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Catholic Bibile Ministry में आप सबों को जय येसु ओर प्यार भरा आप सबों का स्वागत है। Catholic Bibile Ministry offers Daily Mass Readings, Prayers, Quotes, Bible Online, Yearly plan to read bible, Saint of the day and much more. Kindly note that this site is maintained by a small group of enthusiastic Catholics and this is not from any Church or any Religious Organization. For any queries contact us through the e-mail address given below. 👉 E-mail catholicbibleministry21@gmail.com

बुधवार, 01 सितम्बर, 2021

 

बुधवार, 01 सितम्बर, 2021

वर्ष का बाईसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : कलोसियों 1:1-8


1) कलोस्सै- निवासी सन्तो, मसीह में विश्वास करने वाले भाइयों के नाम पौलुस, जो ईश्वर द्वारा ईसा मसीह का प्रेरित नियुक्त हुआ है, और भाई तिमथी का पत्र।

2) हमारा पिता ईश्वर और प्रभु ईसा मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें!

3 (3-4) हमने ईसा मसीह में आप लोगों के विश्वास और सभी विश्वासियों के प्रति आपके भ्रातृप्रेम के विषय में सुना है। इसलिए हम आप लोगों के कारण अपने प्रभु ईसा के पिता को निरन्तर धन्यवाद देते और अपनी प्रार्थनाओं में आपका स्मरण करते रहते हैं।

5) आपका विश्वास और भ्रातृप्रेम उस आशा पर आधारित है, जो स्वर्ग में आपके लिए सुरक्षित है और जिसके विषय में आपने तब सुना, जब सच्चे सुसमाचार का सन्देश

6) आपके पास पहुँचा। यह समस्त संसार में फैलता और बढ़ता जा रहा है। आप लोगों के यहाँ यह उस दिन से फैलता और बढ़ता रहा है, जिस दिन आपने ईश्वर के अनुग्रह के विषय में सुना और उसका मर्म समझा।

7) आप को हमारे प्रिय सहयोगी एपाफ्रास से इसकी शिक्षा मिली है। एपाफ्रास हमारे प्रतिनिधि के रूप में मसीह के विश्वासी सेवक है।

8) उन्होंने हमें बताया है कि आत्मा ने आप लोगों में कितना प्रेम उत्पन्न किया है।


सुसमाचार : सन्त लूकस 4:38-44


38) वे सभागृह से निकल कर सिमोन के घर गये। सिमोन की सास तेज़ बुखार में पड़ी हुई थी और लोगों ने उसके लिए उन से प्रार्थना की।

39) ईसा ने उसके पास जा कर बुख़ार को डाँटा और बुख़ार जाता रहा। वह उसी क्षण उठ कर उन लोगों के सेवा-सत्कार में लग गयी।

40) सूरज डूबने के बाद सब लोग नाना प्रकार की बीमारियों से पीडि़त अपने यहाँ के रोगियों को ईसा के पास ले आये। ईसा एक-एक पर हाथ रख कर उन्हें चंगा करते थे।

41) अपदूत बहुतों में से यह चिल्लाते हुये निकलते थे, ’’आप ईश्वर के पुत्र हैं’’। परन्तु वह उन को डाँटते और बोलने से रोकते थे, क्योंकि अपदूत जानते थे कि वह मसीह हैं।

42) ईसा प्रातःकाल घर से निकल कर किसी एकान्त स्थान में चले गये। लोग उन को खोजते-खोजते उनके पास आये और अनुरोध करते रहे कि वह उन को छोड़ कर नहीं जायें।

43) किन्तु उन्होंने उत्तर दिया, ’’मुझे दूसरे नगरों को भी ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाना है-मैं इसीलिए भेजा गया हूँ’’

44) और वे यहूदिया के सभागृहों में उपदेश देते रहे।


📚 मनन-चिंतन


प्रभु येसु का जीवन कार्य या जीवन चर्या उनके उद्देश्य या लक्ष्य पर आधारित था। पिता ईश्वर जैसा चाहते प्रभु येसु वैसा ही इस जीवन में कार्यांवित करते थे। येसु ने हमेशा से अपने जीवन के द्वारा ईश्वर के राज्य को इस संसार में बढ़ावा दिया है और इस हेतु वे लोगों को उपदेश देते, रोगियों को चंगा करते और अपदूतों को निकालते थे। यह कार्य उनके जीवन के मकसद को दर्शाता था। येसु ने अपने इस कार्य को किसी क्षेत्र में सिमित नहीं रखा। वे चाहते थे कि संुसमाचार हर क्षेत्र में फैलता जाये जिस प्रकार वे आज के वचनों में कहते है, ’’मुझे दूसरे नगरों को भी ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाना है’’ और यही चीज़ वे अपने शिष्यों को भी कहते है कि ’संसार के कोने कोने में जाकर सारी सृष्टि को सुसमाचार सुनाओ’ (मारकुस 16ः15)। ईश्वर के राज्य को फैलाना हम सभी विश्वासियांे का दायित्व है, इसके लिए सबसे पहले हमें ईश्वर के राज्य को जानना और उसमें जीना होगा। वैसे तो ईश्वर के राज्य के विषय में प्रभु येसु ने बहुत सी बाते बतायी है; उनमें से एक प्रभु येसु मारकुस के सुसमाचार 12 में उस शास्त्री से कहते है जो उनसे प्रश्न करने आया था, ‘‘तुम ईश्वर के राज्य से दूर नहीं हो’’ उस वृतांत मंे प्रभु ने यह वाक्य इसलिए कहा क्योंकि उस शास्त्री ने येसु के उत्तर का समर्थन किया था और वह उत्तर है ईश्वर से प्रेम और पड़ोसी से प्रेम। जो इस आज्ञा का पालन करता है वह ईश्वर के राज्य में जीता है और उसी के द्वारा ईश्वर के राज्य का फैलाव हो सकेगा। ईश्वर का राज्य अर्थात ईश्वर का प्रेम संसार के कोने कोने में फैलता जाये।



📚 REFLECTION



The life of Jesus was based on the goal or the purpose of his life. As the Father Almighty wills like wise Lord Jesus accomplishes them in the life. Jesus always in his life time on this earth gave the importance to the Kingdom of God and for this He used to give sermons, healing the sick and casting out the demons. This works demonstrate the purpose of his life. Jesus did not limit his works to only one particular place. He wished that Kingdom of God may spread to all the places, as he tells in today’s word, “I must proclaim the good news of the kingdom of God to the other cities also” and this he tells to the disciples also, “Go into all the world and proclaim the good news to the whole creation” (Mk16:15). To spread the Kingdom of God is the duty of all the believers for that we have to know and live in the Kingdom of God. About the Kingdom of God Jesus has told many things, among them he says to one scribe in Mark 12 who came to ask a question to Jesus, “You are not far from the Kingdom of God.” In that incident Jesus said this because the Scribe had supported the answer of Jesus regarding Love of God and love of neibhour. One who observes this commandment, he/she lives in the Kingdom of God and through him/her only the Kingdom of God can be spread. The kingdom of God in other words the Love of God may spread to every corner of the world.


 -Br Biniush Topno


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मंगलवार, 31 अगस्त, 2021

 

मंगलवार, 31 अगस्त, 2021

वर्ष का बाईसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : 1 थेसलनीकियों 5:1-6, 9-11


1 (1-2) भाइयो! आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि प्रभु का दिन, रात के चोर की तरह, आयेगा। इसलिए इसके निश्चित समय के विषय में आप को कुछ लिखने की कोई ज़रूरत नहीं है।

3) जब लोग यह कहेंगे: ’अब तो शान्ति और सुरक्षा है’, तभी विनाश उन पर गर्भवती पर प्रसव-पीड़ा की तरह, अचानक आ पड़ेगा और वे उस से बच नहीं सकेंगे।

4) भाइयो! आप तो अन्धकार में नहीं हैं, जो वह दिन आप पर चोर की तरह अचानक आ पड़े।

5) आप सब ज्योति की सन्तान हैं, दिन की सन्तान हैं। हम रात या अन्धकार के नहीं है।

6) इसलिए हम दूसरों की तरह नहीं सोयें, बल्कि जगाते हुए सतर्क रहें।

9) ईश्वर यह नहीं चाहता कि हम उसके कोप-भजन बनें, बल्कि अपने प्रभु ईसा मसीह के द्वारा मुक्ति प्राप्त करें।

10) मसीह हमारे लिए मरे, जिससे वह चाहे जीवित हों या मर गये हों, उन से संयुक्त हो कर जीवन बितायें।

11) इसलिए आप को एक दूसरे को प्रोत्साहन और सहायता देनी चाहिए, जैसा कि आप कर रहे है।।



सुसमाचार : सन्त लूकस 4:31-37


31) वे गलीलिया के कफ़रनाहूम नगर आये और विश्राम के दिन लोगों को शिक्षा दिया करते थे।

32) लोग उनकी शिक्षा सुन कर अचम्भे में पड़ जाते थे, क्योंकि वे अधिकार के साथ बोलते थे।

33) सभागृह में एक मनुष्य था, जो अशुद्ध आत्मा के वश में था। वह ऊँचे स्वर से चिल्ला उठा,

34) ’’ईसा नाज़री! हम से आप को क्या? क्या आप हमारा सर्वनाश करने आये हैं? मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं-ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष।’’

35) ईसा ने यह कहते हुए उसे डाँटा, ’’ चुप रह, इस मनुष्य से बाहर निकल जा’’। अपदूत ने सब के देखते-देखते उस मनुष्य को भूमि पर पटक दिया और उसकी कोई हानि किये बिना वह उस से बाहर निकल गया।

36) सब विस्मित हो गये और आपस में यह कहते रहे, ’’यह क्या बात है! वे अधिकार तथा सामर्थ्य के साथ अशुद्ध आत्माओं को आदेश देते हैं और वे निकल जाते हैं।’’

37) इसके बाद ईसा की चर्चा उस प्रदेश के कोने-कोने में फैल गयी।


📚 मनन-चिंतन


आज के सुसमाचार में, एक अशुद्ध आत्मा उस व्यक्ति के अंदर से येसु को चिल्लाती है, 'क्या तुम हमें नष्ट करने आए हो?' उस प्रश्न का उत्तर 'हाँ' है।येसु उन सभी ताकतों और शक्तियों को नष्ट करने आए हैं जिन्होंने लोगों को गुलाम बनाया है और उन्हें ईश्वर की इच्छानुसार पूर्ण मनुष्य बनने से रोकती हैं। हम अक्सर येसु के मिशन को विनाशकारी मिशन नहीं मानते। हम उन्हें विनाशक के बजाय एक उद्धारकर्ता के रूप में देखते हैं और यह एक सही समझ है। फिर भी, वे दोनों थे बचने वाले और नष्ट करने वाले। उनके लिए लोगों को बचाने के लिए, कुछ वास्तविकताओं को नष्ट करना ज़रूरी है।

येसु जानते थे कि उनका संघर्ष दुष्ट की शक्तियों से था। शैतानी ताकतें वे ताकतें है जो मनुष्य के सम्पूर्ण विनाश में सदा लगी रहती है, और येसु के लिए ऐसी ताकतों को नष्ट करना ज़रूरी था। सभागृह में लोगों ने येसु को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जिनके पास जीवन देने और मृत्यु को हारने का अधिकार है। यही वह अधिकार और शक्ति है जिसे पुनर्जीवित प्रभु हम सभी के साथ साझा करना चाहते हैं, ताकि हम बदले में दुनिया में उनके जीवन देने वाले कार्य में हिस्सा ले सकें, एक ऐसा कार्य जो समय के अंत तक जारी रहता है।



📚 REFLECTION


In this today's gospel reading, the spirit of an unclean demon shouts at Jesus through the person possessed, ‘Have you come to destroy us?’ The answer to that question is ‘yes’. Jesus had come to destroy all the forces and powers that enslaved people and prevented them from becoming the full human beings that God wants them to be. We don’t always think of Jesus’ mission as having a destructive quality. Quite rightly we think of him as a Saviour rather than as a Destroyer. Yet, he was both. For people to be saved, in the full sense of that word, certain realities have to be destroyed.

Jesus was aware that he was in conflict with forces of evil, forces that had to be overcome and destroyed. The people in the synagogue recognized Jesus as a person of authority and power; His was a life-giving authority and power that worked to destroy the forces of death and destruction. That is the kind of authority and power that the risen Lord wants to share with all of us, so that we in turn can share in his life-giving work in the world, a work that continues until the end of time.



 -Br Biniush Topno


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सोमवार, 30 अगस्त, 2021 वर्ष का बाईसवाँ सामान्य सप्ताह

 

सोमवार, 30 अगस्त, 2021

वर्ष का बाईसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : 1 थेसलनीकियों 4:13-18


13) भाइयो! हम चाहते हैं कि मृतकों के विषय में आप लोगों को निश्चित जानकारी हो। कहीं ऐसा न हो कि आप उन लोगों की तरह शोक मनायें, जिन्हें कोई आशा नहीं है।

14) हम तो विश्वास करते हैं कि ईसा मर गये और फिर जी उठे। जो ईसा में विश्वास करते हुए मरे, ईश्वर उन्हें उसी तरह ईसा के साथ पुनर्जीवित कर देगा।

15) हमें मसीह से जो शिक्षा मिली है, उसके आधार पर हम आप से यह कहते हैं- हम, जो प्रभु के आने तक जीवित रहेंगे, मृतकों से पहले महिमा में प्रवेश नहीं करेंगे,

16) क्योंकि जब आदेश दिया जायेगा और महादूत की वाणी तथा ईश्वर की तुरही सुनाई पड़ेगी, तो प्रभु स्वयं स्वर्ग से उतरेंगे। जो मसीह में विश्वास करते हुए मरे, वे पहले जी उठेंगे।

17) इसके बाद हम, जो उस समय तक जीवित रहेंगे, उनके साथ बादलों में आरोहित कर लिये जायेंगे और आकाश में प्रभु से मिलेंगे। इस प्रकार हम सदा प्रभु के साथ रहेंगे।

18) आप इन बातों की चर्चा करते हुए एक दूसरे को सान्त्वना दिया करें।



सुसमाचार : सन्त लूकस 4:16-30


16) ईसा नाज़रेत आये, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। विश्राम के दिन वह अपनी आदत के अनुसार सभागृह गये। वह पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए

17) और उन्हें नबी इसायस की पुस्तक़ दी गयी। पुस्तक खोल कर ईसा ने वह स्थान निकाला, जहाँ लिखा हैः

18) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ, दलितों को स्वतन्त्र करूँ

19) और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।

20) ईसा ने पुस्तक बन्द कर दी और वह उसे सेवक को दे कर बैठ गये। सभागृह के सब लोगों की आँखें उन पर टिकी हुई थीं।

21) तब वह उन से कहने लगे, ’’धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है’’।

22) सब उनकी प्रशंसा करते रहे। वे उनके मनोहर शब्द सुन कर अचम्भे में पड़ जाते और कहते थे, ’’क्या यह युसूफ़ का बेटा नहीं है?’’

23) ईसा ने उन से कहा, ’’तुम लोग निश्चय ही मुझे यह कहावत सुना दोगे-वैद्य! अपना ही इलाज करो। कफ़रनाहूम में जो कुछ हुआ है, हमने उसके बारे में सुना है। वह सब अपनी मातृभूमि में भी कर दिखाइए।’’

24) फिर ईसा ने कहा, ’’मैं तुम से यह कहता हूँ-अपनी मातृभूमि में नबी का स्वागत नहीं होता।

25) मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि जब एलियस के दिनों में साढ़े तीन वर्षों तक पानी नहीं बरसा और सारे देश में घोर अकाल पड़ा था, तो उस समय इस्राएल में बहुत-सी विधवाएँ थीं।

26) फिर भी एलियस उन में किसी के पास नहीं भेजा गया-वह सिदोन के सरेप्ता की एक विधवा के पास ही भेजा गया था।

27) और नबी एलिसेयस के दिनों में इस्राएल में बहुत-से कोढ़ी थे। फिर भी उन में कोई नहीं, बल्कि सीरी नामन ही निरोग किया गया था।’’

28) यह सुन कर सभागृह के सब लोग बहुत क्रुद्ध हो गये।

29) वे उठ खड़े हुए और उन्होंने ईसा को नगर से बाहर निकाल दिया। उनका नगर जिस पहाड़ी पर बसा था, वे ईसा को उसकी चोटी तक ले गये, ताकि उन्हें नीचे गिरा दें,

30) परन्तु वे उनके बीच से निकल कर चले गये।


📚 मनन-चिंतन


नाज़रेथ के लोगों के मन में बहुत ही आश्चर्य होता है जब वे येसु को उनके सभागृह में बोलते हुए सुनते हैं। प्रारंभ में हमें बताया गया कि 'वे उनके मुख से निकले अनुग्रहपूर्ण शब्दों को सुनकर चकित थे'। हालाँकि, उपदेश समाप्त होने के बाद वे उन पर क्रोधित होकर उन्हें उस पहाड़ी से नीचे फेंकने के लिए शहर से बाहर निकाल दिया, जिस पर नासरत बसा था।

दरअसल येसु ने शुरू में घोषणा की कि वे सुसमाचार याने शुभसंदेश सुनाने आये हैं, खासकर गरीबों, टूटे और जरूरतमंदों के लिए। नासरत के लोग इस खुशखबरी से खुश थे, लेकिन जब तक येसु ने अपनी खुशखबरी बोलना पूरी की, तब तक उनके कानों में बुरी खबर आ चुकी थी। इसका कारण यह था कि येसु ने यह घोषणा की कि उनका सुसमाचार का मिशन केवल इस्राएल के लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि अन्यजातियों के लिए भी था, जैसे नबी एलिय्याह और एलीशा ने इस्राएल के बाहर के लोगों के बीच सेवकाई और नबूवत की थी।

येसु ने अपने नगरवासियों के ईश्वर के प्रति संकीर्ण, राष्ट्रवादी, दृष्टिकोण को चुनौती दी, और उन्हें यह पसंद नहीं आया। येसु हमेशा ईश्वर के बारे में हमारे दृष्टिकोण को चुनौती देते हैं। ईश्वर, हम जितना उन्हें सोचते हैं उससे कई गुना महान है। केवल येसु के वचनों और कार्यों पर लगातार चिंतन करने से ही हम ईश्वर की गहराई को जानना शुरू करेंगे। और उन्हें पूरी तरह से तो हम इस लोक के जीवन के बाद ही जान पाएंगे। आइये हम येसु के द्वारा ईश्वर के प्रेम की ऊंचाई, गहराई, और चौड़ाई को जानें।



📚 REFLECTION



There is a very striking change of mood among the people of Nazareth as they listen to Jesus speak in their synagogue. Initially we are told that ‘they were astonished by the gracious words that came from his lips’. However, by the time Jesus had finished speaking ‘everyone in the synagogue was enraged’, so much so that they hustled Jesus out of the town with a view to throwing him down from the brow of the hill Nazareth was built on. Jesus initially declared that he had come to proclaim good news, especially to the poor, the broken and needy. The people of Nazareth were delighted with this good news, but by the time Jesus had finished speaking his good news had become bad news in their ears. The reason for this was because Jesus went on to announce that his mission of good news was not just to the people of Israel but to the pagans as well, just as the prophets Elijah and Elisha ministered to people outside of Israel.

Jesus challenged his townspeople’s narrow, nationalistic, view of God, and they did not like it. Jesus always challenges our view of God. There is always more to God than we imagine; it is only by constantly reflecting on the words and deeds of Jesus that we even begin to know God. It is only in the next life that we will know God as fully as God now knows us.


 -Br Biniush Topno


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इतवार, 29 अगस्त, 2021 वर्ष का बाईसवाँ सामान्य इतवार

 

इतवार, 29 अगस्त, 2021

वर्ष का बाईसवाँ सामान्य इतवार

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पहला पाठ : विधि-विवरण 4:1-2, 6ब-8


1) इस्राएलियों मैं जिन नियमों तथा आदेशों की शिक्षा तुम लोगों को आज दे रहा हूँ, उन पर ध्यान दो और उनका पालन करो, जिससे तुम जीवित रह सको और उस देश में प्रवेश कर उसे अपने अधिकार में कर सको, जिसे प्रभु, तुम्हारे पूर्वजों का ईश्वर तुम लोगों को देने वाला है।

2) मैं जो आदेश तुम लोगों को दे रहा हूँ, तुम उन में न तो कुछ बढ़ाओ और न कुछ घटाओ। तुम अपने प्रभु-ईश्वर के आदेशों का पालन वैसे ही करो, जैसे मैं तुम लोगों को देता हूँ।

6ब) जब वे उन सब आदेशों की चर्चा सुनेंगे, तो बोल उठेंगे ’उस महान् राष्ट्र के समान समझदार तथा बुद्धिमान और कोई राष्ट्र नहीं है’।

7) क्योंकि ऐसा महान राष्ट्र कहाँ है, जिसके देवता उसके इतने निकट हैं, जितना हमारा प्रभु-ईश्वर हमारे निकट तब होता है जब-जब हम उसकी दुहाई देते हैं?

8) और ऐसा महान् राष्ट्र कहाँ है, जिसके नियम और रीतियाँ इतनी न्यायपूर्ण है, जितनी यह सम्पूर्ण संहिता, जिसे मैं आज तुम लोगों को दे रहा हूँ?



दूसरा पाठ : याकूब 1;17-18, 21ब-22, 27


17) सभी उत्तम दान और सभी पूर्ण वरदान ऊपर के हैं और नक्षत्रों के उस सृष्टिकर्ता के यहाँ से उतरते हैं, जिसमें न तो केाई परिवर्तन है और न परिक्रमा के कारण कोई अन्धकार।

18) उसने अपनी ही इच्छा से सत्य की शिक्षा द्वारा हम को जीवन प्रदान किया, जिससे हम एक प्रकार से उसकी सृष्टि के प्रथम फल बनें।

21ब) इसलिए आप लोग हर प्रकार की मलिनता और बुराई को दूर कर नम्रतापूर्वक ईश्वर का वह वचन ग्रहण करें, जो आप में रोपा गया है और आपकी आत्माओं का उद्धार करने में समर्थ है।

22) आप लोग अपने को धोखा नहीं दें। वचन के श्रोता ही नहीं, बल्कि उसके पालनकर्ता भी बनें।

27) हमारे ईश्वर और पिता की दृष्टि में शुद्ध और निर्मल धर्माचरण यह है- विपत्ति में पड़े हुए अनाथों और विधवाओं की सहायता करना और अपने को संसार के दूषण से बचाये रखना।



सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार

 7:1-8,14-15, 21-23


1 फ़रीसी और येरुसालेम से आये हुए कई शास्त्री ईसा के पास इकट्ठे हो गये।

2) वे यह देख रहे थे कि उनके शिष्य अशुद्ध यानी बिना धोये हाथों से रोटी खा रहे हैं।

3) पुरखों की परम्परा के अनुसार फ़रीसी और सभी यहूदी बिना हाथ धोये भोजन नहीं करते।

4) बाज़ार से लौट कर वे अपने ऊपर पानी छिड़के बिना भोजन नहीं करते और अन्य बहुत-से परम्परागत रिवाज़ों का पालन करते हैं- जैसे प्यालों, सुराहियों और काँसे के बरतनों का शुद्धीकरण।

5) इसलिए फ़रीसियों और शास्त्रियों ने ईसा से पूछा, "आपके शिष्य पुरखों की परम्परा के अनुसार क्यों नहीं चलते? वे क्यों अशुद्ध हाथों से रोटी खाते हैं?

6) ईसा ने उत्तर दिया, "इसायस ने तुम ढोंगियों के विषय में ठीक ही भविष्यवाणी की है। जैसा कि लिखा है- ये लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है।

7) ये व्यर्थ ही मेरी पूजा करते हैं; और ये जो शिक्षा देते हैं, वे हैं मनुष्यों के बनाये हुए नियम मात्र।

8) तुम लोग मनुष्यों की चलायी हुई परम्परा बनाये रखने के लिए ईश्वर की आज्ञा टालते हो।"

14) ईसा ने बाद में लोगों को फिर अपने पास बुलाया और कहा, "तुम लोग, सब-के-सब, मेरी बात सुनो और समझो।

15) ऐसा कुछ भी नहीं है, जो बाहर से मनुष्य में प्रवेश कर उसे अशुद्ध कर सके; बल्कि जो मनुष्य में से निकलता है, वही उसे अशुद्ध करता है।

21) क्योंकि बुरे विचार भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से निकलते हैं। व्यभिचार, चोरी, हत्या,

22) परगमन, लोभ, विद्वेष, छल-कपट, लम्पटता, ईर्ष्या, झूठी निन्दा, अहंकार और मूर्खता-

23) ये सब बुराइयाँ भीतर से निकलती है और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं।



📚 मनन-चिंतन


सदा से अपना अस्तित्व रखने वाले यहोवा ईश्वर ने अपनी प्रज्ञा व अपने विधान को इस्राएली की अपनी प्रजा को दिया और इस प्रकार उसे संसार में एक अलग पहचान दी। ईश्वर इस्राएलियों को उसके अपने लोग होने की पहचान देकर अन्य लोगों को उनसे सिखने के लिए उन्हें तैयार करते हैं। वे चाहते हैं कि दुनियां में उनकी पहचान ईश्वर के विधान और वचनों पर चलने वाले लोगों के रूप में हो। पहले पाठ में वे उनसे कहते हैं - "इस्राएलियों मैं जिन नियमों तथा आदेशों की शिक्षा तुम लोगों को आज दे रहा हूँ, उन पर ध्यान दो और उनका पालन करो" और दूसरे पाठ में याकूब अपने पत्र में अपनी कलीसिया से कहते है - वचन के श्रोता ही नहीं, बल्कि उसके पालनकर्ता भी बनें।

वचन सुनना एक बात है और उसका पालन करना दूसरी बात। सिर्फ सुनने से काम नहीं चलता। वचन को सुनना शायद आसान काम है पर उस पर चलना एक चुनौती है। सुसमाचार में हम पढ़ते है कि फरीसी लोग बाहरी कर्म कांडों का बारीकी से पालन करते थे पर ईश्वर के वचन पर चलते हुए अंदर से आत्मिक सफाई करना नहीं चाहते थे। येसु आज हमें उनके वचनों को सुनकर उन्हें अपनी आत्मा मेंउतारने और वचनों द्वारा हमारे दिल व आत्मा को शुद्ध करने के लिए आह्वान करते है ताकि उनके वचनों से भरकर हम हमारे जीवन से हमेशा पवित्र चीज़ें बहार निकालें।



📚 REFLECTION


Eternally existing God, Yahweh, gave his wisdom and his law to the people of Israel and thus gave them a different identity in the world. making Israelite his own people God makes them the role models for the other nations. He wants that they should be recognized in the world as people who follow the laws and words of their God. In the first reading He tells them - "O Israel, listen to the statutes and the rules that I am teaching you, and do them" and in the second lesson, James tells his church in an - "But be doers of the word, and not hearers only, deceiving yourselves." It is one thing to hear the word and it is another to obey it. Just listening doesn't work. Listening to the Word may be an easy task, but it is a challenge to follow it.

In the Gospels, we read that the pharisees closely followed the outer rituals, but did not want to do spiritual cleansing from within, following the word of God. Jesus calls us today to listen to His words, bring Him into our souls and purify our hearts and souls through His words, so that by being filled with His words, we may always bring forth the holy things from our lives.


मनन-चिंतन - 2



आज के पाठों का सन्देश है - मनुष्य की भलाई के लिये ईश्वर द्वारा प्रदत्त नियम। पहले पाठ में पिता ईश्वर नबी मूसा के द्वारा लोगों से कहते हैं कि प्रतिज्ञात देश में भली-भाँति प्रवेश करने एवं जीने के लिये उन्हें ईश्वर के द्वारा दिये हुए नियमों का पालन करना चाहिए है। उन नियमों का पालन करने से ईश्वर उनके करीब रहेगा। दूसरे पाठ में सन्त याकूब हमें बताते हैं कि विनम्रता से ईश्वर के वचन को ग्रहण करें व पालन करें जो आपकी आत्माओं को मुक्ति प्रदान करेगा। और सुसमाचार में प्रभु येसु फरीसियों और शास्त्रियों की निन्दा करते हैं जो ईश्वर के नियमों को भुलाकर स्वयं के द्वारा बनाये हुए नियमों से लोगों को गुमराह करते हैं।

ईश्वर ने पंचग्रन्थ (तौराह) में इस्रायलियों को कई नियम दिये हैं जिनमें से दस आज्ञाओं से हम भली-भाँति परिचित हैं। यहूदियों के पंचग्रन्थ पर आधारित ये सारे नियम संख्या में कुल 613 हैं जिनमें से 365 नियम निषेधाज्ञाओं के रूप में हैं और अन्य सकारात्मक आज्ञायें 248 हैं। निषेधाज्ञाओं में ऐसे नियम व आज्ञायें हैं जिनमें कुछ चीजें/कार्य करने से मना किया गया है। सकारात्मक आज्ञायें या नियम वे हैं जिनका पालन करना है और उन कार्यों को करना ज़रूरी है। फरीसियों और शास्त्रियों के अनुसार ये सारे नियम ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं और उनकी परम्परा उन्हें सिखाती है कि सभी को उनका पूर्ण रूप से पालन करना है और फरीसियों एवं शास्त्रियों को विशेष रूप से यह देखना है कि लोग उनका पालन भली-भाँति कर रहे हैं कि नहीं। यही कारण है कि आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि उन्हें यह बात अखरती है कि प्रभु येसु के शिष्य बिना हाथ धोये भोजन कर रहे थे।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और बिना नियमों के हम एक सभ्य समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारे चारों ओर हम नियमों से घिरे रहते हैं। स्कूली दिनों में स्कूल के नियम, बड़े होकर समाज के नियम, सरकार के नियम, धर्म के नियम, संस्कृति के नियम इत्यादि। अगर कोई व्यक्ति इनमें से किसी प्रकार के नियमों का पालन नहीं करता है तो वह समूह या समाज में रहने के योग्य नहीं है। इन सारे नियमों में सभी नियमों का कुछ न कुछ उद्देश्य है। अगर कोई नियम ऐसा है जिसका उद्देश्य लोगों को नहीं मालूम तो ऐसे नियमों का पालन करना व्यर्थ है। जिस नियम का उद्देश्य जिस क्षेत्र से है उस नियम का महत्व उसी क्षेत्र में है। उदाहरण के लिये स्कूल के नियमों की सार्थकता तभी है जब उनका पालन स्कूल के सन्दर्भ में किया जाये। अगर हम स्कूल के नियमों को संविधान के नियमों के सन्दर्भ में देखें अथवा धार्मिक क्षेत्र में लागू करें तो इसमें कोई सार्थकता नहीं रहेगी।

आज का पहला पाठ हमें समझाता है कि ईश्वर ने जो नियम हमें दिये हैं उनका उद्देश्य है कि हम अपना जीवन सफलतापूर्वक जियें और हम ईश्वर के और करीब आयें इतने करीब कि स्वयं गर्व हो और कहें ’’...ऐसा महान राष्ट्र कहाँ है, जिसके देवता उसके इतने निकट हैं, जितना हमारा प्रभु ईश्वर हमारे निकट है...’’ (विधि विवरण 4:7)। अतः ईश्वर के नियम हमें ईश्वर के करीब लाते हैं। और इसके विरूद्ध हम सोचें कि जो नियम हमें ईश्वर के करीब ना लायें ऐसे नियमों का पालन करने में क्या फायदा? प्रभु येसु को फरीसियों और शास्त्रियों से इसी बात पर आपत्ति है कि वे ईश्वर द्वारा दिये हुए नियमों का वास्तविक उद्देश्य भुलाकर स्वयं के बनाये नियमों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं (देखें मारकुस 7:7-8)। उन्होंने बहुत सारे ऐसे नियम बनाये थे जिनका वास्तविक उद्देश्य ईश्वर के उद्देश्य से कोसों दूर था।

दूसरे शब्दों में, हम समझ सकते हैं कि नियम हमें ईश्वर के पास आने के योग्य बनाने में सहायक होने चाहिये। हम ईश्वर के पास आने के तभी योग्य होंगे जब हमारा हृदय पवित्र होगा (स्त्रोत्र ग्रन्थ 24:3-4अ)। जो हृदय के निर्मल हैं वे ही प्रभु के दर्शन कर पायेंगे (मत्ती 5:8)। प्रभु येसु भी यही चाहते हैं कि बाहरी पवित्रता से अधिक हमारे लिये आन्तरिक पवित्रता आवश्यक है (मारकुस 7:15) बाहर से अन्दर जाने वाली चीजें हमें अशुद्ध नहीं करती बल्कि हमारे मन के भाव, विचार आदि हमें अपवित्र बनाते हैं जिसके कारण हम ईश्वर से दूर हो जाते हैं(मारकुस 7:6ब)। आईये हम ईश्वर से कृपा माँगें कि हमारा एकमात्र उद्देश्य अपने आप को ईश्वर के योग्य बनाने का हो।




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शनिवार, 28 अगस्त, 2021

 

शनिवार, 28 अगस्त, 2021

वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : 1 थेसलनीकियों 4:9-11


9) भ्रातृप्रेम के विषय में आप लोगों को लिखने की कोई आवश्यकता नहीं; क्योंकि आप लोग ईश्वर से ही एक दूसरे को प्यार करना सीख चुके हैं

10) और सारी मकेदूनिया के भाइयों के प्रति इस भ्रातृप्रेम का निर्वाह करते हैं। भाइयो! मेरा अनुरोध है कि आप इस विषय में और भी उन्नति करें।

11) आप इस बात पर गर्व करें कि आप शान्ति में जीवन बिताते हैं और हर एक अपने-अपने काम में लगा रहता है। आप लोग मेरे आदेश के अनुसार अपने हाथों से काम करें।



सुसमाचार : सन्त मत्ती 25:14-30



14) ’’स्वर्ग का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जिसने विदेश जाते समय अपने सेवकों को बुलाया और उन्हें अपनी सम्पत्ति सौंप दी।

15) उसने प्रत्येक की योग्यता का ध्यान रख कर एक सेवक को पाँच हज़ार, दूसरे को दो हज़ार और तीसरे को एक हज़ार अशर्फियाँ दीं। इसके बाद वह विदेश चला गया।

16) जिसे पाँच हज़ार अशर्फि़यां मिली थीं, उसने तुरन्त जा कर उनके साथ लेन-देन किया तथा और पाँच हज़ार अशर्फियाँ कमा लीं।

17) इसी तरह जिसे दो हजार अशर्फि़याँ मिली थी, उसने और दो हज़ार कमा ली।

18) लेकिन जिसे एक हज़ार अशर्फि़याँ मिली थी, वह गया और उसने भूमि खोद कर अपने स्वामी का धन छिपा दिया।

19) ’’बहुत समय बाद उन सेवकों के स्वामी ने लौट कर उन से लेखा लिया।

20) जिसे पाँच हजार असर्फियाँ मिली थीं, उसने और पाँच हजार ला कर कहा, ’स्वामी! आपने मुझे पाँच हजार असर्फियाँ सौंपी थीं। देखिए, मैंने और पाँच हजार कमायीं।’

21) उसके स्वामी ने उस से कहा, ’शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आनन्द के सहभागी बनो।’

22) इसके बाद वह आया, जिसे दो हजार अशर्फि़याँ मिली थीं। उसने कहा, ’स्वामी! आपने मुझे दो हज़ार अशर्फि़याँ सौंपी थीं। देखिए, मैंने और दो हज़ार कमायीं।’

23) उसके स्वामी ने उस से कहा, ’शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आन्नद के सहभागी बनो।’

24) अन्त में वह आया, जिसे एक हज़ार अशर्फियाँ मिली थीं, उसने कहा, ’स्वामी! मुझे मालूम था कि आप कठोर हैं। आपने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनते हैं और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरते हैं।

25) इसलिए मैं डर गया और मैंने जा कर अपना धन भूमि में छिपा दिया। देखिए, यह आपका है, इस लौटाता हूँ।’

26) स्वामी ने उसे उत्तर दिया, ’दुष्ट! तुझे मालूम था कि मैंने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनता हूँ और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरता हूँ,

27) तो तुझे मेरा धन महाजनों के यहाँ जमा करना चाहिए था। तब मैं लौटने पर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।

28) इसलिए ये हज़ार अशर्फियाँ इस से ले लो और जिसके पास दस हज़ार हैं, उसी को दे दो;

29) क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।

30) और इस निकम्मे सेवक को बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।



📚 मनन-चिंतन



जब येसु कोई दृष्टांत बताते हैं जिसमें तीन पात्र होते हैं, तो वे अक्सर तीसरे और अंतिम पात्र पर जोर देते हैं, जैसे कि भले समारी के दृष्टांत में समारी पर बल दिया जाता है। आज के सुसमाचार के दृष्टांत में, हमारा ध्यान फिर से तीसरे चरित्र की ओर खिंचा जाता है। तीसरा नौकर जिसने अपने स्वामी द्वारा दी गई राशि को लिया और उसे जमीन में छिपा दिया। ऐसा करने के पीछे उसका तर्क यह था कि वह अपने मालिक को अत्यधिक कठोर व मांग वाला व्यक्ति मानता था और जो कुछ उसे दिया गया था, उसके साथ कोई भी जोखिम लेने से डरता था। उसे जो दिया गया था उसे खोने का जोखिम उठाने के बजाय, उसने इसे छुपाया ताकि इसे वह सकुशल लौटा सके। अन्य दो सेवकों का अपने स्वामी के बारे में स्पष्ट रूप से एक अलग ही दृष्टिकोण था; उन्हें जो कुछ दिया गया था उसे निवेश करने की स्वतंत्रता थी। ऐसा लगता है कि वे अपने मालिक को समझ गए थे कि वे उन्हें कोशिश करने और असफल होने के लिए दोष नहीं देंगे। वह राशि स्वामी ने उन्हें उपहार स्वरुप दी थी; उसने कभी इसे वापस पाने का इरादा नहीं किया; वह बस इतना चाहता था कि जो कुछ उसने उन्हें दिया था, उसका वे सदुपयोग करें।

हम सभी को ईश्वर द्वारा अलग-अलग उपहार और अनुग्रह दिया गया है। परमेश्वर चाहता है कि जो कुछ हमें दिया गया है उसमें से हम एक दूसरे की सेवा के लिए उसका सदुपयोग करे। डर और शंका कभी-कभी हमें पीछे हटने को मज़बूर कर सकती है जैसा तीसरे सेवक ने किया। कलकत्ता की मदर टेरेसा ने कहा था कि ईश्वर हमें सफल होने के लिए नहीं, बल्कि वफादार बनने के लिए बुलाता है। आइये हम ईश्वर ने हमें जो कुछ दिया है उसके प्रति ईमानदार और वफादार बने रहें।



📚 REFLECTION




When Jesus speaks a parable in which there are several characters, the emphasis often falls on the third and final character to be mentioned, such as the Samaritan in the parable of the good Samaritan and the elder son in the parable of the prodigal son. In the parable of this morning’s gospel reading, the focus again falls on the third character, the servant who took the one talent his master had given him and simply hid it in the ground. His reason for doing this was that he considered his master an overly demanding person and was afraid to take any risk with what he had been given. Rather than risk losing what he had been given, he hid it so as to be able to give it back. The other two servants obviously had a different view of their master; they had the freedom to invest what they had been given. They seemed to have understood that their master would not blame them for trying and failing. The master had given them a gift; he never intended to look for it back; he simply wanted them to make good use of what he had given them.

We have all been gifted and graced in different ways by God. God wants us to serve one another out of what we have been given. Fear can sometimes hold us back, as it held back the third servant, fear of God, fear of others, fear of failure. It was Mother Teresa of Calcutta who said that God does not ask to be successful, just to be faithful. Jesus is suggesting through this parable that if we have enough trust in the God who loves us unconditionally we will have the freedom to give from what we have received, without worrying too much about success or failure.


 -Br. Biniush Topno


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शुक्रवार, 27 अगस्त, 2021 वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह

 

शुक्रवार, 27 अगस्त, 2021

वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह



पहला पाठ : 1 थेसलनीकियों 4:1-8



1) भाइयो! आप लोग हम से यह शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं कि किस प्रकार चलना और ईश्वर को प्रसन्न करना चाहिए और आप इसके अनुसार चलते भी हैं। अन्त में, हम प्रभु ईसा के नाम पर आप से आग्रह के साथ अनुनय करते हैं कि आप इस विषय में और आगे बढ़ते जायें।

2) आप लोग जानते हैं कि मैंने प्रभु ईसा की ओर से आप को कौन-कौन आदेश दिये।

3) ईश्वर की इच्छा यह है कि आप लोग पवित्र बनें और व्यभिचार से दूर रहें।

4) आप में प्रत्येक धर्म और औचित्य के अनुसार अपने लिए एक पत्नी ग्रहण करे।

5) गैर-यहूदियों की तरह, जो ईश्वर को नहीं जानते, कोई भी वासना के वशीभूत न हो।

6) कोई भी मर्यादा का उल्लंघन न करे और इस सम्बन्ध में अपने भाई के प्रति अन्याय नहीं करे; क्योंकि प्रभु इन सब बातों का कठोर दण्ड देता है, जैसा कि हम आप लोगों को स्पष्ट शब्दों में समझा चुके हैं।

7) क्योंकि ईश्वर ने हमें अशुद्धता के लिए नहीं, पवित्रता के लिए बुलाया;

8) इसलिए जो इस आदेश का तिरस्कार करता है, वह मनुष्य का नहीं, बल्कि ईश्वर का तिरस्कार करता है, जो आप को अपना पवित्र आत्मा प्रदान करता है।



सुसमाचार : सन्त मत्ती 25:1-13



1) उस समय स्वर्ग का राज्य उन दस कुँआरियों के सदृश होगा, जो अपनी-अपनी मशाल ले कर दुलहे की अगवानी करने निकलीं।

2) उन में से पाँच नासमझ थीं और पाँच समझदार।

3) नासमझ अपनी मशाल के साथ तेल नहीं लायीं।

4) समझदार अपनी मशाल के साथ-साथ कुप्पियों में तेल भी लायीं।

5) दूल्हे के आने में देर हो जाने पर ऊँघने लगीं और सो गयीं।

6) आधी रात को आवाज़ आयी, ’देखो, दूल्हा आ रहा है। उसकी अगवानी करने जाओ।’

7) तब सब कुँवारियाँ उठीं और अपनी-अपनी मशाल सँवारने लगीं।

8) नासमझ कुँवारियों ने समझदारों से कहा, ’अपने तेल में से थोड़ा हमें दे दो, क्योंकि हमारी मशालें बुझ रही हैं’।

9) समझदारों ने उत्तर दिया, ’क्या जाने, कहीं हमारे और तुम्हारे लिए तेल पूरा न हो। अच्छा हो, तुम लोग दुकान जा कर अपने लिए ख़रीद लो।’

10) वे तेल ख़रीदने गयी ही थीं कि दूलहा आ पहुँचा। जो तैयार थीं, उन्होंने उसके साथ विवाह-भवन में प्रवेश किया और द्वार बन्द हो गया।

11) बाद में शेष कुँवारियाँ भी आ कर बोली, प्रभु! प्रभु! हमारे लिए द्वार खोल दीजिए’।

12) इस पर उसने उत्तर दिया, ’मैं तुम से यह कहता हूँ- मैं तुम्हें नहीं जानता’।

13) इसलिए जागते रहो, क्योंकि तुम न तो वह दिन जानते हो और न वह घड़ी।



📚 मनन-चिंतन



येसु ने अक्सर ईश्वर के राज्य को विवाह भोज के रूप में लोगों के सामने पेश किया । इसमें ईश्वर को दूल्हे के रूप में और परमेश्वर के लोगों को उनकी की दुल्हन के रूप में बताया गया है। ऐसा ही चित्रण हमें नबियों के ग्रंथों में भी मिलता है। सुसमाचारों में येसु को भी कभी-कभी दिव्य दूल्हे के रूप में चित्रित किया जाता है; योहन बपतिस्ता को चौथे सुसमाचार में दूल्हे के मित्र के रूप में वर्णित किया गया है। आज के सुसमाचार में येसु जो दृष्टान्त बताते हैं, उसमे वे हम से कहते हैं कि हमें दुनिया के अंत में प्रभु के दूल्हे के सामान आगमन हेतु तैयार रहने की आवश्यकता है।

दूल्हे का स्वागत करने के लिए नियुक्त की गई दस कुवंरिंयों में से केवल पाँच अपनी मशालें जलाकर तैयार थीं। यह दृष्टांत हम सभी से आह्वान करता है कि हम अपनी मशालें जलाके रखें ताकि जब प्रभु हमारे जीवन के अंत में आयें तो वह हमें तैयार जाएँ। हमारी मशालों को जलाए रखने का क्या मतलब है? इससे पहले मत्ती के सुसमाचार में, पर्वत प्रवचन की शुरुआत में, यीशु ने हमें अपने भले कामों, प्रेम, दया और न्याय के कामों के द्वारा अपने अपनी ज्योति को दुनियां में चमकते रखने के लिए आह्वान किया था। पौलुस ने पहले पाठ में इसे वह जीवन बताया है जो ईश्वर हमसे चाहते हैं। यह एक ऐसा जीवन है जो हमें प्रभु के आने के लिए हर समय तैयार रखेगा। तो आइये हम हमारे भले कार्यों की मशाल हमेशा जलाये रखें और मसीह के आगमन के लिए सदा तैयार रहें।


📚 REFLECTION


Jesus often spoke of the kingdom of God as a wedding feast. It connected in with the understanding of God as the bridegroom and of the people of God as God’s bride, which is often found in the books of the prophets. In the gospels Jesus is sometimes portrayed as the divine bridegroom; John the Baptist is described in the fourth gospel as the friend of the bridegroom. The parable Jesus speaks in this morning’s gospel reading is about the coming of the Lord, of the bridegroom, at the end of time, and the need to be ready for his coming.

Of the five bridesmaids assigned to welcome the bridegroom, only five of them were ready with their torches lighting. The parable calls on all of us to keep our own torches lighting so that when the Lord comes at the end of our lives he will find us ready. What does it mean to keep our torches lighting? Earlier in Matthew’s gospel, at the beginning of the Sermon on the Mount, Jesus called on us to let our light shine by means of our good works, works of love, mercy and justice. This is what Paul refers to in the first reading as ‘the life that God wants. It is the kind of life which will keep us ready at all times for the Lord’s coming.


 -Br Biniush Topno


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गुरुवार, 26 अगस्त, 2021

 

गुरुवार, 26 अगस्त, 2021

वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : 1 थेसलनीकियों 3:7-13


7) भाइयो! हमें अपने सब कष्टों और संकटों में आप लोगों के विश्वास से सान्त्वना मिली है।

8) यह जान कर हम में अब नये जीवन का संचार हुआ है कि आप प्रभु में दृढ़ बने हुए हैं।

9) आपने हमें प्रभु के सामने कितना आनन्द प्रदान किया है! हम आप लोगों के विषय में ईश्वर को पर्याप्त धन्यवाद कैसे दे सकते हैं?

10) हम दिन-रात आग्रह के साथ ईश्वर से यह प्रार्थना करते रहते हैं कि हम आप को दुबारा देख सकें और आपके विश्वास में जो कमी रह गयी है, उसे पूरा कर सकें।

11) हमारा पिता ईश्वर और हमारे प्रभु ईसा हमारे लिए आपके पास पहुँचने का मार्ग सुगम बनायें।

12) प्रभु ऐसा करें कि जिस तरह हम आप लोगों को प्यार करते हैं, उसी तरह आपका प्रेम एक दूसरे के प्रति और सबों के प्रति बढ़ता और उमड़ता रहे।

13) इस प्रकार वह उस दिन तक अपने हृदयों को हमारे पिता ईश्वर के सामने पवित्र और निर्दोष बनायें रखें, जब हमारे प्रभु ईसा अपने सब सन्तों के साथ आयेंगे।



सुसमाचार : सन्त मत्ती 24:42-51


42) "इसलिए जागते रहो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि तुम्हारे प्रभु किस दिन आयेंगे।

43) यह अच्छी तरह समझ लो- यदि घर के स्वामी को मालूम होता कि चोर रात के किस पहर आयेगा, तो वह जागता रहता और अपने घर में सेंध लगने नहीं देता।

44) इसलिए तुम लोग भी तैयार रहो, क्योंकि जिस घड़ी तुम उसके आने की नहीं सोचते, उसी घड़ी मानव पुत्र आयेगा।

45) "कौन ऐसा ईमानदार और बुद्धिमान् सेवक है, जिसे उसके स्वामी ने अपने नौकर-चाकरों पर नियुक्त किया है, ताकि वह समय पर उन्हें रसद बाँटा करे?

46) धन्य है वह सेवक, जिसका स्वामी आने पर उसे ऐसा करता हुआ पायेगा!

47) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - वह उसे अपनी सारी सम्पत्ति पर नियुक्त करेगा।

48) "परन्तु यदि वह बेईमान सेवक अपने मन में कहे, मेरा स्वामी आने में देर करता है,

49) और वह दूसरे नौकरों को पीटने और शराबियों के साथ खाने-पीने लगे,

50) तो उस सेवक का स्वामी ऐसे दिन आयेगा, जब वह उसकी प्रतिक्षा नहीं कर रहा होगा और ऐसी घड़ी, जिसे वह नहीं जान पायेगा।

51) तब वह स्वामी उसे कोड़े लगवायेगा और ढोंगियों का दण्ड देगा। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।



📚 मनन-चिंतन


आज के सुसमाचार के दृष्टान्त में हम पाते हैं कि येसु किसी के घर में सेंधमारी करने वाले चोर की छवि का उपयोग कर रहे हैं। येसु चोर की चाल की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। चोर के आने का पता करने के लिए गृहस्थ के पास एक ही उपाय है कि वह रात भर जागता रहे। सारी रात जागते रहने वाला गृहस्थ येसु के दृष्टांत में उन शिष्यों की छवि बन जाता है जो प्रभु के द्वितीय आगमन के लिए सजग व तैयार रहेंगे।

प्रभु हमारे बारे में निरंतर सजग रहते हैं। उनकी निगाहें सदा हमारे ऊपर बनी रहती है। "मैंने तुम्हें अपनी हथेलियों पर अंकित किया है, तुम्हारी चारदीवारी निरन्तर मेरी आँखों के सामने है।" (इसायाह 49:16) इसके जवाब में हम भी ईश्वर को लेकर हमेशा सजग रहने के लिए बुलाये गए हैं। हमें हर समय प्रभु के प्रति जागरूक रहना कठिन लगता है, क्योंकि बहुत सी अन्य चीजें हमारे मन और हृदय को भर देती हैं। फिर भी, प्रभु हमसे यही चाहते हैं। हमें उनकी निरंतर उपस्थिति के एहसास में जीना है, उनकी उपस्थिति की जागरूकता में रहना है। इसे ही चिन्तनशील दृष्टिकोण कहा जा सकता है। इस दृष्टिकोण में हम हमारे सारे कार्यों, बातों और विचारों में ईश्वर के मापदंड से तौलकर ही कोई कदम उठाते हैं। हमसे ऐसी एक सजगता की उम्मीद की जाती है।



📚 REFLECTION




In today's gospel parable we find that Jesus is using the image of a thief breaking into someone's house. Jesus draws our attention to the trick of the thief. The only way for the householder to find out about the thief's arrival is to stay awake throughout the night. The householder who stays awake all night becomes the image of those disciples in Jesus' parable who will be alert and ready for the second coming of the Lord.

The Lord is constantly aware of us; His eyes are always on us. "See, I have inscribed you on the palms of my hands; your walls are continually before me." (Isaiah 49:16) In response to this, we too are called to be ever vigilant about God. We find it difficult to be aware of the Lord all the time, because so many other things fill our mind and heart. Yet, this is what the Lord wants of us. We have to live in the feeling of His constant presence, to live in the awareness of His presence. This can be called a reflective approach. In this, we take any step by weighing all our actions, things and thoughts according to the criteria of God. We are expected to have such an alertness.


 -Br Biniush Topno


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बुधवार, 25 अगस्त, 2021

बुधवार, 25 अगस्त, 2021

वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह




पहला पाठ : 1 थेसलनीकियों 2:9-13


9) भाइयो! आप को हमारा कठोर परिश्रम याद होगा। आपके बीच सुसमाचार का प्रचार करते समय हम दिन-रात काम करते रहे, जिससे किसी पर भार न डालें।

10) आप, और ईश्वर भी, इस बात के साक्षी हैं कि आप विश्वासियों के साथ हमारा आचरण कितना पवित्र, धार्मिक और निर्दोष था।

11) आप जानते हैं कि हम पिता की तरह आप में प्रत्येक को

12) उपदेश और सान्त्वना देते और अनुरोध करते थे कि आप उस ईश्वर के योग्य जीवन बितायें, जो आप को अपने राज्य की महिमा के लिए बुलाता है।

13) हम इसलिए निरन्तर ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि जब आपने इस से ईश्वर का सन्देश सुना और ग्रहण किया, तो आपने उसे मनुष्यों का वचन नहीं; बल्कि -जैसा कि वह वास्तव में है- ईश्वर का वचन समझकर स्वीकार किया और यह वचन अब आप विश्वासियों में क्रियाशील है।



सुसमाचार : सन्त मत्ती 23:27-32




27) ’’ढोंगी शास्त्रियों ओर फ़रीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम पुती हुई कब्रों के सदृश हो, जो बाहर से तो सुन्दर दीख पड़ती हैं, किन्तु भीतर से मुरदों की हड्डियों और हर तरह की गन्दगी से भरी हुई हैं।

28) इसी तरह तुम भी बाहर से लागों को धार्मिक दीख पड़ते हो, किन्तु भीतर से तुम पाखण्ड और अधर्म से भरे हुए हो।

29) ’’ढोंगी शास्त्रियों और फ़रीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम नबियों के मकबरे बनवा कर और धर्मात्माओं के स्मारक सँवार कर

30) कहते हो, ’’यदि हम अपने पुरखों के समय जीवित होते, तो हम नबियों की हत्या करने में उनका साथ नहीं देते’।

31) इस तरह तुम लोग अपने विरुद्ध यह गवाही देते हो कि तुम नबियों के हत्यारों की संतान हो।

32) तो, अपने पुरखों की कसर पूरी कर लो।



📚 मनन-चिंतन



खुद की निजी छवि और बाहरी दिखावट इस समय हमारी संस्कृति में महत्वपूर्ण मूल्य माने जाते हैं। यहाँ अच्छा दिखने पर जोर दिया जाता है, और लोग अच्छा दिखने के लिए बहुत कुछ करते हैं। अच्छा दिखने के लिए संसाधनों का आज पूरा बाजार भरा पड़ा है। सुसमाचार में, येसु बाहर के बजाय जो भीतर है उसके महत्व पर प्रकाश डालते हैं। लोग अंदर से कैसे हैं ये उनके बाहरी प्रकटीकरण से ज़्यादा मायने रखता है।

क्रूस पर से लटकते हुए यीशु सबसे अनाकर्षक व विरूपित रूप में प्रकट हुए। फिर भी, यही वह क्षण था जब उनके भीतर मानव जाती के लिए जो प्रेम था वह अपने चरम पर था। गरीब विधवा जिसने मंदिर के खजाने में तांबे के दो सिक्के डाले थे, वह संसार की निगाहों में एक तुच्छ व्यक्ति लग रही थी जो एक तुच्छ राशि का योगदान कर रही थी। तौभी यीशु ने इस स्त्री के भीतर के उदार हृदय, को असाधारण रूप से देखा, और उसने अपने शिष्यों को बुलाया और इस सचाई को उनको बताया की बहार से उस विधवा ने न के बराबर दान दिया है परन्तु भीतर से उसने अपना सब कुछ दान कर दिया है।

आज का सुसमाचार हमें अपने दिखावे के बजाये हमारे हृदय में प्रेम की गुणवत्ता पर अधिक काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है।



📚 REFLECTION




Image and appearance are important values in our culture at the moment. There is an emphasis on looking well, and people can go to great lengths to look well. In the gospel reading, Jesus highlights the importance of what is within rather than what is without. How people are within themselves rather than how they appear to others is what matters. Jesus himself appeared at his most unattractive as he hung dying from the cross. Yet, that was the moment when the love that was within him was at its most intense.

The poor widow who put two copper coins into the Temple treasury looked an insignificant figure contributing an insignificant amount of money. Yet Jesus saw through the unexceptional appearance of this woman to the generous heart within, a heart like his own, and he called over his disciples so that they could learn from her. Appearances can be deceptive. In the case of the scribes and Pharisees in today’s gospel reading there was less there than met the eye. In the case of the widow and Christ crucified there was more than met the eye. The gospel reading this morning encourages us not to work so much on our appearances as on what is within, the quality of the love in our heart.



 -Br Biniush Topno


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