारी आँख का तिनका निकाल दूँ?’ ढोंगी! पहले अपनी ही आँख की धरन निकालो। तभी तुम अपने भाई की आँख का तिनका निकालने के लिए अच्छी तरह देख सकोगे।

43) "कोई अच्छा पेड़ बुरा फल नहीं देता और न कोई बुरा पेड़ अच्छा फल देता है।

44) हर पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है। लोग न तो कँटीली झाडि़यों से अंजीर तोड़ते हैं और न ऊँटकटारों से अंगूर।

45) अच्छा मनुष्य अपने हृदय के अच्छे भण्डार से अच्छी चीजे़ं निकालता है और जो बुरा है, वह अपने बुरे भण्डार से बुरी चीज़ें निकालता है; क्योंकि जो हृदय में भरा है, वहीं तो मुँह से बाहर आता है।



📚 मनन-चिंतन.


सुसमाचार में, येसु अपने समय के सामान्य छवियों के साथ महत्वाकांक्षा, निर्णय और कमजोर चरित्र को संबोधित करते हैं। वह इन पात्रों को दृष्टान्तों के माध्यम से दिखाता है। वे नेतृत्व की शैली का वर्णन करते हैं जिसके लिए प्रत्येक ख्रीस्तीय को बुलाया गया है। दृष्टान्त दो छवियों से शुरू होते हैं: अंधा और छात्र। दोनों नेतृत्व के लिए महत्वाकांक्षा का उल्लेख करते हैं। एक अंधा व्यक्ति किसी का नेतृत्व नहीं कर सकता, दूसरे अंधे व्यक्ति की तो बात ही नहीं। बढ़ईगीरी से ली गई सादृश्यता नेताओं में नकारात्मक, और कभी-कभी उतावले, नैतिक निर्णय लेने के प्रलोभन की ओर इशारा करती है। प्रतिबिंबित करने और सुधार करने के लिए समय लेने की तुलना में इंगित करना और निंदा करना आसान है। येसु ने अपने दृष्टान्तों को फलों के पेड़ों की एक छवि के साथ समाप्त किया। फलों और पेड़ों की गुणवत्ता विनिमेय नहीं थी। एक पौधे की उपज उसके चरित्र की प्राकृतिक वृद्धि होती है। सच्ची परीक्षा जीवित विश्वास और नैतिक आचरण में देखी जाती है। आइए हम ईमानदारी का जीवन जिएं।




📚 REFLECTION



In the Gospel, Jesus addresses ambition, judgement, and weak character with images common to his time. He illustrates these characters with a set of parables. They describe the style of leadership every Christian is called to. The parables begin with two images: the blind and the student. Both refer to the ambition for leadership. A blind person cannot lead anyone, much less another blind person. The analogy taken from the carpentry points to the temptation in leaders to make negative, and sometimes rash, moral judgments. It is easier to point and condemn, than to take time to reflect and reform. Jesus finished his parables with an image of fruit trees. The quality of fruit and trees were not interchangeable. A plant’s produce is the natural outgrowth of its character. True test is seen in lived faith and ethical conduct. Let us live a life of integrity.



📚 मनन-चिंतन - 2



मृदभाषी व्यक्ति को सब लोग पसंद करते हैं। अक्सर ऐसे लोगों को लोग अजात शत्रु (अर्थात जिसका कोई शत्रु न हो) भी कहते हैं। दुकानदार और व्यापारी अपने ग्राहकों से सदैव मधुर वाणी एवं व्यवहार कर उन्हें लुभाते हैं। अच्छा व्यवहार एवं मृदभाषी होना एक कला है। आज का पहला पाठ भी हमें अपनी बातों तथा व्यवहार के प्रति आगाह करते हुये चेताता है। “बातचीत में मनुष्य के दोष व्यक्त हो जाते हैं.... बातचीत में मनुष्य की परख होती है। ...मनुष्य के शब्दों से उसके स्वभाव का पता चलता है। किसी की प्रशंसा मत करो, जब तक वह नहीं बोले, क्योंकि यहीं मनुष्य की कसौटी है।” जीवन की वास्तविकता भी यही है कि हम अपनी मृद वाणी से जीवन को सफल एवं सरल या कठिन एवं जाटिल बना लेते हैं। प्रवक्ता ग्रंथ वाणी के सदुपयोग के बारे में शिक्षा देता है, ’’...दान देते समय कटु शब्द मत बोलो। क्या ओस शीतल नहीं करती? इसी प्रकार उपहार से भी अच्छा एक शब्द हो सकता है। एक मधुर शब्द महंगे उपहार से अच्छा है। स्नेही मनुष्य एक साथ दोनों को देता है। मूर्ख कटु शब्दों से डांटता है ...बोलने से पहले जानकार बनो। .....गप्पी के होंठ बकवाद करते हैं, किन्तु समझदार व्यक्ति के शब्द तराजू पर तौले हुए हैं।’’ (प्रवक्ता 18:15-19, 21:28)

संत याकूब भी वाणी के परिणामों को विस्तृत तथा तुलनात्मक शैली में बताते हुये कहते हैं, ’’यदि हम घोड़ों को वश में रखने के लिए उनके मुंह में लगाम लगाते हैं, तो उनके सारे शरीर को इधर-उधर घुमा सकते हैं। जहाज... कितना ही बड़ा क्यों न हो और तेज हवा से भले ही बहाया जा रहा हो, तब भी वह कर्णधार की इच्छा के अनुसार एक छोटी सी पतवार से चलाया जाता है। इसी प्रकार जीभ शरीर का एक छोटा-सा अंग है, किन्तु वह शक्तिशाली होने का दावा कर सकती है। ....जो हमारे अंगों के बीच हर प्रकार की बुराई का स्रोत है। वह हमारा समस्त शरीर दूषित करती और नरकाग्नि से प्रज्वलित हो कर हमारे पूरे जीवन में आग लगा देती है। ...किन्तु कोई मनुष्य अपनी जीभ को वश में नहीं कर सकता। वह एक ऐसी बुराई है, जो कभी शान्त नहीं रहती और प्राणघातक विष से भरी हुई है।’’ (देखिये याकूब 3:3-8) हम अपनी वाणी से किसी को प्रोत्साहित या हतोत्साहित कर सकते हैं। हम अपने बुरे शब्दों से झगडा शुरू कर सकते हैं, या अच्छे शब्दों से झगडा टाल भी सकते हैं। इसलिए प्रभु का वचन कहता है, “चिनगारी पर फूँक मारो और वह भड़केगी, उस पर थूक दो और वह बुझेगी: दोनों तुम्हारे मुँह से निकलते हैं” (प्रवक्ता 28:14)।

येसु की वाणी में सत्य का तेज था। उनकी शिक्षा अद्वितीय थी लोग उनकी वाणी को सुनकर दंग रह जाते थे, ’’...वे लोगों को उनके सभाग्रह में शिक्षा देते थे। वे अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ’’इसे यह ज्ञान और यह सामर्थ्य कहाँ से मिला? (मत्ती 13:54) उनके विरोधी स्वयं स्वीकार करते हुये कहते हैं, ’’गुरुवर! हम यह जानते हैं कि आप सत्य बोलते हैं और सच्चाई से ईश्वर के मार्ग की शिक्षा देते हैं। आप को किसी की परवाह नहीं। आप मुँह-देखी बात नहीं करते।’’ (मत्ती 22:16)

प्रभु येसु अपने शब्दों को खरा-खरा तथा नापतोल के बोलते थे। उनके विरोधी उनकी परीक्षा लेने तथा उनमें दोष ढुंढनें के उद्देश्य से उनसे प्रश्न करते थे, ’’उस समय फरीसियों ने जा कर आपस में परामर्श किया कि हम किस प्रकार ईसा को उनकी अपनी बात के फन्दे में फँसायें।’’ किन्तु कैसर को कर देने के बारे में येसु का उत्तर ’’....सुन कर वे अचम्भे में पड़ गये और ईसा को छोड़ कर चले गये।’’ (देखिये मत्ती 22:15-22) इसी प्रकार जब उन्होंने पुनरूत्थान, विवाह तथा ईश्वर की आज्ञा के बारे में पूछा तो ईसा की वाणी में उन्होंने कोई दोष नहीं पाया तथा वे निरूत्तर रह गये। ’’इसके उत्तर में कोई ईसा से एक शब्द भी नहीं बोल सका और उस दिन से किसी को उन से और प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ।’’ (मत्ती 22:46)

अनेक स्थानों पर येसु अपने विरोधियों के प्रति भी कड़े शब्द उनके सामने तथा बिना किसी व्यक्तिगत द्वेष-घृणा से बोलते थे। उनके विरोधी इससे तिलमिला जाते थे किन्तु वे कोई दोष या त्रुटि उनकी वाणी में नहीं पाते थे। हमें येसु के समान सत्य को सीधे, सरल तथा स्पष्ट रूप से बोलना चाहिये इससे लोग तो विरूद्ध हो सकते हैं, किन्तु हमारे वचन दोषरहित होगें। येसु स्वयं इस बारे में कहते हैं, ’’तुम्हारी बात इतनी हो - हाँ की हाँ, नहीं की नहीं। जो इससे अधिक है, वह बुराई से उत्पन्न होता है।’’ (मत्ती 5:37) साथ ही साथ येसु हमें चेतावनी देते हैं कि हमें अपने शब्दों को सोच समझ कर बोलना चाहिये तथा दूसरों के लिए तुच्छ तथा अपशब्दों का उपयोग नहीं करना चाहिये। ’’यदि वह अपने भाई से कहे, ’रे मूर्ख! तो वह महासभा में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा और यदि वह कहे, ’रे नास्तिक! तो वह नरक की आग के योग्य ठहराया जायेगा।’’ (मत्ती 5:22) यदि अपनी वाणी पर हम व्यवहार में गलत बातों का प्रयोग करेंगे तो ईश्वर हम से इन सारी बातों का लेखा-जोखा लेगा। ’’मैं तुम लोगों से कहता हूँ- न्याय के दिन मनुष्यों को अपनी निकम्मी बात का लेखा देना पड़ेगा, क्योंकि तुम अपनी ही बातों से निर्दोष या दोषी ठहराये जाओगे।’’(मत्ती 12:36) आइये हम भी अपनी वाणी पर ध्यान दे जिससे जीवन में मधुरता बनी रहें।


 -Br. Biniush Topno


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The Word for the day/ Rev. Fr. Bobby vc


 

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20 फरवरी 2022, रविवा

 

20 फरवरी 2022, रविवार

वर्ष का सातवां सामान्य रविवार



📙 पहला पाठ : समुएल का पहला ग्रन्थ 26:2.7-9.12-13.22-23



2) साऊल इस्राएल के तीन हज़ार चुने हुए योद्धाओं को ले कर ज़ीफ़ के उजाड़खण्ड की ओर चल दिया, जिससे वह ज़ीफ़ के उजाड़खण्ड में दाऊद का पता लगाये।

7) दाऊद और अबीशय रात को उन लोगों के पास पहुँचे। उन्होंने पड़ाव में साऊल को सोया हुआ पाया। उसका भाला उसके सिरहाने जमीन में गड़ा हुआ था। अबनेर और दूसरे योद्धा उसके चारों ओर लेटे हुए थे।

8) तब अबीशय ने दाऊद से कहा, ‘‘ईश्वर ने आज आपके शत्रु को आपके हाथ दे दिया है। मुझे करने दीजिए- मैं उसे उसके अपने भाले के एक ही बार से ज़मीन में जकड दूँगा। मुझे दूसरी बार वार करने की ज़रूरत नहीं पडे़गी।’’

9) दाऊद ने अबीशय को यह उत्तर दिया, ‘‘उसे मत मारो। कौन प्रभु के अभिषिक्त को मार कर दण्ड से बच सकता है?’’

12) दाऊद ने वह भाला और साऊल के सिरहाने के पास रखी हुई पानी की सुराही ले ली और वे चले गये। न किसी ने यह सब देखा, न किसी को इसका पता चला और न कोई जगा। वे सब-के-सब सोये हुए थे; क्योंकि प्रभु की ओर से भेजी हुई गहरी नींद उन पर छायी हुई थी।

13) दाऊद घाट पार कर दूर की पहाड़ी पर खड़ा हो गया- दोनों के बीच बड़ा अन्तर था।

22) दाऊद ने उत्तर दिया, ‘‘यह राजा का भाला है। नवयुवकों में से कोई आ कर इसे ले जाये।

23 (23-24) प्रभु हर एक को उसकी धार्मिकता तथा ईमानदारी का फल देगा। आज प्रभु ने आप को मेरे हाथ दे दिया था, किन्तु मैंने प्रभु के अभिषिक्त पर हाथ उठाना नहीं चाहा; क्योंकि आज आपका जीवन मेरी दृष्टि में मूल्यवान् था। इसलिए मेरा जीवन भी प्रभु की दृष्टि में मूल्यवान हो और वह मुझे सब संकटों से बचाता रहे।"



📙 दूसरा पाठ : कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 15:45-49



45) धर्मग्रन्थ में लिखा है कि प्रथम मनुष्य आदम जीवन्त प्राणी बन गया और अन्तिम आदम जीवन्तदायक आत्मा।

46) जो पहला है, वह आध्यात्मिक नहीं, बल्कि प्राकृत है। इसके बाद ही आध्यात्मिक आता है।

47) पहला मनुष्य मिट्टी का बना है और पृथ्वी का है, दूसरा स्वर्ग का है।

48) मिट्टी का बना मनुष्य जैसा था, वैसे ही मिट्टी के बने मनुष्य हैं और स्वर्ग का मनुष्य जैसा है, वैसे ही सभी स्वर्गी होंगे;

49) जिस तरह हमने मिट्टी के बने मनुष्य का रूप धारण किया है, उसी तरह हम स्वर्ग के मनुष्य का भी रूप धारण करेंगे।



📙 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 6:27-38



27) ’’मैं तुम लोगों से, जो मेरी बात सुनते हो, कहता हूँ-अपने शत्रुओं से प्रेम करो। जो तुम से बैर करते हैं, उनकी भलाई करो।

28) जो तुम्हें शाप देते है, उन को आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ दुव्र्यवहार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।

29) जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारता है, दूसरा भी उसके सामने कर दो। जो तुम्हारी चादर छीनता है, उसे अपना कुरता भी ले लेने दो।

30) जो तुम से माँगता है, उसे दे दो और जो तुम से तुम्हारा अपना छीनता है, उसे वापस मत माँगो।

31) दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो।

32) यदि तुम उन्हीं को प्यार करते हो, जो तुम्हें प्यार करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी अपने प्रेम करने वालों से प्रेम करते हैं।

33) यदि तुम उन्हीं की भलाई करते हो, जो तुम्हारी भलाई करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी ऐसा करते हैं।

34) यदि तुम उन्हीं को उधार देते हो, जिन से वापस पाने की आशा करते हो, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पूरा-पूरा वापस पाने की आशा में पापी भी पापियों को उधार देते हैं।

35) परन्तु अपने शत्रुओं से प्रेम करो, उनकी भलाई करो और वापस पाने की आशा न रख कर उधार दो। तभी तुम्हारा पुरस्कार महान् होगा और तुम सर्वोच्च प्रभु के पुत्र बन जाओगे, क्योंकि वह भी कृतघ्नों और दुष्टों पर दया करता है।

36) ’’अपने स्वर्गिक पिता-जैसे दयालु बनो। दोष न लगाओ और तुम पर भी दोष नहीं लगाया जायेगा।

37) किसी के विरुद्ध निर्णय न दो और तुम्हारे विरुद्ध भी निर्णय नहीं दिया जायेगा। क्षमा करो और तुम्हें भी क्षमा मिल जायेगी।

38) दो और तुम्हें भी दिया जायेगा। दबा-दबा कर, हिला-हिला कर भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी-की-पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जायेगी; क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा।

’’

📚 मनन-चिंतन


सुसमाचार में, येसु शत्रु और सताने वालो के प्रति प्रेम प्रकट कर रहे है। यह विशुद्ध रूप से एक गैर-पारस्परिक व्यवहार है। यह येसु की एक सर्व समावेशी दृष्टि है। शत्रुओं से प्रेम करने की क्षमता केवल चाहने मात्र से प्राप्त नहीं होती। यह केवल द्वेष की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि दूसरे व्यक्ति की भलाई के लिए एक दयालु इच्छा है। ईश्वर के समान प्यार करना, अर्थार्त दूसरों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना है। यह परिपक्वता का कारक है।यह स्पष्ट रूप से आत्म-ज्ञान, आत्म-स्वीकृति और सहानुभूति की क्षमता से जुड़ा हुआ है। यह ईश्वर के प्रेम की प्रबल भावना से उत्पन्न होता है। येसु अपने शिष्यों को उस प्रेम में भाग लेने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं जो पिता के हृदय में उत्पन्न होता है। यह येसु की तरह बनने के लिए नम्रता का आह्वान करता है। आइए हम ईश्वर से अपने दिलों को दिव्य प्रेम के लिए खोलने के लिए कहें, ताकि हम प्यार कर सकें, अच्छा कर सकें और उदारता से कार्य कर सकें।



📚 REFLECTION


In the Gospel, Jesus is extending love to the enemy and the persecutor. It is purely a non-reciprocal behavior. It is an all inclusive vision of Jesus. The capacity to love enemies is not achieved simply by wishing it. It is not merely the absence of malice, but a compassionate desire for the other person’s good. To love as God loves is to focus more on others. It is a factor of maturity. It is clearly connected to self-knowledge, self-acceptance and the capacity to empathise. It originates from a strong sense of God’s love. Jesus is inviting his disciples to share in the love that originates in the heart of the Father. It calls for humility and an emptying of ourselves to become like Jesus. Lets us ask God to open our hearts to divine love, so that we may love, do good and act generously.




हर इन्सान खुद का मित्र है या शत्रु। अक्सर देखा जाता है कि हमारे विरोधी या शत्रु हमारे दिमाग और मन में ज्यादा समय निवास करते हैं। प्रेम सब कुछ प्रेमपूर्ण बनाता। घृणा सब कुछ घृणित बनाती हैं।

समूएल के पहले ग्रंथ में राजा दाऊद और राजा साऊल की कहानी काफी रोचक है। दाऊद की बालक के सदृश्य प्रगति, असर और प्रभाव और दाऊद के प्रति साऊल की जलन को हम जानते हैं।

राजा साऊल दाऊद का सर्वनाश करना चाहता था और पीछा करता था - एक शत्रु और दुश्मन के तौर पर। दाऊद के हाथ में फंस जाने पर भी उसने साऊल की हत्या नहीं की। क्योंकि वह ईश्वर के द्वारा अभिषिक्त का आदर करता था। यह सच है कि इस्राएलियों की पराम्परा में राजा ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता था। इसलिए राजा का तिरस्कार करना अर्थात ईश्वर का तिरस्कार करना था और दाऊद की यह बड़ी उदार, निस्वार्थ सोच, मनोभाव साऊल के जीवन में परिवर्तन लाता है, न सिर्फ परिवर्तन लाता है बल्कि साऊल के नजर में दाऊद आर्शीवाद का पात्र बनता है।

जान लेना पाप है।

ईश्वर की नियुक्ति पर विरोध नहीं करना चाहिये।

दयालुता अर्थात बडे दिल वाला होना है।

प्रेम और क्षमा इन्सान को बदल देती है। प्रेम से सब कुछ पर विजय प्राप्त की जा सकती है।

येसु ख्रीस्त ने एक बहुत ही क्रांतिकारी शिक्षा पेश की और उनकी यह क्रांतिकारी शिक्षा प्रभावशाली इसलिए है कि बहुतों ने उस शिक्षा को अपने जीवन में लागू किया। यह दुनिया की आम सोच से बिल्कुल अलग या हट के है। दुनिया की रीति है कि जो हमें प्यार करते है उन्हीं से हम प्यार करते हैं और जो हमसे बैर रखते उनसे बैर। लेकिन इसके ठीक विपरीत वे कहते हैं अपने शत्रु से प्रेम करो, उनकी शुभ चिंता रखो और उनके लिए प्रार्थना भी करो। हम बदले की भावना या गलती के लिए दण्ड देना सामाजिक दृष्टि से न्याय समझते हैं। लेकिन वे कहते है कि कोई तुम्हें एक गाल पर थापड़ मारे तो दूसरा गाल भी दिखा दो। हमें यह सब इसलिए करना है कि हम उस स्वर्गिक पिता की संतान हैं जो अत्यंत प्रेमी, दयालु, क्षमाशील हैं और यह उचित है कि उनकी संतान, जो येसु में विश्वास करती है उनके सदृश्य बने। ख्रीस्तीयों के लिए येसु मसीह उच्च कोटि का मापदण्ड/जीने का standard प्रस्तुत करते हैं। और यह दुनिया को बदल देता है| जैसे उदाहरण के लिए चोट के बदले प्रतिक्रियात्मक ढंग ये बदला ले तो यह cycle क्रिया चलती ही रहेगी। गैर ख्रीस्तीय और ख्रीस्तीय में फिर क्या फर्क है? इसलिए येसु कहते हैं कि हमें नमक जैसे बन जाना चाहिए, दीपक जैसे बन जाना है ताकि सब कुछ नया हो जाएगा। एक प्रकार से प्रतिक्रिया न करके, दूसरे तरीके से हम हमारे शत्रु पर विजय पाते हैं और उनमें परिवर्तन या बदलाव लाते हैं।

येसु मसीह स्वर्गराज्य का निर्माण करने आये और उस राज्य के नियम, संहिता, सिध्दांत बिल्कुल सर्वोपरि गुणवत्ता quality के हो। ख्रीस्तीय प्रेम इसी में प्रदर्शित होता है और दिखाई देता है अपनी ऑखों के सामने ही स्वयं येसु ने अपने शत्रुओं को मरते समय क्षमा किया। “प्रभु इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं”। यदि हर कोई बदला ले तो इस संसार में सब अन्धे, लगड़े, लूले ही मिलेगें।

दूसरे दृष्टिकोण से यह भी बोला जा सकता है कि पड़ोसी-प्रेम का सिंध्दात् यह है कि मेरे प्रेम से, दूसरों की भलाई में कोई भी वंचित न रहें। ईश्वर की शिक्षा का सांराश यही है कि हम पिता के सदृश्य दयालु बने अर्थात् ईश्वर प्रेम में बढ़े, साथ ही साथ येसु के सदृश्य पड़ोसी प्रेम में भी बढ़ते जाएँ अर्थात यह काफी नहीं कि सिर्फ मैं चिंता ही करूँ कि कैसे स्वर्ग पहुँच जाऊँ किन्तु यह भी आवश्यक है कि मैं अकेले नहीं अपने पड़ोसी को भी स्वर्गराज्य का सदृश्य बनाऊँ, साथ ले चलुँ।

क्षमाशीलता ही ख्रीस्तीय धर्म का सारांश है।


 -Br. Biniush Topno


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13 फरवरी 2022, रविवार

 

13 फरवरी 2022, रविवार

वर्ष का छठवां सामान्य रविवार


📒 पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 17:5-8


5) प्रभु यह कहता है: “धिक्कार उस मनुय को, जो मनुय पर भरोसा रखता है, जो निरे मनुय का सहारा लेता है और जिसका हृदय प्रभु से विमुख हो जाता है!

6) वह मरुभूमि के पौधे के सदृश है, जो कभी अच्छे दिन नहीं देखता। वह मरुभूमि के उत्तप्त स्थानों में- नुनखरी और निर्जन धरती पर रहता है।

7) धन्य है वह मनुय, जो प्रभु पर भरोसा रखता है, जो प्रभु का सहारा लेता है।

8) वह जलस्रोत के किनारे लगाये हुए वृक्ष के सदृश हैं, जिसकी जड़ें पानी के पास फैली हुई हैं। वह कड़ी धूप से नहीं डरता- उसके पत्ते हरे-भरे बने रहते हैं। सूखे के समय उसे कोई चिंता नहीं होती क्योंकि उस समय भी वह फलता हैं।“.


📒 दूसरा पाठ : कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 15:12.16-20


12) यदि हमारी शिक्षा यह है कि मसीह मृतकों में से जी उठे, तो आप लोगों में कुछ यह कैसे कहते हैं कि मृतकों का पुनरूत्थान नहीं होता?

16) कारण, यदि मृतकों का पुनरुत्थान नहीं होता, तो मसीह भी नहीं जी उठे।

17) यदि मसीह नहीं जी उठे, तो आप लोगों का विश्वास व्यर्थ है और आप अब तक अपने पापों में फंसे हैं।

18) इतना ही नहीं, जो लोग मसीह में विश्वास करते हुए मरे हैं, उनका भी विनाश हुआ है।

19) यदि मसीह पर हमारा भरोसा इस जीवन तक ही सीमित है, तो हम सब मनुष्यों में सब से अधिक दयनीय हैं।

20) किन्तु मसीह सचमुच मृतकों में से जी उठे। जो लोग मृत्यु में सो गये हैं, उन में वह सब से पहले जी उठे।


📒 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 6:17.20-26

17) ईसा उनके साथ उतर कर एक मैदान में खड़े हो गये। वहाँ उनके बहुत-से शिष्य थे और समस्त यहूदिया तथा येरुसालेम का और समुद्र के किनारे तीरूस तथा सिदोन का एक विशाल

 जनसमूह भी था, जो उनका उपदेश सुनने और अपने रोगों से मुक्त होने के लिए आया था।

20) ईसा ने अपने शिष्यों की ओर देख कर कहा, ’’धन्य हो तुम, जो दरिद्र हो! स्वर्गराज्य तुम लोगों का है।

21) धन्य हो तुम, जो अभी भूखे हो! तुम तृप्त किये जाओगे। धन्य हो तुम, जो अभी रोते हो! तुम हँसोगे।

22) धन्य हो तुम, जब मानव पुत्र के कारण लोग तुम से बैर करेंगे, तुम्हारा बहिष्कार और अपमान करेंगे और तुम्हारा नाम घृणित समझ कर निकाल देंगे!

23) उस दिन उल्लसित हो और आनन्द मनाओ, क्योंकि स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा। उनके पूर्वज नबियों के साथ ऐसा ही किया करते थे।

24) ’’धिक्कार तुम्हें, जो धनी हो! तुम अपना सुख-चैन पा चुके हो।

25) धिक्कार तुम्हें, जो अभी तृप्त हो! तुम भूखे रहोगे। धिक्कार तुम्हें, जो अभी हँसते हो! तुम शोक मनाओगे और रोओगे।

26) धिक्कार तुम्हें, जब सब लोग तुम्हारी प्रशंसा करते हैं! उनके पूर्वज झूठे नबियों के साथ ऐसा ही किया करते थे।


📚 मनन-चिंतन


सुसमाचार में, येसु ईश्वरिय राज्य में जीवन और सांसारिक जीवन के बीच मूलभूत अंतर की व्याख्या करते हैं। ईश्वर के राज्य का एक हिस्सा होने का मतलब है कि दुनिया से अलग तरीके से जीना। जो गरीब हैं, भूखे हैं, रोते हैं, या सताए जाते हैं, वे धन्य कहलाते हैं। यह परिवर्तन का सुसमाचार है। जिन लोगों को अक्सर ईश्वर द्वारा भुला दिया गया माना जाता है उन्हें धन्य कहा जाता है। शापितो की सूची में वे हैं जिन्हें हम साधारणतया धन्य मानते हैं। उनके धन, संपत्ति, हँसी, प्रतिष्ठा के बारे में चेतावनी देते हैं। ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन पर हम शाश्वत सुख के स्रोत के रूप में निर्भर रह सकते हैं। आशीर्वचन को अक्सर ख्रीस्तीय जीवन के लिए एक रूपरेखा के रूप में वर्णित किया जाता है। ख्रीस्तीयों के रूप में हमारा बुलाहट इस दुनिया में प्रथम नहीं होना है, बल्कि ईश्वर की दृष्टि में प्रथम होना है। हमें अपने अंतिम क्षितिज, ईश्वर के राज्य के संदर्भ में अपनी वर्तमान स्थिति की जांच करने की चुनौती है।



📚 REFLECTION


In the Gospel, Jesus explains the radical difference between Kingdom Life and secular life. To be a part of God’s Kingdom means to live differently than the secular world around. Those who are poor, hungry, weeping, or persecuted are called blessed. This is a Gospel of reversals. Those often thought to have been forgotten by God are called blessed. In the list of woes are those whom we might ordinarily describe as blessed. Jesus warns about their riches, possessions, laughter, reputation. These are not things we can depend upon as sources of eternal happiness. The beatitudes are often described as a framework for Christian living. Our vocation as Christians is not to be first in this world, but rather to be first in the eyes of God. We are challenged to examine our present situation in the context of our ultimate horizon, the Kingdom of God.



📚 मनन-चिंतन - 2


धन्य है वह मनुष्य जो ईश्वर पर भरोसा रखता है वह उस पेड़ के सदृश्य है जो सदाबहार और bumper फल पैदा करता है। (येरिमियाह 17:5-8) येसु ख्रीस्त मृतकों में से जी उठे हैं और वे पहला फल हैं। (1 कुरिन्थियों 15:12,16-20)

आज सामान्य काल का छटवाँ रविवार है और मेरा प्रवचन आज के सुसमाचार पर आधारित करना चाहूँगा। आज के सुसमाचार, लूकस 6:17, 20-26, का विषय है - येसु मसीह का पर्वत प्रवचन। इसका उल्लेख संत मत्ती के द्वारा भी किया गया है। अंग्रेजी में इसे beatitudes कहते हैं। यह शब्द लैटिन के beatis शब्द से उद्गम होता है जिसका अर्थ है happy, Blest, fortunate यानि खुश, सुखद्, आनंदित, सौभाग्यशाली, मुदित, संतोषमय इत्यादि। सामान्य रचना के तौर पर इस प्रकार की शैली का प्रयोग पुराने साहित्य में अलंकार के रूप में किया जाता था, और बाईबल की किताबों में भी इसका प्रयोग किया गया है। वर्तमान की या आधुनिक साहित्य में भी यह अलंकार उपयोग में लिया जाता है। परपंरागत वह व्यक्ति धन्य या सुखद माना जाता था, जिससे ईश्वर प्रसन्न हो। संत लूकस के लेख में चार सकारात्मक आर्शीवादपूर्ण और चार धिक्कारपूर्ण पंक्तियाँ मिलती हैं। सांसारिक दृष्टि में सौभाग्यशाली वह व्यक्ति माना जाता है जो आर्थिक दृष्टि में सम्पन्न है, शारीरिक रूप में स्वस्थ है और परिवार में कुशल हैं तथा उसकी ईश्वरभय रखने वाली पत्नी और संतान हो और जिनकी लम्बी उम्र हो।

दुनिया की दृष्टि में उपरोक्त सब कुछ होने के बावजूद भी ईश्वर की दृष्टि में एक व्यक्ति नगण्य तथा धिक्कार के योग्य हो सकता है। येसु अपने शिष्यों को प्रत्यक्ष रूप से संबोधित करते हैं। येसु के दर्शनों में आम आदमी भी सम्मिलित है। जो नज़दीकी शिष्यों को बुलाता है और वे भी शिष्यों की गिनती में आते हैं, और यह भी प्रतीत होता है कि संत लूकस की कलीसिया या समुदाय में अधिकांश लोग आर्थिक रूप से तंगी की हालात में थे और येसु का अनुसरण करने की वजह से उन्हें अत्याचार भी सहना पड़ता था। वे अक्सर तिरस्क्र्त किये जाते थे, घृणित और तुच्छ नजरों से देखे जाते थे। वे दुनिया की दृष्टि में हँसी, अपमान, उपहास के पात्र थे। लेकिन येसु की दृष्टि में वे धन्य, खुशहाल, सौभाग्यशाली थे क्योंकि ईश्वर उनके पक्ष और उनके साथ थे। उनकी खुशी, संतुष्टि, पर्याप्तता का कारण और स्रोत ईश्वर थे। व्यंग और विरोधाभाष भाषा का प्रयोग करते हुए येसु उन्हें धन्य कहते हैं, इसलिए नहीं कि वे गरीब हैं, भूखे हैं, शोकित हैं, घृणित हैं लेकिन इसलिए कि वे स्वर्गराज के उत्तराधिकारी हैं, वे तृप्त किये जाएगें तथा आनन्द के हकद़ार होगें। ईश्वर उन्हें धिक्कारते हैं जो अपनी खुशी, आस्था, चिंता तथा दुनियाई मूल्यों पर केन्द्रित जीवन बिताते हैं। शायद कुछ सीख है। क्या ईश्वर हमारे आनन्द, सौभाग्यशाली होने का कारण है?

क्या ईश्वर हमें और हमारे जीवन को देख के हमें धन्य कहेगें या धिक्कारेगें?

क्या हमारी खुशी क्षणभंगुर है या ईश्वर जैसी चिरस्थायी है?

ईश्वर का राज्य और ईश्वर का मूल्य सांसारिक मूल्यों के विपरीत हैं।

सांसारिक मूल्य ईश्वरीय मूल्यों और ईश्वर के राज्य का विरोध करते हैं।

ईश्वर का राज्य हमें ऊपर की बातों की प्रतिज्ञा करता है।

ख्रीस्त के राज्य की स्थापना करना एक चुनौती है।

ख्रीस्तीय जीवन जीना अर्थात् ईश्वरीय राज्य के मूल्यों के आधारित जीना है।

ईश्वर की दृष्टि में धन्य होना है, मानवीय दृष्टि में नहीं।

येसु की शिक्षा, आधुनिक मानव और समाज के लिए चुनौती है क्योंकि हर एक ख्रीस्तीय एक नबी है; वह कोई पेशा नहीं।

ईश्वर के राज्य का भागी होना अर्थात् फैसला लेना कि ईश्वर के पक्ष में या ईश्वर के विरोध में।


 -Br. Biniush Topno


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