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1 अगस्त का पवित्र पाठ

01 अगस्त 2020
वर्ष का सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह, शनिवार

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

📒 पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 26:11-16,24

11) याजकों और नबियों ने शासकों और समस्त जनता से कहा, “यह व्यक्ति प्राणदण्ड के योग्य है। इसने इस नगर के विरुद्ध भवियवाणी की है, जैसा कि आपने अपने कानों से सुना है।“

12) किन्तु यिरमियाह ने शासकों और समस्त जनता से कहा, “तुम लोगों ने इस मन्दिर और इस नगर के विरुद्ध जो भवियवाणी सुनी है, मैंने उसे प्रभु के आदेश से घोषित किया है।

13) इसलिए अपना आचरण सुधारो। अपने प्रभु-ईश्वर की बात सुनो, जिससे उसने जो विपत्ति भेजने की धमकी दी है, वह उसका विचार छोड़ दे।

14) मैं तो तुम्हारे वश में हूँ- जो उचित और न्यायसंगत समझते हो, वही मेरे साथ करो।

15) किन्तु यह अच्छी तरह समझ लो कि यदि तुम मेरा वध करोगे, तो तुम अपने पर, इस नगर और इसके निवासियों पर निर्दोष रक्त बहाने का अपराध लगाओगे; क्योंकि प्रभु ने ही तुम्हें यह सब सुनाने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।“

16) इस पर शासकों और समस्त जनता ने याजकों और नबियां से कहा, “यह व्यक्ति प्राणदण्ड के योग्य नहीं है। यह हमारे प्रभु ईश्वर के नाम पर हम से बोला है।“

24) शाफ़ान के पुत्र अहीकाम ने यिरमियाह की रक्षा की और उसे लोगों के हाथ नहीं पड़ने दिया, जो उसका वध करना चाहते थे।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 14:1-12

1) उस समय राजा हेरोद ने ईसा की चर्चा सुनी।

2) और अपने दरबारियों से कहा, ’’यह योहन बपतिस्ता है। वह जी उठा है, इसलिए वह महान् चमत्कार दिखा रहा है।’’

3) हेरोद ने अपने भाई फि़लिप की पत्नी हेरोदियस के कारण योहन को गिरफ़्तार किया और बाँध कर बंदीगृह में डाल दिया था;

4) क्योंकि योहन ने उस से कहा था, ’’उसे रखना आपके लिए उचित नहीं है’’।

5) हेरोद योहन को मार डालना चाहता था; किन्तु वह जनता से डरता था, जो योहन को नबी मानती थी।

6) हेरोद के जन्मदिवस के अवसर पर हेरोदियस की बेटी ने अतिथियों के सामने नृत्य किया और हेरोद को मुग्ध कर दिया।

7) इसलिए उसने शपथ खा कर वचन दिया कि वह जो भी माँगेगी, उसे दे देगा।

8) उसकी माँ ने उसे पहले से सिखा दिया था। इसलिए वह बोली, ’’मुझे इसी समय थाली में योहन बपतिस्ता का सिर दीजिए’’।

9) हेरोद को धक्का लगा, परन्तु अपनी शपथ और अतिथियों के कारण उसने आदेश दिया कि उसे सिर दे दिया जाये।

10) और प्यादों को भेज कर उसने बंदीगृह में योहन का सिर कटवा दिया।

11) उसका सिर थाली में लाया गया और लड़की को दिया गया और वह उसे अपनी माँ के पास ले गयी।

12) योहन के शिष्य आ कर उसका शव ले गये। उन्होंने उसे दफ़नाया और जा कर ईसा को इसकी सूचना दी।

📚 मनन-चिंतन

आज के दोनों पाठों में हमें एक समान परिस्थिति दिखाई देती है, जहाँ पहले पाठ में नबी येरेमीयस को अत्याचार का सामना करना पड़ता है क्योंकि वह प्रभु की सत्य वाणी को लोगों तक पहुँचाना चाहता था। भले ही उसके शब्द सुनने में प्रिय नहीं थे, लेकिन वे सत्य से पूर्ण थे; वे ईश्वर के शब्द थे। मन्दिर के दूसरे पुजारी और नबी सत्य और ईमानदारी का जीवन नहीं जी रहे थे। वे अपना जीवन ईश्वर की इच्छानुसार नहीं जी रहे थे, वे बुराई के कार्यों में लिप्त थे, ऐसे कार्य जो उन्हें ईश्वर से दूर ले जाते थे। इसी प्रकार आज के सुसमाचार में हम योहन बप्तिस्ता को देखेत हैं जिसने हेरोद और उसके भाई की पत्नी हेरोदीयस के काले कारनामों का खुलकर विरोध किया। वे दोनों अनैतिक जीवन जीवन जी रहे थे जो ईश्वर की नज़रों में अप्रिय है। नबी येरेमीयस और योहन बप्तिस्ता दोनों को इस दुनिया को सही रहा दिखाने के कारण दुःख और अत्याचारों का सामना करना पड़ा था।

आज हम नबी येरेमीयस और योहन बप्तिस्ता के समय से अधिक पापी संसार में हैं। आज हम देखते हैं कि लोग नैतिकता और नैतिक मूल्यों से अनजान हैं, बुराई फल-फूल रही है, लोग ईश्वर की राह से अपनी आँखें और कान बन्द कर लेते हैं। लोग दुनिया के पापी मार्गों पर भटक जाना पसन्द करते हैं जो उन्हें ईश्वर से दूर विनाश की ओर ले जाते हैं। आज के पाठ हमें नबी येरेमीयस और योहन बप्तिस्ता की तरह ईश्वर की वाणी का माध्यम बनना है, भले ही इसके लिए हमें कितने भी कष्ट और अत्याचार क्यों ना सहने पड़ें। इस ज़िम्मेदारी के लिए ईश्वर ने हममें से प्रत्येक को व्यक्तिगत रूप से चुना है। हे प्रभु हमें आपकी आवाज़ बनने की कृपा और शक्ति प्रदान कीजिए ताकि हम संसार के सामने आपका साक्ष्य दे सकें। आमेन।



📚 REFLECTION

Today in both the readings we see a similar situation where in the first reading Jeremiah is subjected to torture because he spoke what the Lord had asked him to speak. Though the words were not pleasant to hear, but they were truth; they were from God. Other priests of the temple and prophets were not living an authentic and sincere life. They were not living a life as God wanted them to live, they involved themselves in evil ways; ways that led them away from God. Similarly, in the gospel we see John the Baptist who opposed and corrected the ways of Herod and his brother’s wife Herodias. They both were living immoral life, a life unacceptable in the eyes of the Lord. Both prophet Jeremiah and John the Baptist had to suffer for correcting the wrong ways of the world.

Today we live in a much evil world then at the time of Jeremiah or John the Baptist. We see that people have become alien to morality and moral values, evil is thriving, people close their eyes and ears from God’s ways. They like and choose to be lost in the evil ways of the world that lead them away from God. Today’s readings challenge and invite us to become the voice of the Lord like Jeremiah and John the Baptist, even at the cost of pain and suffering. God has chosen each one of us for this responsibility. Give us strength and courage Lord, to speak for you and to witness the Truth before the world. Amen

✍-Biniush Topno


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31 जुलाई का पवित्र पाठ

31 जुलाई 2020
वर्ष का सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह, शुक्रवार

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 26:1-9

1) योशीया के पुत्र यूदा के राजा यहोयाकीम के शासनकाल के प्रारम्भ में यिरमियाह को प्रभु की यह वाणी सुनाई पड़ीः

2) “प्रभु यह कहता है- प्रभु के मन्दिर के प्रांगण में खड़ा हो कर यूदा के सब नगरों के निवासियों को सम्बोधित करो, जो वहाँ आराधना करने आते हैं। जो कुछ मैं तुम्हें बताऊँगा, यह सब उन्हें सुनाओगे- एक शब्द भी नहीं छोड़ोगे।

3) हो सकता है कि वे सुनें और अपना कुमार्ग छोड़ कर मेरे पास लौट आयें। तब मैं भी अपना मन बदल कर उनके पापों के कारण उन पर विपत्ति भेजने का अपना विचार छोड़ दूँगा।

4) इसलिए उन से कहो: प्रभु यह कहता है -यदि तुम लोग मेरी बात नहीं सुनोगे और उस संहिता का पालन नहीं करोगे, जिसे मैंने तुम को दिया है;

5) यदि तुम मेरे सेवकों की उन नबियों की बात नहीं सुनोगे, जिन्हें मैं व्यर्थ ही तुम्हारे पास भेजता रहा,

6) तब मैं इस मन्दिर के साथ वही करूँगा, जो मैंने शिलो के साथ किया और मैं इस नगर को पृथ्वी के राष्ट्रों की दृष्टि में अभिशाप की वस्तु बना दूँगा।“

7) याजकों, नबियों और सभी लोगों ने प्रभु के मन्दिर में यिरमियाह का यह भाषण सुना।

8) जब यिरमियाह प्रभु के आदेश के अनुसार जनता को यह सब सुना चुका था, तो याजक, नबी और सब लोग यह कहते हुए उस पर टूट पड़े: “तुम को मरना ही होगा।

9) तुमने क्यों प्रभु के नाम पर भवियवाणी की है कि यह मन्दिर शिलो के सदृश और यह नगर एक निर्जन खँडहर हो जायेगा?“ सब लोगों ने प्रभु के मन्दिर में यिरमियाह को घेर लिया।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 13:54-58

54) वे अपने नगर आये, जहाँ वे लोगों को उनके सभाग्रह में शिक्षा देते थे। वे अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ’’इसे यह ज्ञान और यह सामर्थ्य कहाँ से मिला?

55) क्या यह बढ़ई का बेटा नहीं है? क्या मरियम इसकी माँ नहीं? क्या याकूब, यूसुफ, सिमोन और यूदस इसके भाई नहीं?

56) क्या इसके सब बहनें हमारे बीच नहीं रहतीं? तो यह सब इसे कहाँ से मिला?’’

57) पर वे ईसा में विश्वास नहीं कर सके। ईसा ने उन से कहा, ’’अपने नगर और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता।’’

58) लोगों के अविश्वास के कारण उन्होंने वहाँ बहुत कम चमत्कार दिखाये।

📚 मनन-चिंतन - 1

प्रभु येसु ईश्वर हैं। अपने देहधारण के द्वारा वे सभी बातों में हमारे जैसे बन गये। इब्रानियों का पत्र कहता है, "हमारे प्रधानयाजक हमारी दुर्बलताओं में हम से सहानुभूति रख सकते हैं, क्योंकि पाप के अतिरिक्त अन्य सभी बातों में उनकी परीक्षा हमारी ही तरह ली गयी है।" (4:15) अपने सांसारिक जीवन के दौरान, वे मनुष्यों के सभी दर्दनाक अनुभवों से गुजरे। हमारे समाज में लोगों को विभिन्न प्रकार के भेदभाव को झेलना पड़ता है। उनमें से एक है माता-पिता की जाति या उनके धन्धे को लेकर भेदभाव। निम्न जाति या वर्ग के लोगों और साधारण सेवा-कार्य करने वाले लोगों को इस प्रकार के भेदभाव का सामना पड़ता है। आज के सुसमाचार-भाग में, हम देखते हैं कि यद्यपि यीसु ने अपार ज्ञान की बात की थी, लेकिन उन्हें उनके परिवार की पैतृक पृष्ठभूमि और सामाजिक स्थिति के आधार पर आंका गया था। लोगों ने उन पर विश्वास नहीं किया और फलस्वरूप उन्होंने उनके लिए ज़्यादा चमत्कार नहीं किए। नबी इसायाह ने इसके बारे में भविष्यवाणी की थी: “वह मनुष्यों द्वारा निन्दित और तिरस्कृत था, शोक का मारा और अत्यन्त दुःखी था। लोग जिन्हें देख कर मुँह फेर लेते हैं, उनकी तरह ही वह तिरस्कृत और तुच्छ समझा जाता था। ”(इसायाह 53: 3)। हमारा समाज उन लोगों के प्रति निर्दयी है जो निम्न सामाजिक स्थिति के हैं। हममें से कई लोग शारीरिक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक रूप से पीड़ित लोगों के प्रति कठोर मनोभाव अपनाते हैं। आइए हम हर जगह अच्छाई और सच्चाई को पहचानने और स्वीकार करने के लिए अपने मन और हृदय को खुले रखना सीखें।


📚 REFLECTION

Jesus is God. By incarnation he became like us in all things. The Letter to the Hebrews says, “For we do not have a high priest who is unable to sympathize with our weaknesses, but we have one who in every respect has been tested as we are, yet without sin.” (4:15) During his earthly life, he went through all painful experiences of human beings. One of the ways in which people suffer in our society is humiliation and discrimination based on parental background. This is suffered by people belonging lower caste or class and those doing menial jobs. In today’s Gospel passage, we see that although Jesus spoke unmatchable wisdom, he was judged on the basis of parental background and social status of his family. The people did not believe in him and consequently he did not work many miracles for them. Prophet Isaiah had foretold about it : “He was despised and rejected by others; a man of suffering and acquainted with infirmity; and as one from whom others hide their faces he was despised, and we held him of no account” (Is 53:3). Our society is unkind towards those who are of lower social status. Many of us are also harsh towards those with physical, mental or psychological disability. Let us learn to be open to recognize and accept goodness and truth anywhere.

 -Br. Biniush Topno



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30 जुलाई का पवित्र पाठ

30 जुलाई 2020
वर्ष का सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह, गुरुवार

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 18:1-6

1) प्रभु की वाणी यिरमियाह को यह कहते हुए सुनाई पड़ी,

2) “उठो और कुम्हार के घर जाओ। वहाँ मैं तुम्हें अपना सन्देश दूँगा“

3) मैं कुम्हार के घर गया, जो चाक पर काम कर रहा था।

4) वह जो बरतन बना रहा था, जब वह उसके हाथ में बिगड़ जाता, तो वह उसकी मिट्टी से अपनी पसंद का दूसरा बरतन बनाता।

5) तब प्रभु की यह वाणी मुझे सुनाई पड़ी,

6) “इस्राएलियो! क्या मैं इस कुम्हार की तरह तुम्हारे साथ व्यवहार नहीं कर सकता?“ यह प्रभु की वाणी हैं। “इस्राएलियों! जैसे कुम्हार के हाथ में मिट्टी है, वैसे ही तुम भी मेरे हाथ में हो।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 13:47-53

47) ’’फिर, स्वर्ग का राज्य समुद्र में डाले हुए जाल के सदृश है, जो हर तरह की मछलियाँ बटोर लाता है।

48) जाल के भर जाने पर मछुए उसे किनारे खींच लेते हैं। तब वे बैठ कर अच्छी मछलियाँ चुन-चुन कर बरतनों में जमा करते हैं और रद्दी मछलियाँ फेंक देते हैं।

49) संसार के अन्त में ऐसा ही होगा। स्वर्गदूत जा कर धर्मियों में से दुष्टों को अलग करेंगे।

50) और उन्हें आग के कुण्ड में झोंक देंगे। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।

51) ’’क्या तुम लोग यह सब बातें समझ गये?’’ शिष्यों ने उत्तर दिया, ’’जी हाँ’’।

52) ईसा ने उन से कहा, ’’प्रत्येक शास्त्री, जो स्वर्ग के राज्य के विषय में शिक्षा पा चुका है, उस ग्रहस्थ के सदृश है, जो अपने ख़जाने से नयी और पुरानी चीज़ें निकालता है’’।

53) इन दृष्टान्तों के समाप्त होने पर ईसा वहाँ से चले गये।

📚 मनन-चिंतन - 1

आज, सुसमाचार में येसु अपने समय के मछुआरों के सामान्य अनुभवों को लेकर ईमेश्वर के राज्य के रहस्यों को प्रकट करते हैं। मछुआरों का यह नियमित काम था कि मछलियों को पकड़ने के बाद अच्छी मछलियों को बुरी मछलियों से अलग किया जाए। अच्छी मछलियों को इकट्ठा किया जाता और बुरी मछलियों को फेंक दिया जाता। येसु इस बात की तुलना अंतिम न्याय से करते हैं। हमारे कर्मों के अनुसार हमारा न्याय किया जाएगा। अंतिम निर्णय के दिन तक प्रभु प्रभु इंतज़ार करते हैं। प्रभु चाहते हैं कि हम इस बात से अवगत हों कि अंत में धर्मियों और दुष्टों का क्या होगा। यह हमारे लिए ज़रूरी है कि हम दोनों की नियति को जानकर धर्मी या दुष्ट बनने को चुनें। एक दिन हमारे लिए आवंटित समय अचानक समाप्त हो जाएगा और हमें आंका जाएगा। उस दिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं होगा। चुनाव प्रभु का ही है। अच्छे लोगों की संगति उस दिन दुष्टों को नहीं बचाएगी। धर्मियों की भलाई दुष्टों की मदद नहीं करेगी। हम सभी का अपनी व्यक्तिगत पवित्रता के अनुसार न्याय किया जाएगा। क्या हम उस दिन के लिए तैयार हैं? यदि हम एक परीक्षा में असफल होते हैं, तो फिर से प्रयास कर सकते हैं; दुबारा लिख सकते हैं। यदि हम एक मैच में असफल होते हैं, तो हमारे पास दूसरी, तीसरी और चौथी मैचों में संभावनाएं हो सकती हैं। लेकिन मृत्यु पर मानव आत्मा को पता चलता है कि उसका एकमात्र अवसर खत्म हो गया है। मृत्यु का समय भी निश्चित नहीं है। यह कभी भी हो सकता है। इसलिए हमें हर समय तैयार रहने के लिए समझदार बनना चाहिए।


📚 REFLECTION

Today, in the Gospel Jesus takes the ordinary experiences of the fishermen of his time and reveals the mysteries of the Kingdom of God. It was a routine work of fishermen to separate the good fish from the bad fish after the catch. The good fish would be collected and the bad fish would be thrown away. Jesus compares this with what will happen to people at the final judgement. We shall be judged according to our deeds. The Lord is patient until the day of final judgement. The Lord wants us to be aware of what will happen to the righteous and the wicked at the end. It is for us to choose to be righteous or wicked after knowing the destiny of both. One day the time allotted to us will abruptly come to an end and we shall be judged. On that day we shall not have a choice. The choice is of the Lord. Company of good people will not save the wicked on that day. Their goodness will not come to the aid of the wicked. We will all be judged according to our personal sanctity. Are we ready for that day? If you fail in an examination, you may attempt again. If you fail in a match, you may have chances in successive matches. But human soul at death realises that it has been through its one and only chance. The time of death is not fixed. It can happen any time. Hence we need to be wise enough to be prepared at all times.

 -Br. Biniush Topno


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29 जुलाई का पवित्र वचन

29 जुलाई 2020
वर्ष का सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह, बुधवार

सन्त मार्था – अनिवार्य स्मृति

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ : 1 योहन 4:7-16

7) प्रिय भाइयो! हम एक दूसरे को प्यार करें, क्योंकि प्रेम ईश्वर से उत्पन्न होता है।

8) जौ प्यार करता है, वह ईश्वर की सन्तान है और ईश्वर को जानता है। जो प्यार नहीं करता, वह ईश्वर को नहीं जानता; क्येोंकि ईश्वर प्रेम है।

9) ईश्वर हम को प्यार करता है। यह इस से प्रकट हुआ है कि ईश्वर ने अपने एकलौते पुत्र को संसार में भेजा, जिससे हम उसके द्वारा जीवन प्राप्त करें।

10) ईश्वर के प्रेम की पहचान इस में है कि पहले हमने ईश्वर को नहीं, बल्कि ईश्वर ने हम को प्यार किया और हमारे पापों के प्रायश्चित के लिए अपने पुत्र को भेजा।

11) प्रयि भाइयो! यदि ईश्वर ने हम को इतना प्यार किया, तो हम को भी एक दूसरे को प्यार करना चाहिए।

12) ईश्वर को किसी ने कभी नहीं देखा। यदि हम एक दूसरे को प्यार करते हैं, तो ईश्वर हम में निवास करता है और ईश्वर के प्रति हमारा प्रेम पूर्णता प्राप्त करता है।

13) यदि वह इस प्रकार हमें अपना आत्मा प्रदान करता है, तो हम जान जाते हैं कि हम उस में और वह हम में निवास करता है।

14) पिता ने अपने पुत्र को संसार के मुक्तिदाता के रूप में भेजा। हमने यह देखा है और हम इसका साक्ष्य देते हैं।

15) जो यह स्वीकार करता है कि ईसा ईश्वर के पुत्र हैं, ईश्वर उस में निवास करता है और वह ईश्वर में।

16) इस प्रकार हम अपने प्रति ईश्वर का प्रेम जान गये और इस में विश्वास करते हैं। ईश्वर प्रेम है और जो प्रेम में दृढ़ रहता है, वह ईश्वर में निवास करता है और ईश्वर उस में।

अथवा - सुसमाचार : योहन 11:19-27

19) इसलिये भाई की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने के लिये बहुत से यहूदी मरथा और मरियम से मिलने आये थे।

20) ज्यों ही मरथा ने यह सुना कि ईसा आ रहे हैं, वह उन से मिलने गयी। मरियम घर में ही बैठी रहीं।

21) मरथा ने ईसा से कहा, “प्रभु! यदि आप यहाँ होते, तो मेरा भाई नही मरता

22) और मैं जानती हूँ कि आप अब भी ईश्वर से जो माँगेंगे, ईश्वर आप को वही प्रदान करेगा।“

23) ईसा ने उसी से कहा “तुम्हारा भाई जी उठेगा“।

24) मरथा ने उत्तर दिया, “मैं जानती हूँ कि वह अंतिम दिन के पुनरुथान के समय जी उठेगा“।

25) ईसा ने कहा, "पुनरुथान और जीवन में हूँ। जो मुझ में विश्वास करता है वह मरने पर भी जीवित रहेगा

26) और जो मुझ में विश्वास करते हुये जीता है वह कभी नहीं मरेगा। क्या तुम इस बात पर विश्वास करती हो?"

27) उसने उत्तर दिया, "हाँ प्रभु! मैं दृढ़ विश्वास करती हूँ कि आप वह मसीह, ईश्वर के पुत्र हैं, जो संसार में आने वाले थे।"

अथवा - सुसमाचार : लूकस 10:38-42

38) ईसा यात्रा करते-करते एक गाँव आये और मरथा नामक महिला ने अपने यहाँ उनका स्वागत किया।

39) उसके मरियम नामक एक बहन थी, जो प्रभु के चरणों में बैठ कर उनकी शिक्षा सुनती रही।

40) परन्तु मरथा सेवा-सत्कार के अनेक कार्यों में व्यस्त थी। उसने पास आ कर कहा, ’’प्रभु! क्या आप यह ठीक समझते हैं कि मेरी बहन ने सेवा-सत्कार का पूरा भार मुझ पर ही छोड़ दिया है? उस से कहिए कि वह मेरी सहायता करे।’’

41) प्रभु ने उसे उत्तर दिया, ’’मरथा! मरथा! तुम बहुत-सी बातों के विषय में चिन्तित और व्यस्त हो;

42) फिर भी एक ही बात आवश्यक है। मरियम ने सब से उत्तम भाग चुन लिया है; वह उस से नहीं लिया जायेगा।’’

📚 मनन-चिंतन - 1

आज हम बेथानिया की संत मरथा का त्योहार मनाते हैं, जो मरियम और लाज़रुस की बहन थी। मरथा को उनके आतिथ्य के लिए याद किया जाता है। जब येसु उनके परिवार में आते हैं, तब वह उनकी सेवा में व्यस्त हो जाती है। वह न केवल सेवा करती है, बल्कि अपनी बहन मरियम से भी अपेक्षा करती है कि वह प्रभु की सेवा में उसकी मदद करें। फिर, जब लाज़रुस की मृत्यु के बाद येसु बेथानिया में उनसे मिलने जाते हैं, तो मरथा येसु से मिलने के लिए निकल पड़ती है। इस प्रकार वह आतिथ्य के कर्तव्य को पूरा करती है। योहन 12: 2 में येसु के आगमन पर, सुसमाचार लेखक लिखता है - "मरथा परोसती थी"। यह अक्सर कई पिताओं के खिलाफ शिकायत है कि उनके पास बच्चों के लिए समय नहीं है। कई पिता अपनी पत्नी और बच्चों के लिए आजीविका कमाने में इतने व्यस्त हैं कि वे कभी-कभी परिवार के साथ रहने का समय नहीं निकाल पाते हैं। वे अपने कर्तव्यों और कार्यों में व्यस्त हैं और अपने प्रियजनों के लिए अपना प्यार प्रकट करने के लिए बहुत कम समय पाते हैं। सुसमाचर में हम मरथा को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पाते हैं जो अपने सेवा-कार्य में व्यस्त है, लेकिन वह उस अतिथि के साथ समय बिताने में विफल रहती है जिसकी वह सेवा करती है। येसु उसे समझाते हैं कि प्रभु के चरणों में बैठना, ईश्वर के वचन को सुनना और उसे आंतरिक करना प्रभु के नाम पर हमारी सेवा के कार्यों से अधिक महत्वपूर्ण है। यदि हम ईश्वर के वचन की उपेक्षा करते हैं, तो हमारी प्रशंसनीय मेहनत भी एक जोखिम हो सकती है। संत योहन के सुसमाचार में हम कई विश्वास की घोषणाएं पाते हैं। मरथा भी जब येसु से कहती है, "मैं दृढ़ विश्वास करती हूँ कि आप वह मसीह, ईश्वर के पुत्र हैं, जो संसार में आने वाले थे" (योहन 11:27)। यह संत पेत्रुस की विश्वास-घोषणा के समान है जो हमें मत्ती 16:16 में मिलता है। उससे पहले उसने मृतकों के पुनरुत्थान में अपना विश्वास व्यक्त किया था। इस प्रकार मरथा हमें आतिथ्य, सेवा और विश्वास के महान सबक सिखाती है!


📚 REFLECTION

Today we celebrate the feast of St. Martha of Bethany, sister of Mary and Lazarus. Martha is remembered for her hospitality. When Jesus comes to her family she gets busy with serving him. She not only serves, but expects her sister Mary too to help her in serving the Lord. Again, when Jesus comes to visit her family at Bethany after the death of Lazarus, it is Martha who comes to greet Jesus, fulfilling her duty of hospitality. In Jn 12:2 at yet another visit of Jesus, the evangelist mentions – “Martha served”.

It is often a complaint against many Dads that they have no time for children. Many of the dads are too busy with earning a livelihood for their wife and children that they may sometimes fail to find time to be with the family. They are busy with their duties and tasks and find little time to express their love for their dear ones. In the Gospel we find Martha as a person who is busy with her act of serving, but fails to spend time with the guest whom she serves. Jesus makes her understand that sitting at the feet of the Lord, listening to and interiorising the Word of God is more important than our acts of service in the name of the Lord. Even our laudable hard work can be at risk if the Word of God is neglected.

In the Gospel of St. John, we find many Christological declarations. Martha too makes a Christological declaration when she says to Jesus, “I believe that you are the Messiah, the Son of God, the one coming into the world” (Jn 11:27). This is very similar the Christological declaration of St. Peter which we find in Mt 16:16. Prior to that, she expressed her belief in the resurrection of the dead. Thus Martha teaches us great lessons of hospitality, service and faith.

 -Br. Biniush Topno

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28;जुलाई का पाठ

28 जुलाई 2020
वर्ष का सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह, मंगलवार

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 14:17-22

17) “तुम उन्हें यह कहोगे: ’मैं दिन-रात निरन्तर आँसू बहाता रहता हूँ, क्योंकि मेरी पुत्री विपत्ति की मारी है, मेरी प्रजा घोर संकट में पड़ी हुई है।

18) यदि मैं खेतों की ओर जाता हूँ, तो तलवार से मारे हुए लोगों को देखता हूँ और यदि मैं नगर में आता हूँ, तो उन्हें भूखों मरते देखता हूँ। नबी और याजक भी देश में मारे-मारे फिरते हैं और नहीं समझते हैं कि क्या हो रहा है?।“

19) क्या तूने यूदा को त्याग दिया है? क्या तुझे सियोन से घृणा हो गयी है? तूने हमें क्यों इस प्रकार मारा है, कि अब उपचार असम्भव हो गया है। हम शान्ति की राह देखते रहे, किन्तु वह मिली नहीं। हम कल्याण की प्रतीक्षा करते रहे, किन्तु आतंक बना रहा।

20) प्रभु! हम अपनी दुष्टता और अपने पूर्वजों का अपराध स्वीकार करते हैं। हमने तेरे विरुद्ध पाप किया है।

21) अपने नाम के कारण हमें न ठुकरा; अपने महिमामय सिंहासन का अपमान न होने दे। हमारे लिए अपने विधान को न भुला और उसे भंग न कर।

22) क्या राष्ट्रों के देवताओं में कोई पानी बरसा सकता है? क्या आकाश अपने आप वर्षा कर सकता है? हमारे प्रभु-ईश्वर! तुझ में ही यह सामर्थ्य है। इसलिए हमें तेरा भरोसा है; क्योंकि तू ही यह सब करता है।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 13:36-43

36) ईसा लोगों को विदा कर घर लौटे। उनके शिष्यों ने उनके पास आ कर कहा, ’’खेत में जंगली बीज का दृष्टान्त हमें समझा दीजिए’’।

37) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ’’अच्छा बीज बोने बाला मानव पुत्र हैं;

38) खेत संसार है; अच्छा बीज राज्य की प्रजा है; जंगली बीज दृष्ट आत्मा की प्रजा है;

39) बोने बाला बैरी शैतान है; कटनी संसार का अंत है; लुनने वाले स्वर्गदूत हैं।

40) जिस तरह लोग जंगली बीज बटोर कर आग में जला देते हैं, वैसा ही संसार के अंत में होगा।

41) मानव पुत्र अपने स्वर्गदूतों को भेजेगा और वे उसके राज्य क़़ी सब बाधाओं और कुकर्मियों को बटोर कर आग के कुण्ड में झोंक देंगें।

42) वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।

43) तब धर्मी अपने पिता के राज्य में सूर्य की तरह चमकेंगे। जिसके कान हों, वह सुन ले।

📚 मनन-चिंतन - 1

खेत के जंगली बीज के दृष्टांत के माध्यम से प्रभु येसु हमें यह बताना चाहते हैं कि हम इस दुनिया में जीवन भर अच्छे और बुरे के बीच संघर्ष में शामिल हैं। प्रभु ईश्वर अच्छे बीज बोते रहते हैं। शैतान जंगली बीज बोता रहता है। हमें, जो ज्ञान और विवेक के साथ सृष्ट किये गये हैं, लगभग हर समय अच्छे और बुरे के बीच वास्तविक चयन करना पडता है। धर्मियों को अंत में, अच्छाई की अंतिम जीत पर पुरस्कृत किया जाएगा। दृष्टान्त तब अधिक जटिल हो जाता है जब हम सीखते हैं कि जिस जंगली बीज का ज़िक्र प्रभु येसु करते हैं, वह गेहूँ की तरह ही दिखता है। दाने दिखाई देने पर ही अंतर स्पष्ट हो जाता है। सन्देश स्पष्ट है - शैतान हमें धोखा देने की कोशिश करता है। जब तक हम सतर्क और सावधान नहीं रहेंगे, हम उसके धोखे के शिकार बने रहेंगे। सूक्ति 14:12 में हम पढ़ते हैं, "कुछ लोग अपना आचरण ठीक समझते हैं, किन्तु वह अन्त में उन्हें मृत्यु की ओर ले जाता है"। संत पौलुस कहते हैं, "यह आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि स्वयं शैतान ज्योतिर्मय स्वर्गदूत का स्वाँग रचता है" (2 कुरिन्थियों 11:14)। 2 कुरिन्थियों 11: 3 में वे कहते हैं कि शैतान "ने अपनी धूर्तता से हेवा को धोखा दिया था”। प्रकाशना 12: 9 में शैतान को सारे संसार को भटकाने वाला कहा गया है। इस प्रकार आज का सुसमाचार ख्रीस्तीय जीवन में सावधानी और सतर्कता का आह्वान करता है।



📚 REFLECTION

Through the parable of the weeds of the field, Jesus wants us to know that we are constantly involved in a conflict between good and evil throughout our lives in this world. God keeps sowing the good seeds. The devil keeps sowing weeds. We who are gifted with reasoning and discernment are to make real choices between good and evil almost all the time. The righteous will be rewarded at the end of the battle, at the ultimate victory of goodness. The parable becomes more complex when we learn that the darnel is a weed that looks like wheat. The differences become apparent only when the grains appear. Hence the devil tries to deceive us. Unless we are alert and careful, we shall be cheated by him. In Prov 14:12 we read, “There is a way that seems right to a person, but its end is the way to death”. St. Paul says, “Even Satan disguises himself as an angel of light” (2 Cor 11:14). In 2Cor 11:3 he speaks about the devil who deceived Eve “by his craftiness”. Rev 12:9 refers to Satan as one “who deceives the whole world”. This calls for caution and alertness.

✍️ - Br. Biniush Topno

27 जुलाई का पाठ

27 जुलाई 2020
वर्ष का सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह, सोमवार

पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 13:1-11

1) प्रभु ने मुझ से यह कहा, “तुम जा जा कर छालटी की पेटी ख़रीदो और कमर में बाँध लो, किन्तु उसे पानी में नहीं डुबाओ“।

2) मैंने प्रभु के आदेशानुसार पेटी खरीद कर कमर में बाँध ली।

3) प्रभु ने मुझ से दूसरी बार कहा,

4) “तुमने जो पेटी खरीदी, उसे कमर में बाँध कर तुरन्त फ़रात नदी जाओ और उसे वहाँ किसी चट्टान की दरार में छिपा दो।“

5) मैंने प्रभु के आदेशानुसार फ़रात जा कर वहाँ पेटी छिपा दी।

6) बहुत समय बाद प्रभु ने मुझ से कहा, “फ़रात जा कर वह पेटी ले आओ, जिसे तुमने मेरे आदेशानुसार वहाँ छिपाया।“

7) मैंने फ़रात जा कर उस जगह का पता लगाया, जहाँ मैंने पेटी छिपायी थी। मैंने उसे निकाल कर देखा कि वह बिगड़ गयी है और किसी काम की नहीं रह गयी है।

8) तब प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुए सुनाई पड़ी,

9) “प्रभु यह कहता हैः “मैं इसी प्रकार यूदा और येरुसालेम का गौरव नष्ट हो जाने दूँगा।

10) यह दुष्ट प्रजा मेरी एक भी नहीं सुनना चाहती और हठपूर्वक अपनी राह चलती है। यह दूसरे देवताओं की अनुयायी बन कर उनकी उपासना और आराधना करती है। इसलिए यह इस पेटी की तरह किसी काम की नहीं रहेगी ;

11) क्योंकि जिस तरह पेटी मनुय की कमर में कस कर बाँधी जाती है, उसी तरह मैंने समस्त इस्राएल और यूदा को अपने से बाँध लिया था, जिससे वे मेरी प्रजा, मेरा गौरव, मेरी कीर्ति और मेरी शोभा बन जायें। किन्तु उन्होंने मेरी एक भी न सुनी।’ यह प्रभु की वाणी है।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 13:31-35

31) ईसा ने उनके सामने एक और दृष्टान्त प्रस्तुत किया, ’’स्वर्ग का राज्य राई के दाने के सदृश है, जिसे ले कर किसी मनुष्य ने अपने खेत में बोया।

32) वह तो सब बीजों से छोटा है, परन्तु बढ़ कर सब पोधों से बड़ा हो जाता है और ऐसा पेड़ बनता है कि आकाश के पंछी आ कर उसकी डालियों में बसेरा करते हैं।’’

33) ईसा ने उन्हें एक दृष्टान्त सुनाया,’’स्वर्ग का राज्य उस ख़मीर के सदृश है, जिसे लेकर किसी स्त्री ने तीन पंसेरी आटे में मिलाया और सारा आटा खमीर हो गया’’।

34) ईसा दृष्टान्तों में ही ये सब बातें लोगों को समझाते थे। वह बिना दृष्टान्त के उन से कुछ नहीं कहते थे,

35) जिससे नबी का यह कथन पूरा हो जाये- मैं दृष्टान्तों में बोलूँगा। पृथ्वी के आरम्भ से जो गुप्त रहा, उसे मैं प्रकट करूँगा।

📚 मनन-चिंतन - 1

आज का सुसमाचार राई के बीज को सभी बीजों में से सबसे छोटे के रूप में प्रस्तुत करता है और स्वर्गराज्य की तुलना इस सबसे छोटे बीज से की जाती है। जबकि राई का बीज सबसे छोटा बीज है या नहीं, इस बारे में एक अनिर्णायक और अनिश्चित बहस हो सकती है, अगर हम इस तरह की बहस में प्रवेश करते हैं तो हम केवल भटक जायेंगे और सुसमाचार के वास्तविक संदेश से वंचित रह जाएंगे। वह बीज अंकुरित होता है और एक बड़ा पेड़ बन जाता है और आकाश के पंछी आ कर उसकी डालियों में बसेरा करने लगते हैं।

दूसरे दृष्टान्त में प्रभु येसु स्वर्गराज्य की तुलना ख़मीर से करते हैं, जिसे लेकर किसी स्त्री ने तीन पंसेरी आटे में मिलाया और सारा आटा खमीर हो गया। प्रभु येसु हमें यह बताना चाहते हैं कि सबसे छोटे तरीके से मौजूद स्वर्गराज्य के रहस्यों का समाज पर बहुत प्रभाव हो सकता है। इन दोनों उदाहरणों में छोटी सी शुरुआत है, लेकिन बड़ी वृद्धि है। करुणा के सबसे छोटे कार्य का भी आस-पास के लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। थोड़ी मुस्कुराहट, दया का कोई लघुकार्य, सांत्वना का एक शब्द - इन सभी का दूसरों पर बहुत प्रभाव हो सकता है। ईश्वर के राज्य के सन्देशवाहक बहुत फल उत्पन्न करने वाले प्रभु पर भरोसा रखते हुए दयालुता और उदारता के सरल कर्मों को अंजाम देते रहते हैं। कलकत्ता की संत तेरेसा ने एक बार कहा था, “हम में से सब महान कार्य नहीं कर सकते हैं। लेकिन हम छोटे काम बड़े प्यार से कर सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा, "दयालुता का एक शब्द, बोलने में आसान हो सकते हैं और छोटा भी, लेकिन उसकी गूँज वास्तव में अंतहीन होती है"।

✍- ब्रो बिनियु्स टोपनो


📚 REFLECTION

The Gospel passage of today presents the mustard seed as the smallest of all seeds and the kingdom of heaven is compared to this smallest seed. While there can be an inconclusive and ongoing debate about whether mustard seed is the smallest seed, if we enter into such debates we shall only lose the focus and be deprived of the real message of the Gospel. The seed sprouts and grows into a large tree so as to give shelter to the birds of the air.

We also have the parable of the leaven influencing the whole dough. Jesus wants us to know that the Kingdom of heaven present even in the smallest ways can have great influence on the society. Both these examples have small unassuming beginnings, but great growth. Even the smallest act of compassion will have great influence on the people around. A little smile, a kind gesture, a word of consolation – all these can have great influence on others. The messengers of the Kingdom of God are to carry out simple deeds of kindness and generosity trusting in the Lord who brings us results. St. Theresa of Calcutta once said, “Not all of us can do great things. But we can do small things with great love”. She also said, “Kind words can be short and easy to speak, but their echoes are truly endless”.

 Br. Biniush Topno