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30 जनवरी 2022, इतवार

 

30 जनवरी 2022, इतवार

सामान्य काल का चौथा इतवार



📒 पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 1:4-5,17-19

4) प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुए सुनाई पड़ी-

5) “माता के गर्भ में तुम को रचने से पहले ही, मैंने तुम को जान लिया। तुम्हारे जन्म से पहले ही, मैंने तुम को पवत्रि किया। मैंने तुम को राष्ट्रों का नबी नियुक्त किया।“

17) अब तुम कमर कस कर तैयार हो जाओ और मैं तुम्हें जो कुछ बताऊँ, वह सब सुना दो। तुम उनके सामने भयभीत मत हो, नहीं तो मैं तुम को उनके सामने भयभीत बना दूँगा।

18) देखो! इस सारे देश के सामने, यूदा के राजाओं, इसके अमीरों, इसके याजकों और इसके सब निवासियों के सामने, मैं आज तुम को एक सुदृढ़ नगर के सदृश, लोहे के खम्भे और काँसे की दीवार की तरह खड़ा करता हूँ।

19) वे तुम्हारे विरुद्ध लडेंगे, किन्तु तुम को हराने में असमर्थ होंगे; क्योंकि मैं तुम्हारी रक्षा करने के लिए तुम्हारे साथ रहूँगा।“ यह प्रभु की वाणी है।


📒 दूसरा पाठ : कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 12:31-13:13


31) आप लोग उच्चतर वरदानों की अभिलाषा किया करें। मैं अब आप लोगों को सर्वोत्तम मार्ग दिखाता चाहता हूँ।

1) मैं भले ही मनुष्यों तथा स्वर्गदूतों की सब भाषाएँ बोलूं; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव है, तो मैं खनखनाता घडि़याल या झनझनाती झाँझ मात्र हूँ।

2) मुझे भले ही भविष्यवाणी का वरदान मिला हो, मैं सभी रहस्य जानता होऊँ, मुझे समस्त ज्ञान प्राप्त हो गया हो, मेरा विश्वास इतना परिपूर्ण हो कि मैं पहाड़ों को हटा सकूँ; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव हैं, तो मैं कुछ भी नहीं हूँ।

3) मैं भले ही अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दूँ और अपना शरीर भस्म होने के लिए अर्पित करूँ; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव है, तो इस से मुझे कुछ भी लाभ नहीं।

4) प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईर्ष्या करता है, न डींग मारता, न घमण्ड, करता है।

5) प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। वह अपना स्वार्थ नहीं खोजता। प्रेम न तो झुंझलाता है और न बुराई का लेखा रखता है।

6) वह दूसरों के पाप से नहीं, बल्कि उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है।

7) वह सब-कुछ ढाँक देता है, सब-कुछ पर विश्वास करता है, सब-कुछ की आशा करता है और सब-कुछ सह लेता है।

8) भविष्यवाणियाँ जाती रहेंगी, भाषाएँ मौन हो जायेंगी और ज्ञान मिट जायेगा, किन्तु प्रेम का कभी अन्त नहीं होगा;

9) क्योंकि हमारा ज्ञान तथा हमारी भविष्यवाणियाँ अपूर्ण हैं

10) और जब पूर्णता आ जायेगी, तो जो अपूर्ण है, वह जाता रहेगा।

11) मैं जब बच्चा था, तो बच्चों की तरह बोलता, सोचता और समझता था; किन्तु सयाना हो जाने पर मैंने बचकानी बातें छोड़ दीं।

12) अभी तो हमें आईने में धुँधला-सा दिखाई देता है, परन्तु तब हम आमने-सामने देखेंगे। अभी तो मेरा ज्ञान अपूर्ण है; परन्तु तब मैं उसी तरह पूर्ण रूप से जान जाऊँगा, जिस तरह ईश्वर मुझे जान गया है।

13) अभी तो विश्वास, भरोसा और प्रेम-ये तीनों बने हुए हैं। किन्तु उनमें प्रेम ही सब से महान् हैं।


📒 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 4:21-30


21) तब वह उन से कहने लगे, ’’धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है’’।

22) सब उनकी प्रशंसा करते रहे। वे उनके मनोहर शब्द सुन कर अचम्भे में पड़ जाते और कहते थे, ’’क्या यह युसूफ़ का बेटा नहीं है?’’

23) ईसा ने उन से कहा, ’’तुम लोग निश्चय ही मुझे यह कहावत सुना दोगे-वैद्य! अपना ही इलाज करो। कफ़रनाहूम में जो कुछ हुआ है, हमने उसके बारे में सुना है। वह सब अपनी मातृभूमि में भी कर दिखाइए।’’

24) फिर ईसा ने कहा, ’’मैं तुम से यह कहता हूँ-अपनी मातृभूमि में नबी का स्वागत नहीं होता।

25) मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि जब एलियस के दिनों में साढ़े तीन वर्षों तक पानी नहीं बरसा और सारे देश में घोर अकाल पड़ा था, तो उस समय इस्राएल में बहुत-सी विधवाएँ थीं।

26) फिर भी एलियस उन में किसी के पास नहीं भेजा गया-वह सिदोन के सरेप्ता की एक विधवा के पास ही भेजा गया था।

27) और नबी एलिसेयस के दिनों में इस्राएल में बहुत-से कोढ़ी थे। फिर भी उन में कोई नहीं, बल्कि सीरी नामन ही निरोग किया गया था।’’

28) यह सुन कर सभागृह के सब लोग बहुत क्रुद्ध हो गये।

29) वे उठ खड़े हुए और उन्होंने ईसा को नगर से बाहर निकाल दिया। उनका नगर जिस पहाड़ी पर बसा था, वे ईसा को उसकी चोटी तक ले गये, ताकि उन्हें नीचे गिरा दें,

30) परन्तु वे उनके बीच से निकल कर चले गये।


📚 मनन-चिंतन


अपने घोषणापत्र की प्रस्तुति के तुरंत बाद, येसु को अपने गाँव के लोगों से परिचित होने के कारण विरोध का सामना करना पड़ा। ऐसा कहा जाता है, परिचितता अवमानना को जन्म देती है। येसु के मामले में वास्तव में यही हुआ था। उन्होंने दावा किया था कि वे ईश्वर के अभिषिक्त हैं। नाज़रेथ के लोग येसु से बहुत परिचित थे और मसीह के रूप में उनकी नई पहचान को वे आसानी से स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने उन्हें एक साधारण बढ़ई के रूप में देखा था। वे इस सच्चाई को नहीं समझ सके कि येसु ही मसीह हो सकते हैं। उन्हें उन पर शक था। इस अवमानना ने उनमें से कुछ लोगों को हिंसक विरोध करने के लिए प्रेरित किया। येसु कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते हैं बल्कि वहां से चले जाते हैं। कभी-कभी हम भी दूसरों का न्याय करने में अधीर होते हैं और लोगों की निंदा करने से पहले सभी तथ्यों को नहीं देखते हैं। हमारी अधीरता से कई पहल टूट जाती हैं। आइए हम ईश्वर के तरीकों को जानने के लिए दिव्य ज्ञान की तलाश करें। संत पौलुस हमें याद दिलाते हैं, "प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईर्ष्या करता है, न डींग मारता, न घमण्ड, करता है। प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता।" (1कुरिन्थियों 13:4)।



📚 REFLECTION

Immediately after the presentation of his manifesto, Jesus faced opposition caused by familiarity of the people of his village. It is said, familiarity breeds contempt. This is what really happened in the case of Jesus who claimed to be the anointed one of God. The people of Nazareth were too familiar with Jesus and could not easily accept his newly revealed identity as the Messiah. They had seen him as an ordinary carpenter. They could not understand the truth that Jesus could be the Messiah. They were skeptic about him. This contempt led some of them to violent opposition. Jesus does not react but moves away from there. Sometimes we too are impatient in judging others and do not look into all facts before condemning people. Many initiatives are torn down by our impatience. Let us seek the divine wisdom to know the ways of God. St. Paul reminds us, “Love is patient; love is kind; love is not envious or boastful or arrogant or rude” (1Cor 13:4).


📚 मनन-चिंतन -02


आप क्या करेगें? आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी? क्या कभी आपने ठोकर खायी है? किसी ने हिन्दी में कहा है ’बिना ठोकर खाकर कोई ठाकुर नहीं बनता।

मानवीय, सामाजिक जीवन में तिरस्कार, अनादर या अस्वीकार का अनुभव कोई नई बात नहीं है। ठोकर खाना, नफरत सहन करना, तिरस्कार का अनुभव इन्सान को बनाता (make), बिगाड़ता (break), नीचे गिराता या ऊपर उठाता है। नौकरी के लिए जाओ, दाखिले के लिए जाओ, कई स्थानों पर लोगों को भेदभाव की सच्चाई का सामना करना पडता है।

आज के पहले पाठ में (यिरमियाह 1:4-15,17) नबी यिरमियाह के बुलावे के बारे में वर्णन किया गया है। प्रभु परमेश्वर नबी यिरमियाह को बुलाते समय कहते हैं-‘‘माता के गर्भ में रचने से पहले ही मैंने तुम्हें चुन लिया।’’ वह ईश्वर के ज्ञान में था, पूर्व निर्धारित नबी यिरमियाह चुन लिया गया था, नियुक्त किया गया था। ईश्वर उन्हें इस कार्य के लिए सशक्त, सक्षम बनाते हैं और चेतावनी भी देते हैं कि उन्हें तिरस्कार का सामना करना होगा और उन्हें ढ़ाढ़स देते हैं कि उन्हें घबराना नहीं चाहिए, डरना नहीं चाहिए, क्योंकि ईश्वर उन्हें आश्वासन देते हैं कि वे उनके साथ हैं और उनका उध्दार करेंगे। अपने विशेष कार्यों के लिए ईश्वर अपने चुने हुए लोगों को अलग रखते, पवित्र रखते ताकि वे दूसरों से अलग हो जो जीवित मछली की तरह रहते नहीं लेकिन मृत मछली के जैसे जो पानी के बहाव में बह जाता है।

ईश्वर के कार्य के लिए ईश्वर द्वारा चुने जाने पर और लोगों के द्वारा अस्वीकार या तिरस्कार का सामना करने पर एक असमजंस की स्थिति पैदा होती है। डर का कारण यह हो सकता है कि कोई जोखिम उठाना नहीं चाहता है। लेकिन नबी यिरमियाह हिम्मत नहीं हारते हैं क्योंकि जिनको ईश्वर बुलाते हैं, इस बुलावे के साथ-साथ उन्हें वे सशक्त और संपन्न भी करते हैं।

दूसरे पाठ के द्वारा संत पौलुस कुरिन्थियों के पहले पत्र में इस बात का उल्लेख करते हैं कि प्यार सब से बड़कर है, सर्वोपरि है। येसु को भी नबी यिरमियाह के सदृश्य अस्वीकार का सामना करना पड़ा जैसे कि संत योहन के सुसमाचार में हम पढ़ते हैं कि ईश्वर का रूप येसु मसीह में पूर्णरूप से प्रकट हुआ। वे अपने ही लोगों के बीच में आये और अपने ही लोगों ने उसे नहीं अपनाया। जब नाजरेत निवासी उनको अस्वीकार करते हैं तब इसकी प्रतिक्रिया में पुरानी कहावत प्रकट करते हैं कि अपने ही स्थान में नबी का आदर नहीं होता।

1. यह घटना हमें पुरानी कहावत याद दिलाती है - घर की मुर्गी दाल बराबर।

2. हम/वर्त्तमान में brand और label की दुनिया में जीते हैं और लोगों को भी label करते हैं।

3. बाहरी रूप रंग देखना और स्वीकार या अस्वीकार करना एक मानसिकता है ।

4. हम हमारी पूर्वधारणा या मानसिकता को छोड़ें और नवीन दृष्टिकोण अपनाएं। ताकि नाजरेत के निवासियों के समान ईसा या किसी अच्छी चीज का तिरस्कार न करें या साबूत या प्रमाण न मागें।

5. ईश्वर का नबी होना खतरों से, जोखिमों से भरा है। नबी बनने के लिए हिम्मत चाहिए, नबी होना कोई profession नहीं, पेशा नहीं लेकिन बुलाहट है।


 -Br. Biniush Topno


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23 जनवरी 2022, इतवार

 

23 जनवरी 2022, इतवार

सामान्य काल का तीसरा इतवार

ईशवचन का इतवार

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📒 पहला पाठ : नहेम्या 8:2-6,8-10


2) पुरोहित एज्ऱा सभा में संहिता का ग्रन्थ ले आया। सभा में पुरुष, स्त्रियाँ और समझ सकने वाले बालक उपस्थित थे। यह सातवें मास का पहला दिन था।

3) उसने सबेरे से ले कर दोपहर तक जलद्वार के सामने के चैक में स्त्री-पुरुषों और समझ सकने वाले बालकों को ग्रन्थ पढ़ कर सुनाया। सब लोग संहिता का ग्रन्थ ध्यान से सुनते रहे।

4) शास्त्री एज़ा विशेष रूप से तैयार किये हुए लकड़ी के मंच पर खड़ा था। उसकी दाहिनी और मत्तित्या, शेमा, अनाया, ऊरीया, हिलकीया और मासेया थे और उसकी बायीं ओर पदाया, मीशाएल, मलकीया, हाशुम, हशबद्दाना, ज़कर्या और मशुल्लाम थे।

5) एज्ऱा लोगों से ऊँची जगह पर था। उसने सबों के देखने में ग्रन्थ खोल दिया। जब ग्रन्थ खोला गया, तो सारी जनता उठ खड़ी हुई।

6) तब एज्ऱा ने प्रभु, महान् ईश्वर का स्तुतिगान किया और सब लोगों ने हाथ उठा कर उत्तर दिया, "आमेन, आमेन!" इसके बाद वे झुक गये और मुँह के बल गिर कर उन्होंने प्रभु को दण्डवत् किया।

8) उन्होंने ईश्वर की संहिता का ग्रन्थ पढ़ कर सुनाया, इसका अनुवाद किया और इसका अर्थ समझाया, जिससे लोग पाठ समझ सकें।

9) इसके बाद राज्यपाल, नहेम्या, याजक तथा शास्त्री एज़्रा और लोगों को समझाने वाले लेवियों ने सारी जनता से कहा, "यह दिन तुम्हारे प्रभु-ईश्वर के लिए पवित्र है। उदास हो कर मत रोओ"; क्योंकि सब लोग संहिता का पाठ सुन कर रोते थे।

10) तब एज्ऱा ने उन से कहा, "जा कर रसदार मांस खाओ, मीठी अंगूरी पी लो और जिसके लिए कुछ नहीं बन सका, उसके पास एक हिस्सा भेज दो; क्योंकि यह दिन हमारे प्रभु के लिए पवित्र है। उदास मत हो। प्रभु के आनन्द में तुम्हारा बल है।"



📒 दूसरा पाठ : 1कुरिन्थियो 12:12-30


12) मनुष्य का शरीर एक है, यद्यपि उसके बहुत-से अंग होते हैं और सभी अंग, अनेक होते हुए भी, एक ही शरीर बन जाते हैं। मसीह के विषय में भी यही बात है।

13) हम यहूदी हों या यूनानी, दास हों या स्वतन्त्र, हम सब-के-सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सबों को एक ही आत्मा का पान कराया गया है।

14) शरीर में भी तो एक नहीं, बल्कि बहुत-से अंग हैं।

15) यदि पैर कहे, "मैं हाथ नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं?

16) यदि कान कहे, ’मैं आँख नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ’, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं?

17) यदि सारा शरीर आँख ही होता, तो वह कैसे सुन सकता? यदि सारा शरीर कान ही होता, तो वह कैसे सूँघ सकता?

18) वास्तव में ईश्वर ने अपनी इच्छानुसर शरीर में एक-एक अंग को अपनी-अपनी जगह रचा।

19) यदि सब-के-सब एक ही अंग होते, तो शरीर कहाँ होता?

20) वास्तव में बहुत-से अंग होने पर भी शरीर एक ही होता है।

21) आँख हाथ से नहीं कह सकती, ’मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं’, और सिर पैरों से नहीं कह सकता, ’मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं’।

22) उल्टे, शरीर के जो अंग सब से दुर्बल समझे जाते हैं, वे अधिक आवश्यक हैं।

23) शरीर के जिन अंगों को हम कम आदणीय समझते है।, उनका अधिक आदर करते हैं और अपने अशोभनीय अंगों की लज्जा का अधिक ध्यान रखते हैं।

24) हमारे शोभनीय अंगों को इसकी जरूरत नहीं होती। तो, जो अंग कम आदरणीय हैं, ईश्वर ने उन्हें अधिक आदर दिलाते हुए शरीर का संगठन किया है।

25) यह इसलिए हुआ कि शरीर में फूट उत्पन्न न हो, बल्कि उसके सभी अंग एक दूसरे का ध्यान रखें।

26) यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती हैं और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं।

27) इसी तरह आप सब मिल कर मसीह का शरीर हैं और आप में से प्रत्येक उसका एक अंग है।

28) ईश्वर ने कलीसिया में भिन्न-भिन्न लोगों को नियुक्त किया है- पहले प्रेरितों को, दूसरे भविष्यवक्ताओं को, तीसरे शिक्षकों और तब चमत्कार दिखाने वालों को। इसके बाद स्वस्थ करने वालों, परोपकारकों, प्रशासकों, अनेक भाषाएँ बोलने वालों को।

29) क्या सब प्रेरित हैं? सब भविष्यवक्ता हैं? सब शिक्षक हैं? सब चमत्कार दिखने वाले हैं? सब भाषाएँ बोलने वाले हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं?

30) सब स्वस्थ करने वाले हैं? सब भाषाएँ बोलने वाले हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं?



📒 सुसमाचार : लूकस 1:1-4, 4:14-21


1:1) जो प्रारम्भ से प्रत्यक्षदर्शी और सुसमाचार के सेवक थे, उन से हमें जो परम्परा मिली, उसके आधार पर

2) बहुतों ने हमारे बीच हुई घटनाओं का वर्णन करने का प्रयास किया है।

3) मैंने भी प्रारम्भ से सब बातों का सावधानी से अनुसन्धान किया है; इसलिए श्रीमान् थेओफि़लुस, मुझे आपके लिए उनका क्रमबद्ध विवरण लिखना उचित जान पड़ा,

4) जिससे आप यह जान लें कि जो शिक्षा आप को मिली है, वह सत्य है।

14) आत्मा के सामर्थ्य से सम्पन्न हो कर ईसा गलीलिया लौटे और उनकी ख्याति सारे प्रदेश में फैल गयी।

15) वह उनके सभागृहों में शिक्षा दिया करते और सब उनकी प्रशंसा करते थे।

16) ईसा नाज़रेत आये, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। विश्राम के दिन वह अपनी आदत के अनुसार सभागृह गये। वह पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए

17) और उन्हें नबी इसायस की पुस्तक़ दी गयी। पुस्तक खोल कर ईसा ने वह स्थान निकाला, जहाँ लिखा हैः

18) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ, दलितों को स्वतन्त्र करूँ

19) और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।

20) ईसा ने पुस्तक बन्द कर दी और वह उसे सेवक को दे कर बैठ गये। सभागृह के सब लोगों की आँखें उन पर टिकी हुई थीं।

21) तब वह उन से कहने लगे, "धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है"।


📚 मनन-चिंतन


आज के सुसमाचार में हम येसु को अपनी परिकल्पना और मिशन नाज़रथ के सभागृह में प्रस्तुत करते हुए पाते हैं जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। वे यह कार्य नबी इसायाह के ग्रन्थ के अध्याय 61 की भविष्यवाणियों का हवाला देते हुए करते हैं जहाँ मसीह, प्रभु के अभिषिक्त, के कार्य का वर्णन किया गया है। वे भविष्यवाणियां येसु की बातें सुनने वाले लोगों के सामने साकार हो रही थीं। येसु ही प्रभु का अभिषिक्त है। पुराने विधान में, याजकों, नबियों तथा राजाओं का अभिषेक किया जाता था। प्रभु येसु एक ही समय में याजक, नबी और राजा हैं। मेलकीसेदेक के समान येसु सबसे बड़ा महायाजक हैं। वे मूसा के समान एक नबी है, जिन्हें ईश्वर ने इस्राएली लोगों के बीच उनके भाईयों में से उप्तन्न किया है। वे राजाओं का राजा और प्रभुओं का प्रभु है। उनका अभिषेक स्वयं लिए नहीं, बल्कि ईश्वर की प्रजा के लिए किया गया था। वे हमारे लिए अभिषेक किये गये थे। उनका प्रेम हमें मुक्त करे।



📚 REFLECTION

In today’s Gospel we find Jesus presenting his vision and mission in the Synagogue of Nazareth where he had been brought up. He does this by quoting the prophecies of Isaiah 61 where the task of the Messiah, the Anointed One is described. Those prophecies were being realized in the hearing of the people. Jesus is the Anointed One. In the Old Testament, the priests, prophets and kings were anointed. Jesus is at the same time Priest, Prophet and King. Jesus is the Greatest High Priest after the model of Melchizedek. He is a Prophet like Moses raised up by God from among his People. He is the King of kings and Lord of lords. He was anointed not for himself, but for God’s people. He was anointed for us. May his love liberate us.


📚 मनन-चिंतन -02

आज के सुसमाचार में संत लूकस बडे़ ही सुन्दर शब्दों में प्रभु येसु के द्वारा अपने गॉव के सभागृह में किये गये कार्यों को हमें बताते हुये कहते हैं - वे खड़े होते हैं, पवित्र ग्रन्थ को अपने हाथों में लेते हैं और पवित्र ग्रन्थ में नबी इसायाह से एक पाठ पढ़ते हैं। इसके तत्पश्चात वे किताब को बन्द करते हैं और अपने स्थान पर बैठ जाते हैं। हर एक ख्रीस्तीय को ध्यानपूर्वक इन शब्दों को सुनना चाहिये जिसे प्रभु येसु ने हम सबों के लिये चुना है। इसी कार्य को आगे बढ़ाने के लिये ईश्वर ने संत लूकस को चुना। संत लूकस कभी भी किसी धर्म को सही ढ़ंग से चलाने की बात नहीं करते और न ही अधिक योग्य रीति से पूजा करने की बात करते हैं, परन्तु वे स्वतत्रता को बढ़ावा देकर, विश्वास, ज्योति, गरीबों के लिये आर्शीवाद का कारण बनने की बात करते हैं। ये ही वे शब्द हैं जिन्हें प्रभु येसु पढ़ते हैं, ‘प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है,...उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ।’’

येसु के मिशन को आज के सुसमाचार में एक महान विचार के रूप में व्यक्त किया गया है। यर्दन नदी में उन पर जो पवित्र आत्मा उतरे थे, वे जीवन देने के तरीके को सिखाने में अग्रसर थे। हमें बताया गया है कि उन्होंने विश्राम के दिन सभागृह में प्रवेश किया, जैसा कि वे आम तौर पर किया करते थे। येसु का ऐसा करना एक नये युग के आरंभ होने की घोषणा थी। नबी इसायस ने स्पष्ट रूप से भविष्यवाणी की थी कि जब मसीह आयेंगे तो क्या होगा।

येसु मसीह की शिक्षाओं को जीना और उनकी घोषणा करना आसान नहीं है। जो लोग सबसे अधिक पीड़ित होते हैं उनसे दूर रह कर हम किस सुसमाचार कर रहे हैं, किस येसु का हम अनुसरण कर रहे हैं? किस आध्यात्मिकता को बढ़ावा दे रहे हैं? अगर स्पश्ट शब्दों में कहा जाये तो आज की कलीसियाई समुदायों के बारे में हमारी क्या धारणा है? क्या हम उसी दिशा में चल रहे हैं जिसे येसु ने प्रकट किया था?

येसु ने उस अदभुत वाक्य को पढ़ा, फिर स्क्रोल को आगे बढ़ाया और घोषणा की कि आज ये शब्द मेरे बोलते हुये सच हो रहे हैं। इस बात को लोग स्वीकार नहीं कर पाये।

येसु के मिशन को आज के सुसमाचार में बहुत बल के साथ व्यक्त किया गया है। कुछ बुनियादी विद्रोह और गर्व अन्धापन और उत्पीड़न की ओर ले जाता है। ऐसा कुछ नहीं है जिसे हम बाहर से कुछ मदद के बिना हल कर सकते हैं। लेकिन हम से जुड़ने के लिये, हमारे नेतृत्व करने के लिये, हमें बचाने के लिये येसु हमारे साथ हैं। यह वह शक्तिशाली खुशखबरी है जिसकी घोषणा उन्होंने नाजरेत के सभागृह में की थी। प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उन्होंने गरीबों के लिये मेरा अभिशेक किया है।

येसु का जीवन ज़रूरतमन्दों के लिए समर्पित था और वे चाहते हैं कि हम भी जो उनके चेले हैं, ज़रूरतमन्दों की सेवा करें। वास्तव में येसु के शिष्य येसु के मिशन-कार्य को ही आगे बढ़ाते हैं। हम भी उनके मिशन-कार्य को जारी रखते हैं। हम भी दरिद्रों को सुसमाचार सुनाने, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश देने, दलितों को स्वतन्त्र करने के लिए बुलाये गये हैं। हमारी प्रतिक्रिया क्या है?


 -Br. Biniush Topno


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18 जनवरी 2022, मंगलवार

 

18 जनवरी 2022, मंगलवार

सामान्य काल का दूसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ: समुएल का पहला ग्रन्थ 16:1-13

1) प्रभु ने समूएल से कहा, ‘‘तुम कब तक उस साऊल के कारण शोक मनाते रहोगे, जिसे मैंने इस्राएल के राजा के रूप में अस्वीकार किया है? तुम सींग में तेल भर कर जाओ। मैं तुम्हें बेथलेहेम-निवासी यिशय के यहाँ भेजता हूँ, क्योंकि मैंने उसके पुत्रों में एक को राजा चुना है।"

2) समूएल ने यह उत्तर दिया, ‘‘मैं कैसे जा सकता हूँ? साऊल को इसका पता चलेगा और वह मुझे मार डालेगा।’’ इस पर प्रभु ने कहा, ‘‘अपने साथ एक कलोर ले जाओ और यह कहो कि मैं प्रभु को बलि चढ़ाने आया हूँ।

3) यज्ञ के लिए यिशय को निमन्त्रण दो। मैं बाद में तुम्हें बताऊँगा कि तुम्हें क्या करना है- मैं जिसे तुम्हें दिखाऊँगा, उसी को मेरी ओर से अभिशेक करोगे।’’

4) प्रभु ने जो कहा था, समूएल ने वही किया। जब वह बेथलेहेम पहुँचा, तो नगर के अधिकारी घबरा कर उसके पास दौडे़ आये और बोले, ‘‘कैसे पधारे? कुशल तो है?’’

5) समूएल ने कहा, ‘‘सब कुशल है। मैं प्रभु को बलि चढ़ाने आया हूँ। अपने को शुद्ध करो और मेरे साथ बलि चढ़ाने आओ।’’ उसने यिशय और उसके पुत्रों को शुद्ध किया और उन्हें यज्ञ के लिए निमन्त्रण दिया।

6) जब वे आये और समूएल ने एलीआब को देखा, तो वह यह सोचने लगा कि निश्चय ही यही ईश्वर का अभिषिक्त है।

7) परन्तु ईश्वर ने समूएल से कहा, ‘‘उसके रूप-रंग और लम्बे क़द का ध्यान न रखो। मैं उसे नहीं चाहता। प्रभु मनुष्य की तरह विचार नहीं करता। मनुष्य तो बाहरी रूप-रंग देखता है, किन्तु प्रभु हृदय देखता है।’’

8) यिशय ने अबीनादाब को बुला कर उसे समूएल के सामने उपस्थित किया। समूएल ने कहा, ‘‘प्रभु ने उसे को भी नहीं चुना।’’

9) तब यिशय ने शम्मा को उपस्थित किया, किन्तु समूएल ने कहा, ‘‘प्रभु ने उस को भी नहीं चुना।’’

10) इस प्रकार यिशय ने अपने सात पुत्रों को समूएल के सामने उपस्थित किया। किन्तु समूएल ने यिशय से कहा, ‘‘प्रभु ने उन में किसी को भी नहीं चुना।’’

11) उसने यिशय से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे पुत्र इतने ही है? ’’यिशय ने उत्तर दिया, ‘‘सब से छोटा यहाँ नहीं है। वह भेडे़ चरा रहा है।‘‘ तब समूएल ने यिशय से कहा, ‘‘उसे बुला भेजो। जब तक वह नहीं आयेगा, हम भोजन पर नहीं बैठेंगे।’’

12) इसलिए यिशय ने उसे बुला भेजा। लड़के का रंग गुलाबी, उसकी आँखें सुन्दर और उसका शरीर सुडौल था। ईश्वर ने समूएल से कहा, ‘‘उठो, इसका अभिशेक करो। यह वही है।’’

13) समूएल ने तेल का सींग हाथ में ले लिया और उसके भाइयों के सामने उसका अभिशेक किया। ईश्वर का आत्मा दाऊद पर छा गया और उसी दिन से उसके साथ विद्यमान रहा। समूएल लौट कर रामा चल दिया।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 2:23-28

23) ईसा किसी विश्राम के दिन गेहूँ के खे़तों से हो कर जा रहे थे। उनके शिष्य राह चलते बालें तोड़ने लगे।

24) फ़रीसियों ने ईसा से कहा, ’’देखिए, जो काम विश्राम के दिन मना है, ये क्यों वही कर रहे हैं?’’

25) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ’’क्या तुम लोगों ने कभी यह नहीं पढ़ा कि जब दाऊद और उनके साथी भूखे थे और खाने को उनके पास कुछ नहीं था, तो दाऊद ने क्या किया था?

26) उन्होंने महायाजक अबियाथार के समय ईश-मन्दिर में प्रवेश कर भेंट की रोटियाँ खायीं और अपने साथियों को भी खिलायीं। याजकों को छोड़ किसी और को उन्हें खाने की आज्ञा तो नहीं थी।’’

27) ईसा ने उन से कहा, ’’विश्राम-दिवस मनुष्य के लिए बना है, न कि मनुष्य विश्राम-दिवस के लिए।

28) इसलिए मानव पुत्र विश्राम-दिवस का भी स्वामी है।’’

📚 मनन-चिंतन

फरीसियों को क्रोधित करने वाली एक बात यह थी कि येसु ने विश्राम दिवस के नियमों को तोड़ा। फरीसियों ने विश्राम दिवस के नियमों की व्याख्या बहुत ही संकीर्ण तरीके से की थी। येसु चाहते थे कि वे समझें कि ईश्वर की आज्ञाएँ मनुष्य के लाभ और कल्याण के लिए हैं। हमारे प्रभु चाहते हैं कि हम सुखी रहें। कानूनों का इस्तेमाल इंसानों पर अत्याचार करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसके विपरीत येसु कहते हैं, “थके-माँदे और बोझ से दबे हुए लोगो! तुम सभी मेरे पास आओ। मैं तुम्हें विश्राम दूँगा। मेरा जूआ अपने ऊपर ले लो और मुझ से सीखो। मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूँ। इस तरह तुम अपनी आत्मा के लिए शान्ति पाओगे, क्योंकि मेरा जूआ सहज है और मेरा बोझ हल्का।" (मत्ती 11:28-30)। प्रभु में, हमें आराम, सांत्वना और आनंद पाना चाहिए।


📚 REFLECTION

One of the things that angered the Pharisees was that Jesus broke the Sabbath laws. The Pharisees had interpreted the Sabbath laws in a very narrow and ritualistic way. Jesus wanted them to understand that the commandments of God were meant for the benefit and welfare of human beings. Our Lord wants us to be happy. The laws were not meant to be used to oppress human beings. On the contrary Jesus says, “Come to me, all you that are weary and are carrying heavy burdens, and I will give you rest. Take my yoke upon you, and learn from me; for I am gentle and humble in heart, and you will find rest for your souls. For my yoke is easy, and my burden is light.” (Mt 11:28-30). In the Lord, we need to find comfort, solace and joy.



📚 मनन-चिंतन - 02


धार्मिक प्रथाओं सहित किसी भी प्रकार के मानव व्यवहार या प्रथा से प्रभु ईश्वर को कोई लाभ नहीं होता है। धर्म मनुष्य के लिए है कि वह अपने जीवन के लिए समझदार लक्ष्य और मूल्य प्रणाली रख सकें। ईश्वर सभी लोगों की भलाई चाहते हैं। ईश्वर केवल एक है। कोई ईसाई ईश्वर, हिंदू ईश्वर या इस्लामी ईश्वर नहीं है। ईश्वर सभी का कल्याण चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई भी भूखा, प्यासा, बीमार या परेशानी में रहे। वे चाहते हैं कि सभी लोगों का जीवन आरामदायक और शांतिप्रद हो। येसु के प्रचार के विषय, ईश्वर के राज्य का सारांश भी यही था। प्रभु ने मानव को प्रभु के दिन को पवित्र रखने की आज्ञा दी। वह विश्राम का दिन है। यह कानून मानव के कल्याण के लिए बनाया गया था। हम किसी भी तरह से ईश्वर के नाम पर विभिन्न धार्मिक प्रथाओं को शुरू करके ईश्वर की महानता में कुछ नहीं जोड़ सकते हैं। विश्राम दिवस के आचरण की आज्ञा लोगों को परेशान करने की आज्ञा नहीं थी, बल्कि लोगों को आराम और विश्राम देने के लिए थी। येसु के समय के कुछ निष्ठावान धर्मगुरुओं ने विश्राम दिवस के आचरण के लिए कई नियम बनाये और प्रतिबंध लगाए। वे लोगों के लिए सहायक नहीं थे, लेकिन उन्होंने उनके जीवन को दयनीय बना दिया। हमें अपने नियमों और विनियमों की जांच करने और उन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है कि क्या वे ईश्वर और पड़ोसी को प्यार करने में सहायक हैं या नहीं।



📚 REFLECTION


God does not benefit from human practices of any kind including religious practices. Religion is meant for human beings to have sensible goal and a value system for their lives. God wills the good of all. There is only one God. There is no Christian God, Hindu God or Islamic God. God wants the welfare of everyone. He does not want any one to remain hungry, thirsty, sick or in trouble. He wants everyone to have a comfortable, peaceful and joyful life. That is the logic of the Kingdom of God, the theme of Jesus’ preaching. The Lord commanded human beings to keep the Sabbath holy. That is a day of rest – a day to rest in God, to breathe the goodness of God. This law was made for the welfare of the human beings. We cannot add in any way to the greatness of God by introducing various new religious practices in the name of God. Sabbath was not meant to be a law to trouble the people of God, but was meant to give rest and relaxation to God’s people. Some of the scrupulous religious leaders of Jesus’ time introduced too many regulations and restrictions for the practice of the Sabbath. They were not helpful to people but made their lives difficult and at times miserable. We need to examine and reconsider our rules and regulations as to whether they are helpful in loving God and the neighbor.


 -Br. Biniush Topno


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16 जनुवरी 2022, इतवार

 

16 जनवरी 2022, इतवार

सामान्य काल का दूसरा इतवार

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📒 पहला पाठ : इसायाह 62:1-5

1) मैं सियोन के विषय में तब तक चुप नहीं रहूँगा, मैं येरुसालेम के विषय में तब तक विश्राम नहीं करूँगा, जब तक उसकी धार्मिकता उषा की तरह नहीं चमकेगी, जब तक उसका उद्धार धधकती मशाल की तरह प्रकट नहीं होगा।

2) तब राष्ट्र तेरी धार्मिकता देखेंगे और समस्त राजा तेरी महिमा। तेरा एक नया नाम रखा जायेगा, जो प्रभु के मुख से उच्चरित होगा।

3) तू प्रभु के हाथ में एक गौरवपूर्ण मुकुट बनेगी, अपने ईश्वर के हाथ में एक राजकीय किरीट।

4) तू न तो फिर ’परित्यक्ता’ कहलायेगी और न तेरा देश ’उजाड़’; बल्कि तू ’परमप्रिय’ कहलायेगी और तेरे देश का नाम होगाः ’सुहागिन’; क्योंकि प्रभु तुझ पर प्रसन्न होगा और तेरे देश को एक स्वामी मिलेगा।

5) जिस तरह नवयुवक कन्या से ब्याह करता है, उसी तरह तेरा निर्माता तेरा पाणिग्रहण करेगा। जिस तरह वर अपनी वधू पर रीझता है, उसी तरह तेरा ईश्वर तुझ पर प्रसन्न होगा।



📒 दूसरा पाठ : 1कुरिन्थियो 12:4-11


4) कृपादान तो नाना प्रकार के होते हैं, किन्तु आत्मा एक ही है।

5) सेवाएँ तो नाना प्रकार की होती हैं, किन्तु प्रभु एक ही हैं।

6) प्रभावशाली कार्य तो नाना प्रकार के होते हैं, किन्तु एक ही ईश्वर द्वारा सबों में सब कार्य सम्पन्न होते हैं।

7) वह प्रत्येक को वरदान देता है, जिससे वह सबों के हित के लिए पवित्र आत्मा को प्रकट करे।

8) किसी को आत्मा द्वारा प्रज्ञा के शब्द मिलते हैं, किसी को उसी आत्मा द्वारा ज्ञान के शब्द मिलते हैं

9) और किसी को उसी आत्मा द्वारा विश्वास मिलता है। वही आत्मा किसी को रोगियों को चंगा करने का,

10) किसी को चमत्कार दिखाने का, किसी को भविष्यवाणी करने का, किसी को आत्माओं की परख करने का, किसी को भाषाएँ बोलने का और किसी को भाषाओं की व्याख्या करने का वरदान देता है।

11) एक ही और वही आत्मा यह सब करता है; वह अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्येक को अलग-अलग वरदान देता है।


📒 सुसमाचार : योहन 2:1-11


1) तीसरे दिन गलीलिया के काना में एक विवाह था। ईसा की माता वहीं थी।

2) ईसा और उनके शिष्य भी विवाह में निमन्त्रित थे।

3) अंगूरी समाप्त हो जाने पर ईसा की माता ने उन से कहा, "उन लोगो के पास अंगूरी नहीं रह गयी है"।

4) ईसा ने उत्तर दिया, "भदे! इस से मुझ को और आप को क्या, अभी तक मेरा समय नहीं आया है।"

5) उनकी माता ने सेवकों से कहा, "वे तुम लोगों से जो कुछ कहें वही करना"।

6) वहाँ यहूदियों के शुद्धीकरण के लिए पत्थर के छः मटके रखे थे। उन में दो-दो तीन तीन मन समाता था।

7) ईसा ने सेवकों से कहा, “मटकों में पानी भर दो“। सेवकों ने उन्हें लबालब भर दिया।

8) फिर ईसा ने उन से कहा, "अब निकाल कर भोज के प्रबन्धक के पास ले जाओ"। उन्होंने ऐसा ही किया।

9) प्रबन्धक ने वह पानी चखा, जो अंगूरी बन गया था। उसे मालूम नहीं था कि यह अंगूरी कहाँ से आयी है। जिन सेवकों ने पानी निकाला था, वे जानते थे। इसलिए प्रबन्धक ने दुल्हे को बुला कर

10) कहा, "सब कोई पहले बढि़या अंगूरी परोसते हैं, और लोगों के नशे में आ जाने पर घटिया। आपने बढि़या अंगूरी अब तक रख छोड़ी है।"

11) ईसा ने अपना यह पहला चमत्कार गलीलिया के काना में दिखाया। उन्होंने अपनी महिमा प्रकट की और उनके शिष्यों ने उन में विश्वास किया।


📚 मनन-चिंतन


हमारी धन्य माँ मरियम ने काना में परिवार की आवश्यकता को महसूस किया और उन्हें राहत दिलाने के लिए सामने आयी। वे परिवार की मदद करने हेतु एक चमत्कार करने के लिए येसु से निवेदन करती हैं। यही वे सभी मानव परिवारों के लिए करना चाहती हैं। ऐसा लगता है कि उस परिवार के किसी भी सदस्य ने उनसे मदद नहीं मांगी थी। माता मरियम ने उनकी मदद करने की पहल की क्योंकि वे उनके प्रति दयालु और सहानुभूतिपूर्ण मनोभाव रखती थीं। वे उनके कल्याण और अच्छे नाम में रुचि रखती थी। लूक 1:39-45 में हम देखते हैं कि मरियम एलिज़बेथ की सहायता करने के लिए यूदा के नगर के लिए शीघ्रता से प्रस्थान करती हैं। सुसमाचार हमें यह नहीं बताता है कि एलिज़बेथ ने भी मरियम की मदद माँगी थी। वे हमारी कठिनाइयों में हमारी मदद करने के लिए पहल करती है। वे हमारी सहायता करने के लिए तत्पर रहती हैं। यदि हम मरियम के करीब रहेंगे, तो वे हमारी कठिनाइयों और समस्याओं के समय सक्रिय बन कर अपने पुत्र येसु से समाधान ढूंढेगी।



📚 REFLECTION

Our Blessed Mother sensed the need of the family at Cana and came to their rescue. She approached Jesus to work a miracle to help the family. This is what she wishes to do for all human families. The family does not seem to have asked her for help. She took the initiative to help them because she was compassionate and sympathetic towards them. She was interested in their welfare and good name. In Lk 1:39-45 we find Mary rushing to Elizabeth’s home to assist her. There too we do not find any request made to Mary. She takes initiative to help us in our difficulties. If we keep close to Mary, she will act in times of our difficulties and problem and find solution from Jesus, her son.


📚 मनन-चिंतन -02


संत योहन के सुसमाचार में येसु की माता मरियम का उल्लेख केवल दो ही बार किया गया है- एक काना के विवाह भोज में जहाँ से येसु अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करते हैं तथा दूसरा क्रूस मरण के समय। यह एक प्रकार से हमें बताने का तरीका हो सकता है कि माता मरियम के द्वारा जो भूमिका निभाई गई है उससे यह स्पष्ट होता है वे न केवल येसु की माँ थी बल्कि वह प्रभु येसु के साथ हमारे मुक्ति कार्य में सक्रिय रुप से सहभागिनी भी थी। हमने पढ़ा है कि काना के विवाह भोज में माता मरियम आमंत्रित थी तथा स्वयं येसु और उनके शिष्य भी आमंत्रित किये गये थे। भोज शुरु होने के कुछ देर बाद ही अंगूरी समाप्त हो गई, माता मरियम स्वयं इसकी पहल करते हुये अपने पुत्र येसु से निवेदन करती है और येसु अपना प्रथम चमत्कार करते हैं।

माता मरियम को यह कैसे मालूम था कि उनका पुत्र यह कर सकते हैं? दूसरा दिलचस्प प्रश्न इस घटना से यह उठता है कि यदि माता मरियम को यह पता था कि येसु चमत्कार कर सकते हैं तो फिर भी उन्होंने कभी भी अपने परिवार के लिये यह नहीं मांगा कि रुपयों-पैसों में कुछ वृद्धि कर दो जिससे परिवार की जरुरतें पूरी की जा सके? आखिर परोपकार घर से ही तो शुरु होता है! परन्तु मरियम और येसु ने अपनी जरुरतों से कहीं अधिक सर्वप्रथम ईश्वर की इच्छा को प्रथम स्थान दिया।

येसु जानते थे कि उनमें लोगों के जीवन का उद्धार करने की शक्ति है। येसु चालीस दिन तक निर्जन प्रदेश में उपवास करते हैं। इसके बाद उन्हें भूख लगी। तब शैतान आकर उन्हें सलाह देता है कि वह पत्थरों को रोटियों में बदल ले और अपनी भूख मिटायें, परन्तु येसु यह नहीं करते हैं। लेकिन बाद में हम यह देखते हैं कि येसु रोटियों का चमत्कार कर एक बड़ी भीड़ को खिलाते हैं। काना का चमत्कार हमें क्या बताता है? क्या ईश्वरीय वरदान अपने स्वयं के लाभ के लिये है या फिर दूसरों की सेवा एवं भलाई के लिये है? आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस पवित्र आत्मा के विभिन्न वरदानों का वर्णन करते हुये कहते हैं कि पवित्र आत्मा प्रत्येक को दूसरों की भलाई एवं सार्वजनिक कल्याण के लिये वरदान देता है।

ईश्वर ने मुझे क्या-क्या वरदान दिये हैं? क्या मैं इन वरदानों का उपयोग अपने समुदाय की सेवा एवं भलाई के लिये करता हूँ? शायद हम आश्चर्य करते होंगे कि आजकल पवित्र आत्मा के प्रकटीकरण क्यों नहीं होते हैं, जैसा कि हम बाइबिल में पढ़ते हैं। कितना अच्छा होता शायद यदि हम अपने अन्दर मौजूद वरदानों को दूसरों की भलाई के लिये उपयोग करते जैसे प्रार्थना, गीत-संगीत, पालन-पोषण, परोपकार, प्रोत्साहन, सहायता, प्रेरणा-देने, लिखने या व्याख्या आदि का वरदान। तब हम अपने जीवन में चमत्कार देखेंगे कि दूसरों के साथ सहानुभूति एक मूल चमत्कार है। हम अपने स्वयं के लिये असीसी के संत फ्रांसिस की प्रार्थना को बोल सकते हैं-

हे प्रभु मुझे अपनी शांति का साधन बना।

जहाँ घृणा हो, वहाँ मैं प्रेम भर दूँ।

जहाँ आघात हो वहाँ क्षमा भर दूँ।

जहाँ शंका हो वहाँ विश्वास भर दूँ ।

जहाँ निराशा हो वहाँ मैं आशा जगा दूँ।

जहाँ अंधकार हो वहाँ मैं ज्योति जला दूँ।

जहाँ खिन्नता हो वहाँ मैं हर्ष भर दूँ।

हे मेरे ईश्वर मुझे यह वरदान दो कि मैं

सान्त्वना पाने की आशा न करूँ बल्कि सान्त्वना देता रहूँ

समझा जाने की आशा न करूँ, बल्कि समझता ही रहूँ

प्यार पाने की आशा न करूँ, बल्कि प्यार देता ही रहूँ

क्योंकि त्याग के द्वारा ही प्राप्ति होती है,

माफ करने से ही माफी मिलती है, तथा मृत्यु के द्वारा ही अनन्त जीवन की प्राप्ति होती है।

सुसमाचार लेखक संत योहन यह नहीं कहते हैं कि येसु ने चमत्कार या आश्चर्यजनक कार्य किये बल्कि वे उन्हें ‘चिन्ह‘ कहते हैं क्योंकि वे हमें अधिक गहराई से समझने की ओर इशारा करते हैं जो हमारी आँखों के परे है। सही अर्थों में यह ‘चिन्ह‘ ही है जो येसु ने प्रदर्शित किया था जो उनके व्यक्तित्व और उसके मनुष्यों को बचाने की शक्ति को वर्णन करते हैं। जो चमत्कार काना के विवाह भोज में हुआ था यह उसकी शुरुआत थी। यह एक नमूना था कि येसु इस प्रकार के अन्य कार्य अपने पूरे जीवन काल में करेंगे।

बहुत से लोगों को चर्च के कार्यों को जीवन प्रदान करने वाला नहीं बल्कि पूजन समारोह उन्हें निरर्थक लगता है। कलीसिया की ओर से उन्हें उन चिन्हों को देखने की जरुरत है जो अधिक स्नेहशील एवं जीवन-दायक हैं, जिससे कि ख्रीस्तीयों में प्रभु येसु के दुःखों और कष्टों को दूर करने की क्षमता को देख सकें। कोई भी ऐसी खबर को नहीं सुनना चाहता जो उन्हें खुशी प्रदान नहीं करती और विशेषकर जब सुसमाचार अधिकार जताते हुये और प्रवचन धमकी भरे शब्दों में दिया जाये? प्रभु येसु ख्रीस्त प्यार करने की शक्ति और हमारे अस्तित्व को महत्व देने ही आये ताकि हम समझदारी एवं आनंद का जीवन जी सकें। अगर आज लोग केवल सैद्धांतिक धर्म के बारे में जानते हैं तो वे कभी भी येसु के द्वारा फैलाई गई खुशी का अनुभव नहीं कर पायेंगे और बहुत से लोग अपने को ईश्वर से दूर रखेंगे।

विवाह समारोह में पानी, दाखरस के रुप में तभी अनुभव किया गया जब वह ‘बढ़ाया गया‘ अथार्त जब उसे छः बडे़ पानी के मटकों में भरा गया जो यहूदियों के शुध्दीकरण के लिये प्रयोग किया जाता था। सिद्धांत पर आधारित धर्म आज समाप्त हो चुका है। उसमें जीवनदायक जल नहीं है जिसमें सभी मानवीय जरुरतों को शुद्ध तथा संतुष्ट करने की क्षमता हो। येसु के परिवर्तन लाने वाली शक्ति को व्यक्त करने के लिये केवल शब्द ही पर्याप्त नहीं है वरन् सेवा भावना की जरुरत है। सुसमाचार का प्रचार मात्र बात करना, प्रवचन देना, शिक्षा देना, किसी का न्याय करना, डराना और दोषी ठहराना नहीं है। हमें जरुरत है कि हम स्वयं की जीवन-शैली के माध्यम से प्रसन्नचित येसु को दर्शा सकें। आज हमारे धर्म को जरुरत है कि यह एक आनंद एवं समारोह का स्थान हो जहाँ विश्वासीगण अपनेपन का अहसास कर सके जैसा कि काना के विवाह भोज में हुआ था।


 -Br. Biniush Topno


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13 जनवरी 2022, गुरुवार

 

13 जनवरी 2022, गुरुवार

सामान्य काल का पहला सप्ताह

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

📒 पहला पाठ: समुएल का पहला ग्रन्थ 4 :1-11


1) समूएल की बात इस्राएल भर में मान्य थी। उन दिनों फ़िलिस्ती इस्राएल पर आक्रमण करने के लिए एकत्र हो गये और इस्राएली उनका सामना करने निकले। उन्होंने एबेन-एजे़र के पास पड़ाव डाला और फ़िलिस्तियों ने अफ़ेद मे।

2) फ़िलिस्ती इस्राएलियों के सामने पंक्तिबद्ध हो गये। घमासान युद्ध हुआ और इस्राएली हार गये। फ़िलिस्तियों ने रणक्षेत्र में लगभग चार हजार सैनिकों को मार डाला।

3) जब सेना पड़ाव में लौट आयी, तो इस्राएली नेताओं ने कहा, ‘‘प्रभु ने आज हमें फ़िलिस्तियों से क्यों हारने दिया? हम षिलो जा कर प्रभु की मंजूषा ले आयें। वह हमारे साथ चले और हमें हमारे शत्रुओं के पंजे से छुड़ाये।’’

4) उन्होंने मंजूषा ले आने कुछ लोगों को षिलों भेजा। यह विश्वमण्डल के प्रभु के विधान की मंजूषा है, जो केरूबीम पर विराजमान है। एली के दोनों पुत्र होप़नी और पीनहास ईश्वर के विधान की मंजूषा के साथ आये।

5) जब प्रभु के विधान की मंजूषा पड़ाव में पहुँची, तो सब इस्राएली इतने ज़ोर से जयकार करने लगे कि पृथ्वी गूँज उठी।

6) फ़िलिस्तियों ने जयकार का वह नाद सुन कर कहा, ‘‘इब्रानियों के पड़ाव में इस महान् जयकार का क्या अर्थ है?’’ जब उन्हें यह पता चला कि प्रभु की मंजूषा पड़ाव में आ गयी है,

7) तो वे डरने लगे। उन्होंने कहा, ‘‘ईश्वर पड़ाव में आ गया है।

8) हाय! हम हार गये! उस शक्तिशाली ईश्वर के हाथ से हमें कौन बचा सकता है? यह तो वही ईश्वर है, जिसने मिस्रियों को मरुभूमि में नाना प्रकार की विपत्तियों से मारा।

9) फ़िलिस्तियों! हिम्मत बाँधों और शूरवीरों की तरह लड़ो! नहीं तो तुम इब्रानियों के दास बनोगे, जैसे कि वे तुम्हारे दास थे। शूरवीरों की तरह लड़ो!’’

10) फ़िलिस्तियों ने आक्रमण किया। इस्राएली हार कर अपने तम्बूओं में भाग गये। यह उनकी करारी हार थी। इस्राएलियों के तीस हज़ार पैदल सैनिक मारे गये,

11) ईश्वर की मंजूषा छीन ली गयी और एली के दोनों पुत्र होप़नी और पीनहास भी मार दिये गये।


📒 सुसमाचार : सन्त मारकुस 1:40-45


40) एक कोढ़ी ईसा के पास आया और घुटने टेक कर उन से अनुनय-विनय करते हुए बोला, ’’आप चाहें तो मुझे शुद्ध कर सकते हैं’’।

41) ईसा को तरस हो आया। उन्होंने हाथ बढ़ाकर यह कहते हुए उसका स्पर्श किया, ’’मैं यही चाहता हूँ- शुद्ध हो जाओ’’।

42) उसी क्षण उसका कोढ़ दूर हुआ और वह शुद्ध हो गया।

43) ईसा ने उसे यह कड़ी चेतावनी देते हुए तुरन्त विदा किया,

44) ’’सावधान! किसी से कुछ न कहो। जा कर अपने को याजकों को दिखाओ और अपने शुद्धीकरण के लिए मूसा द्वारा निर्धारित भेंट चढ़ाओ, जिससे तुम्हारा स्वास्थ्यलाभ प्रमाणित हो जाये’’।

45) परन्तु वह वहाँ से विदा हो कर चारों ओर खुल कर इसकी चर्चा करने लगा। इस से ईसा के लिए प्रकट रूप से नगरों में जाना असम्भव हो गया; इसलिए वह निर्जन स्थानों में रहते थे फिर भी लोग चारों ओर से उनके पास आते थे।


📚 मनन-चिंतन


आज के सुसमाचार में हम सबसे अच्छी प्रार्थनाओं में से एक पाते हैं। कोढ़ी येसु से कहता है, "आप चाहें तो मुझे शुद्ध कर सकते हैं"। एक आदर्श प्रार्थना में हम ईश्वर की इच्छा के आगे आत्म-समर्पण करते हैं। गतसमनी की वाटिका में, येसु ने प्रार्थना की, “मेरे पिता! यदि हो सके, तो यह प्याला मुझ से टल जाये। फिर भी मेरी नही, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो।" (मत्ती 26:39)। माता मरियम ने भी ईश्वर की इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और कहा, "देखिए, मैं प्रभु की दासी हूँ। आपका कथन मुझ में पूरा हो जाये।" (लूकस 1:38)। हमारे प्रभु जानते हैं कि हमें किस चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। वे हमें हम से ज्यादा जानते हैं। यिरमियाह 29:11 में हम पढ़ते हैं, "मैं तुम्हारे लिए निर्धारित अपनी योजनाएँ जानता हूँ“- यह प्रभु की वाणी है- “तुम्हारे हित की योजनाएँ, अहित की नहीं, तुम्हारे लिए आशामय भविय की योजनाएं।” जब हमारे सर्वज्ञ ईश्वर के पास हमारे लिए इतनी बड़ी कल्याणकारी योजनाएं हैं, तो क्या हमारे लिए उनकी इच्छा के आगे आत्मसमर्पण करना बुद्धिमानी नहीं है?



📚 REFLECTION


In today’s Gospel we find one of the best prayers one can make. The leper tells Jesus, “If you choose, you can make me clean”. In an ideal prayer we surrender to the will of God. In the garden of Gethsemane, Jesus prayed, “My Father, if it is possible, let this cup pass from me; yet not what I want but what you want” (Mt 26:39). Our lady too surrendered before the will of God and said, “Here am I, the servant of the Lord; let it be with me according to your word” (Lk 1:38). The Lord knows what we need most. He knows us more than we ourselves do. In Jer 29:11 we read, “For surely I know the plans I have for you, says the Lord, plans for your welfare and not for harm, to give you a future with hope”. When our omniscient God has such great welfare plans for us, is it not wise for us to surrender to his will?


 -Br. Biniush Topno


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12 जनवरी 2022, बुधवार

 

12 जनवरी 2022, बुधवार

सामान्य काल का पहला सप्ताह

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📒 पहला पाठ: समुएल का पहला ग्रन्थ 3 :1-10,19-20


1) युवक समूएल एली के निरीक्षण में प्रभु की सेवा करता था। उस समय प्रभु की वाणी बहुत कम सुनाई पड़ती थी और उसके दर्शन भी दुर्लभ थे।

2) किसी दिन ऐसा हुआ कि एली अपने कमरे में लेटा हुआ था उसकी आँखें इतनी कमज़ोर हो गयी थीं कि वह देख नहीं सकता था।

3) प्रभु का दीपवृक्ष उस समय तक बुझा नहीं था और समूएल प्रभु के मन्दिर में, जहाँ ईश्वर की मंजूषा रखी हुई थी, सो रहा था।

4) प्रभु ने समूएल को पुकारा। उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं प्रस्तुत हूँ’’

5) और एली के पास दौड़ कर कहा, ‘‘आपने मुझे बुलाया है, इसलिए आया हूँ।’’ एली ने कहा, ‘‘मैंने तुम को नहीं बुलाया। जा कर सो जाओ।’’ वह लौट कर लेट गया।

6) प्रभु ने फिर समूएल को पुकारा। उसने एली के पास जा कर कहा, ‘‘आपने मुझे बुलाया है, इसलिए आया हूँ।’’ एली ने उत्तर दिया, ‘‘बेटा! मैंने तुम को नहीं बुलाया। जा कर सो जाओ।’’

7) समूएल प्रभु से परिचित नहीं था - प्रभु कभी उस से नहीं बोला था।

8) प्रभु ने तीसरी बार समूएल को पुकारा। वह उठ कर एली के पास गया और उसने कहा, ‘‘आपने मुझे बुलाया, इसलिए आया हूँ।’’ तब एली समझ गया कि प्रभु युवक को बुला रहा है। 9) एली ने समूएल से कहा, ‘‘जा कर सो जाओ। यदि तुम को फिर बुलाया जायेगा, तो यह कहना, ‘प्रभु! बोल तेरा सेवक सुन रहा है।’ समूएल गया और अपनी जगह लेट गया।

10) प्रभु उसके पास आया और पहले की तरह उसने पुकारा, ‘‘समूएल! समूएल!’’ समूएल ने उत्तर दिया, ‘‘बोल, तेरा सेवक सुन रहा है।’’

19) समूएल बढ़ता गया, प्रभु उसके साथ रहा और उसने समूएल को जो वचन दिया थे, उन में से एक को भी मिट्टी में नहीं मिलने दिया

20) और दान से ले कर बएर-षेबा तक समस्त इस्राएल यह जान गया कि समूएल प्रभु का नबी प्रमाणित हो गया है।


📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 1:29-39


29) वे सभागृह से निकल कर याकूब और योहन के साथ सीधे सिमोन और अन्द्रेयस के घर गये।

30) सिमोन की सास बुख़ार में पड़ी हुई थी। लोगों ने तुरन्त उसके विषय में उन्हें बताया।

31) ईसा उसके पास आये और उन्होंने हाथ पकड़ कर उसे उठाया। उसका बुख़ार जाता रहा और वह उन लोगों के सेवा-सत्कार में लग गयी।

32) सन्ध्या समय, सूरज डूबने के बाद, लोग सभी रोगियों और अपदूतग्रस्तों को उनके पास ले आये।

33) सारा नगर द्वार पर एकत्र हो गया।

34) ईसा ने नाना प्रकार की बीमारियों से पीडि़त बहुत-से रोगियों को चंगा किया और बहुत-से अपदूतों को निकाला। वे अपदूतों को बोलने से रोकते थे, क्योंकि वे जानते थे कि वह कौन हैं।

35) दूसरे दिन ईसा बहुत सबेरे उठ कर घर से निकले और किसी एकान्त स्थान जा कर प्रार्थना करते रहे।

36) सिमोन और उसके साथी उनकी खोज में निकले

37) और उन्हें पाते ही यह बोले, ’’सब लोग आप को खोज रहे हैं’’।

38) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ’’हम आसपास के कस्बों में चलें। मुझे वहाँ भी उपदेश देना है- इसीलिए तो आया हूँ।’’

39) और वे उनके सभागृहों में उपदेश देते और अपदूतों को निकलाते हुए सारी गलीलिया में घूमते रहते थे।


📚 मनन-चिंतन



येसु चापलूसी से कभी प्रभावित नहीं हुए। न ही वह नकारात्मक आलोचना से निरुत्साहित हुए। उनकी चिंता हमेशा स्वर्गीय पिता की इच्छा पूरी करने की थी। उन्होंने लोकप्रियता की परवाह नहीं की। जब येसु के सामने भीड़ के साथ ही रहने की मांग उठी, तो उन्होंने कहा, “हम आसपास के कस्बों में चलें। मुझे वहाँ भी उपदेश देना है- इसीलिए तो आया हूँ।” उनके पास पिता द्वारा सौंपा गया एक अधूरा काम था। हमें अपने लिए ईश्वर की योजना को समझने और उसके अनुसार कार्य करने की आवश्यकता है। हमें चापलूसी या सार्वजनिक हंगामे से नहीं बहलाना चाहिए। हमें स्वर्ग की ओर देखते रहना चाहिए।



📚 REFLECTION



Jesus was never moved by flattery. Nor was he pulled down by negative criticism. His concern was to do the will of the Heavenly Father. He did not bother about popularity. When there was a popular demand before Jesus to remain with the crowd, he said, “Let us go on to the neighboring towns, so that I may proclaim the message there also; for that is what I came out to do.” He had an unfinished task entrusted by the Father. We need to discern the plan of God for us and act accordingly. We should not be carried away by flattery or public uproar. We should keep moving gazing at heaven.



📚 मनन-चिंतन - 02



आज का सुसमाचार येसु के सार्वजनिक कार्यों के दौरान एक दिन को दर्शाता है। सुबह-सुबह वे प्रार्थना करने के लिए एकांत स्थान पर जाते हैं। वहाँ वे स्वर्गिक पिता के प्रेम का अनुभव करते हैं और उनकी योजना को समझ लेते हैं। अपनी प्रार्थना के दौरान उन्हें अपने सार्वजनिक कार्यों के लिए अनुदेश, दिशानिर्देश और शक्ति प्राप्त होती है। वे सार्वजनिक मांगों और लोकप्रियता की मांग के सामने अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं होते हैं। वे बस अपने पिता द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करते हैं। वे कभी भी अपने सामने निर्धारित लक्ष्य से नहीं भटकते हैं। इसीलिए जब उन्हें बताया गया कि सभी लोग उन्हें ढूंढ रहे हैं, उन्हें देखने के लिए खोज रहे हैं, तब उन्होंने कहा, “हम आसपास के कस्बों में चलें। मुझे वहाँ भी उपदेश देना है- इसीलिए तो आया हूँ"। वे देर शाम तक कड़ी मेहनत करते हैं। वे पूरे दिन व्यस्त रहते हैं। वे आगे बढ़ते जाते हैं। वे एक के बाद एक काम हाथ में लेते हैं। फिर भी वे काम के पीछे अपने पिता को नहीं भूलते हैं, लेकिन वे स्वर्गिक पिता की इच्छा को पूरा करता है। आइए हम ईश्वर की बात सुनने और उनकी आज्ञा मानने में येसु का अनुकरण करें।


📚 REFLECTION


Today’s Gospel depicts a typical day during the public ministry of Jesus. Early in the morning he goes off to a lonely place to pray. There he experiences the love of the Heavenly Father and discerns his plan for him. During his prayer he receives directions, guidelines and strength to perform his ministry. He does not get diverted by public demands and popularity seeking. He simply follows the path marked out by his Father. He never goes astray from the goal set before him. That is why when he was told that all people were searching for him, instead of going to see them, he said, “Let us go elsewhere to the neighbouring country towns so that I can proclaim the message there too, because that is why I came”. He works hard until late evenings. His days are hectic. He moves on and on. He takes up one task after another. Yet he is not workaholic, but he simply fulfills the will of the Heavenly Father. Let us imitate Jesus in this – by listening to and obeying God.


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!